मणिमहेश https://manimahesh.in/ भगवान् शिव का निवास Sun, 16 Feb 2025 19:03:52 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.2 https://manimahesh.in/wp-content/uploads/2022/01/cropped-om-icon-32x32.png मणिमहेश https://manimahesh.in/ 32 32 महाशिवरात्रि 2025: पंचक्रोशी परिक्रमा का रहस्य, जिसे स्वयं भगवान श्रीराम ने किया था प्रारंभ https://manimahesh.in/%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf-2025-%e0%a4%aa%e0%a4%82%e0%a4%9a%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b6%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%ae%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%af%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%ae-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%a5%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%82%e0%a4%ad/ Sun, 16 Feb 2025 19:03:49 +0000 https://manimahesh.in/?p=1529 महाशिवरात्रि 2025 (Mahashivratri 2025) एक पावन पर्व है, जो भगवान शिव के भक्तों के लिए विशेष महत्व रखता है। यह पर्व 26 फरवरी 2025 को मनाया जाएगा। मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। इस दिन शिव उपासना करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं […]

The post महाशिवरात्रि 2025: पंचक्रोशी परिक्रमा का रहस्य, जिसे स्वयं भगवान श्रीराम ने किया था प्रारंभ appeared first on मणिमहेश.

]]>
महाशिवरात्रि 2025 (Mahashivratri 2025) एक पावन पर्व है, जो भगवान शिव के भक्तों के लिए विशेष महत्व रखता है। यह पर्व 26 फरवरी 2025 को मनाया जाएगा। मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। इस दिन शिव उपासना करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त होता है।

पवित्र पंचक्रोशी यात्रा: शिवभक्तों के लिए क्यों है यह विशेष?

महाशिवरात्रि के अवसर पर शिवभक्त पंचक्रोशी यात्रा (Panchkroshi Yatra) करते हैं, जिसे एक पवित्र तीर्थयात्रा माना जाता है। लेकिन इस यात्रा की शुरुआत कैसे हुई और इसका संबंध भगवान श्रीराम से क्या है?

भगवान राम और पंचक्रोशी यात्रा का ऐतिहासिक संबंध

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पंचक्रोशी यात्रा की परंपरा त्रेतायुग से चली आ रही है और इसकी शुरुआत स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। इस यात्रा का संबंध रामायण में वर्णित एक दुखद घटना से है।

जब अयोध्या नरेश राजा दशरथ (King Dasharatha) एक दिन शिकार के लिए गए, तो उन्होंने श्रवण कुमार को गलती से तीर मार दिया। श्रवण कुमार एक महान भक्त थे, जो अपने अंधे माता-पिता को काँवर में बिठाकर तीर्थयात्रा करा रहे थे।

जब श्रवण कुमार के माता-पिता को इस त्रासदी का पता चला, तो उन्होंने राजा दशरथ को श्राप दे दिया कि जिस प्रकार उन्होंने अपने पुत्र को खोया, उसी प्रकार दशरथ भी अपने पुत्र वियोग में तड़प-तड़पकर प्राण त्यागेंगे। यह श्राप सत्य सिद्ध हुआ, जब भगवान श्रीराम को 14 वर्षों के वनवास पर जाना पड़ा और राजा दशरथ पुत्र-वियोग में स्वर्ग सिधार गए।

श्राप से मुक्ति और आत्मशुद्धि के लिए भगवान श्रीराम ने पंचक्रोशी यात्रा की, जो आज भी धर्म और आध्यात्मिकता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। मान्यता है कि जो भक्त इस पवित्र यात्रा को पूर्ण करते हैं, उन्हें जीवन में शांति, आध्यात्मिक उन्नति और पुण्य की प्राप्ति होती है।


उज्जैन और वाराणसी में पंचक्रोशी यात्रा का महत्व

1. उज्जैन की पंचक्रोशी यात्रा

उज्जैन को भगवान महाकालेश्वर की नगरी माना जाता है, और यहाँ पंचक्रोशी यात्रा वैशाख मास में विशेष रूप से की जाती है। यह यात्रा 118 किलोमीटर की होती है और पाँच प्रमुख शिव मंदिरों के दर्शन का विधान है—

  1. पिंगलेश्वर महादेव (Pingleshwar Mahadev)
  2. कायावरुहणेश्वर महादेव (Kayavarohaneshwar Mahadev)
  3. बिल्वेश्वर महादेव (Bilweshwar Mahadev)
  4. दुर्धरेश्वर महादेव (Durdhreshwar Mahadev)
  5. नीलकंठेश्वर महादेव (Neelkantheshwar Mahadev)

भक्तजन इस यात्रा को पूर्ण कर महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करते हैं, जिससे उन्हें विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है।


2. काशी (वाराणसी) की पंचक्रोशी यात्रा

वाराणसी, जिसे काशी भी कहा जाता है, भगवान शिव की सबसे पवित्र नगरी मानी जाती है। यहाँ महाशिवरात्रि की रात भक्त मणिकर्णिका घाट (Manikarnika Ghat) से पंचक्रोशी यात्रा का प्रारंभ करते हैं।

इस यात्रा में पाँच प्रमुख स्थानों के दर्शन किए जाते हैं—

  1. कर्दमेश्वर महादेव (Kardameshwar Mahadev)
  2. भीमचंडी (Bheem Chandi)
  3. रामेश्वर महादेव (Rameshwar Mahadev)
  4. शिवपुर महादेव (Shivpur Mahadev)
  5. कपिलधारा महादेव (Kapildhara Mahadev)

यात्रा पूर्ण करने के पश्चात श्रद्धालु पुनः मणिकर्णिका घाट लौटते हैं और भगवान शिव की आराधना कर अपने जीवन में शुद्धता और मोक्ष प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं।


पंचक्रोशी यात्रा के धार्मिक लाभ

पंचक्रोशी यात्रा का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी किया गया है, और इसे करने से अनेक आध्यात्मिक एवं धार्मिक लाभ मिलते हैं—

✅ पापों से मुक्ति: यह यात्रा व्यक्ति को उसके पिछले जन्मों के पापों से मुक्त करती है।
✅ मनोकामना पूर्ति: भगवान शिव की कृपा से भक्तों की इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
✅ मोक्ष प्राप्ति: कहा जाता है कि जो श्रद्धालु इस यात्रा को श्रद्धाभाव से पूर्ण करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
✅ आध्यात्मिक उन्नति: यह यात्रा आत्मिक शुद्धि और मानसिक शांति प्रदान करती है।
✅ सकारात्मक ऊर्जा: पंचक्रोशी यात्रा के दौरान पूरे क्षेत्र में शिव मंत्रों की ध्वनि गूँजती है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।


कैसे करें पंचक्रोशी यात्रा?

  • नियम: इस यात्रा को करने वाले भक्तों को सात्विक भोजन करना चाहिए और संयम का पालन करना चाहिए।
  • समय: महाशिवरात्रि की रात्रि में यात्रा करना अत्यंत शुभ माना जाता है।
  • पद्धति: भक्त पैदल यात्रा कर पंचक्रोशी क्षेत्र के सभी प्रमुख शिव मंदिरों में दर्शन करते हैं।
  • संगीत और मंत्र जाप: यात्रा के दौरान “ॐ नमः शिवाय” मंत्र का जाप करना अत्यंत लाभकारी माना जाता है।

महाशिवरात्रि 2025 पर पंचक्रोशी यात्रा का विशेष महत्व

2025 में महाशिवरात्रि विशेष रूप से शुभ योगों में पड़ रही है, इसलिए इस दिन पंचक्रोशी यात्रा करने का फल कई गुना अधिक माना जा रहा है। विद्वानों का कहना है कि इस बार की पंचक्रोशी यात्रा करने से व्यक्ति को दीर्घायु, स्वास्थ्य, समृद्धि और आध्यात्मिक जागरूकता प्राप्त होगी।

क्या आप भी महाशिवरात्रि 2025 पर पंचक्रोशी यात्रा करने की योजना बना रहे हैं? यह अद्भुत धार्मिक अनुभव आपके जीवन को सकारात्मकता और शांति से भर सकता है!

The post महाशिवरात्रि 2025: पंचक्रोशी परिक्रमा का रहस्य, जिसे स्वयं भगवान श्रीराम ने किया था प्रारंभ appeared first on मणिमहेश.

]]>
कुंभ मेला: आयोजन का उद्देश्य और इतिहास https://manimahesh.in/%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%82%e0%a4%ad-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%86%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%9c%e0%a4%a8-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%87%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b8/ Mon, 13 Jan 2025 10:12:03 +0000 https://manimahesh.in/?p=1524 कुंभ मेला भारत के सबसे बड़े और सबसे पवित्र धार्मिक मेलों में से एक है। यह मेला हर बार एक विशेष समय पर आयोजित होता है जब ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति अनुकूल होती है। कुंभ मेला का आयोजन हिन्दू धर्म में एक अत्यधिक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक अवसर माना जाता है, जो न केवल […]

The post कुंभ मेला: आयोजन का उद्देश्य और इतिहास appeared first on मणिमहेश.

]]>
कुंभ मेला भारत के सबसे बड़े और सबसे पवित्र धार्मिक मेलों में से एक है। यह मेला हर बार एक विशेष समय पर आयोजित होता है जब ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति अनुकूल होती है। कुंभ मेला का आयोजन हिन्दू धर्म में एक अत्यधिक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक अवसर माना जाता है, जो न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया से लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। इस मेले में भक्तगण पवित्र नदियों में स्नान करके अपने पापों से मुक्ति प्राप्त करने की कामना करते हैं और पुण्य की प्राप्ति के लिए धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। कुंभ मेला का आयोजन विशेष रूप से चार स्थानों पर होता है—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक—और यह प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार आयोजित किया जाता है।

इस लेख में हम कुंभ मेला के आयोजन का उद्देश्य, इसका ऐतिहासिक संदर्भ, पौराणिक कथाएँ और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसके आयोजन की प्रक्रिया पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे। साथ ही, हम देखेंगे कि कैसे यह मेला भारतीय संस्कृति और धार्मिकता का एक प्रतीक बन चुका है।

1. कुंभ मेला का उद्देश्य

कुंभ मेला का आयोजन मुख्य रूप से हिन्दू धर्म के अनुयायियों के लिए किया जाता है, जिसमें भक्तगण पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और अपनी आत्मा की शुद्धि की कामना करते हैं। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, यह स्नान न केवल शारीरिक शुद्धता लाता है, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धता भी प्रदान करता है। इसे पापों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति के एकमात्र साधन के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, कुंभ मेला का आयोजन समाज में धार्मिक समरसता और भाईचारे को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भी किया जाता है।

कुंभ मेला एक ऐसा अवसर होता है जब लोग अपनी जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमाओं को पार करके एकजुट होते हैं और केवल ईश्वर की पूजा और आशीर्वाद की कामना करते हैं। यह मेला भारतीय समाज की विविधता और धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक बनकर उभरता है। यही कारण है कि कुंभ मेला धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

इसके अलावा, कुंभ मेला एक सांस्कृतिक पर्व भी है, जिसमें विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ, हवन, भजन और कीर्तन आयोजित होते हैं। ये अनुष्ठान न केवल भक्तों की आस्था को प्रगाढ़ करते हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को भी उजागर करते हैं।

2. कुंभ मेला का इतिहास और पौराणिक कथाएँ

कुंभ मेला का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है और इसके आयोजन के पीछे कई पौराणिक कथाएँ और धार्मिक मान्यताएँ हैं। इन कथाओं के माध्यम से हमें कुंभ मेला के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है।

2.1. समुद्र मंथन की कथा

कुंभ मेला का आयोजन समुद्र मंथन से जुड़ी एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा से संबंधित है। हिन्दू धर्म के अनुसार, देवताओं और दानवों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया था। मंथन के दौरान अमृत से भरा हुआ कलश (कुंभ) प्राप्त हुआ। इस अमृत के चलते देवताओं ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य को पुनः प्राप्त किया और दानवों को हराया।

कथा के अनुसार, जब अमृत कलश को देवताओं और दानवों के बीच बंटा जा रहा था, तब चार स्थानों—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक—पर अमृत के कुछ बूँदें गिर गईं। ये स्थान कुंभ मेला के आयोजन स्थल बने, और इन्हें पवित्र माना गया। माना जाता है कि इन स्थानों पर स्नान करने से व्यक्ति के पाप समाप्त हो जाते हैं और वह पुण्य का भागी बनता है।

2.2. वेदों और शास्त्रों में उल्लेख

कुंभ मेला का उल्लेख हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। वेदों, पुराणों और महाभारत में इस आयोजन का महत्व बताया गया है। इन ग्रंथों में यह वर्णित है कि जब पृथ्वी पर विशेष ग्रहों की स्थिति बनती है, तब कुंभ मेला का आयोजन किया जाता है। विशेष रूप से, जब बृहस्पति (गुरु), शनि और चंद्रमा एक शुभ स्थिति में होते हैं, तो इसे ‘कुंभ’ का समय माना जाता है। इस समय स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है और पापों से मुक्ति मिलती है।

2.3. साधु-संतों का मिलन

कुंभ मेला के आयोजन में साधु-संतों का विशेष योगदान होता है। यह एक ऐसा अवसर होता है जब साधु-संत अपनी तपस्या, ध्यान, और धार्मिक उपदेशों से भक्तों को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। कुंभ मेला के दौरान अखाड़ों के संत अपने-अपने उपदेशों और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से लोगों को आत्मा की शुद्धि और पुण्य अर्जित करने की प्रेरणा देते हैं। साधु-संतों के लिए कुंभ मेला एक ऐसा मंच होता है, जहाँ वे अपनी तपस्या और ध्यान के माध्यम से संसार की माया से मुक्त होने का प्रयास करते हैं।

3. कुंभ मेला का आयोजन: ज्योतिष शास्त्र और ग्रहों की स्थिति

कुंभ मेला का आयोजन पूरी तरह से ज्योतिष शास्त्र पर आधारित होता है। मेला तब आयोजित किया जाता है जब ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है कि वह व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए उपयुक्त होती है।

3.1. कुंभ मेला का समय

कुंभ मेला का आयोजन हर 12 वर्ष में एक बार होता है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर कुंभ मेला के आयोजन का समय अलग-अलग होता है। हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में कुंभ मेला का आयोजन विशेष ग्रहों की स्थिति के आधार पर किया जाता है।

कुंभ मेला का आयोजन तब होता है जब बृहस्पति (गुरु), शनि और चंद्रमा के बीच एक विशेष योग बनता है। इस समय का चुनाव इसलिए किया जाता है क्योंकि यह समय धार्मिक रूप से अत्यधिक शुभ और कल्याणकारी माना जाता है।

3.2. ग्रहों की स्थिति और ज्योतिषीय महत्व

ज्योतिष के अनुसार, जब बृहस्पति (गुरु) और शनि एक विशेष राशि में होते हैं और चंद्रमा भी एक विशिष्ट स्थिति में होता है, तो इसे ‘कुंभ’ का समय माना जाता है। इस समय स्नान करने से व्यक्ति के पाप समाप्त हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कुंभ मेला में स्नान करने से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक बदलाव आते हैं और वह अपने जीवन के सभी संकटों से मुक्त हो जाता है।

4. कुंभ मेला के आयोजन स्थल

कुंभ मेला का आयोजन चार प्रमुख स्थानों पर होता है—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक।

4.1. प्रयागराज (आलाहाबाद)

प्रयागराज, जिसे पहले इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था, कुंभ मेला का सबसे प्रमुख आयोजन स्थल है। यहाँ त्रिवेणी संगम (गंगा, यमुन

ा और सरस्वती नदियों का संगम) पर विशाल मेला लगता है। यह स्थल हिन्दू धर्म में अत्यधिक पवित्र माना जाता है, और यहाँ स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। प्रयागराज में आयोजित कुंभ मेला भारत के सबसे बड़े धार्मिक मेलों में से एक है।

4.2. हरिद्वार

हरिद्वार, गंगा नदी के किनारे स्थित, एक और महत्वपूर्ण कुंभ मेला स्थल है। यहाँ हर बार जब ग्रहों की स्थिति अनुकूल होती है, तब कुंभ मेला का आयोजन किया जाता है। हरिद्वार में गंगा स्नान का विशेष महत्व है, और यहाँ स्नान करने से व्यक्ति के पापों से मुक्ति मिलती है।

4.3. उज्जैन

उज्जैन मध्य प्रदेश राज्य में स्थित एक और प्रमुख कुंभ मेला स्थल है। यहाँ भी बृहस्पति और शनि की विशेष स्थिति में कुंभ मेला आयोजित किया जाता है। उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर और सिंहस्थ कुंभ मेला का विशेष धार्मिक महत्व है।

4.4. नासिक

नासिक महाराष्ट्र राज्य में स्थित एक और प्रमुख कुंभ मेला स्थल है। यहाँ भी नर्मदा, गोदावरी और कृष्णा नदियों का संगम स्थल है, और यहाँ स्नान करने का विशेष धार्मिक महत्व है।

5. कुंभ मेला की सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व

कुंभ मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और धार्मिकता का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह मेला भारतीय समाज की विविधता, सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक एकता को प्रदर्शित करता है। कुंभ मेला के दौरान, विभिन्न समुदायों, जातियों, और धर्मों के लोग एकत्र होते हैं और केवल धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेते हैं।

कुंभ मेला का आयोजन भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक सामंजस्य का प्रतीक है। यह मेला यह दिखाता है कि कैसे विभिन्न धार्मिक समूह एक साथ आकर एकजुट हो सकते हैं और अपनी आस्था, विश्वास और परंपराओं का पालन कर सकते हैं।

6. निष्कर्ष

कुंभ मेला भारत के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक आयोजनों में से एक है। यह मेला न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, परंपरा, और समाज की एकता का प्रतीक भी है। कुंभ मेला के आयोजन के पीछे की पौराणिक कथाएँ, ज्योतिषीय मान्यताएँ और धार्मिक अनुष्ठान इसे एक अद्वितीय और अत्यधिक महत्वपूर्ण मेला बनाते हैं। यह मेला भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता के समृद्ध इतिहास को प्रदर्शित करता है और विश्वभर में लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।

The post कुंभ मेला: आयोजन का उद्देश्य और इतिहास appeared first on मणिमहेश.

]]>
ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना – तीसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%a3-%e0%a4%b5%e0%a5%87%e0%a4%b7-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%98%e0%a4%b0-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%a4%e0%a5%80%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:17:35 +0000 https://manimahesh.in/?p=1517 ्रह्माजी बोले ;- हे नारद! गिरिराज हिमालय और देवी मैना के मन में भगवान शिव के प्रति भक्ति भाव देखकर सभी देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। तब देवताओं के गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया […]

The post ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना – तीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
्रह्माजी बोले ;- हे नारद! गिरिराज हिमालय और देवी मैना के मन में भगवान शिव के प्रति भक्ति भाव देखकर सभी देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। तब देवताओं के गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी अनेकानेक बार स्तुति की।

तत्पश्चात देवता बोले ;- हे देवाधिदेव! महादेव! भगवान शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। हम पर प्रसन्न होइए और हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए । प्रभो! आप तो भक्तवत्सल हैं और अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। आप दीन दुखियों का उद्धार करते हैं। आप दया और करुणा के अथाह सागर हैं। आप ही अपने भक्तों को संकटों से दूर करते हैं तथा उनकी सभी विपत्तियों का विनाश करते हैं। इस प्रकार महादेव जी की अनेकों बार स्तुति करने के बाद देवताओं ने भगवान शिव को गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना की भक्ति से अवगत कराया और आदर सहित सभी बातें उन्हें बता दीं।

तत्पश्चात भगवान शिव ने हंसते हुए उनकी सभी प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लिया। तब अपने कार्य को सिद्ध हुआ समझकर सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम लौट गए। जैसा कि सभी जानते हैं कि भगवान शिव को लीलाधारी कहा जाता है। वे माया के स्वामी हैं। पुनः वे शैलराज हिमालय के घर गए । उस समय राजा हिमालय अपनी पुत्री पार्वती सहित सभा भवन में बैठे हुए थे। उन्होंने ऐसा रूप धारण किया कि वे कोई ब्राह्मण अथवा साधु-संत जान पड़ते थे। उनके हाथ में दण्ड व छत्र था। शरीर पर दिव्य वस्त्र तथा माथे पर तिलक शोभा पा रहा था। उनके गले में शालग्राम तथा हाथ में स्फटिक की माला थी। वे मुक्त कंठ से हरिनाम जप रहे थे। उन्हें आया देखकर पर्वतों के राजा हिमालय तुरंत उठकर खड़े हो गए और उन्होंने ब्राह्मण को भक्तिभाव से साष्टांग प्रणाम किया। देवी पार्वती अपने प्राणेश्वर भगवान शिव को तुरंत पहचान गईं। उन्होंने उत्तम भक्तिभाव से सिर झुकाकर उनकी स्तुति की। वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं। तब ब्राह्मण रूप में पधारे भगवान शिव ने सभी को आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात हिमालय ने उन ब्राह्मण देवता की पूजा-आराधना की और उन्हें मधुपर्क आदि पूजन सामग्री भेंट की, जिसे शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। तत्पश्चात पार्वती के पिता हिमालय ने उनका कुशल समाचार पूछा और बोले- हे विप्रवर! आप कौन हैं?

यह प्रश्न सुनकर वे ब्राह्मण देवता बोले ;- हे गिरिश्रेष्ठ! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूं और भूतल पर भ्रमण करता रहता हूं। मेरी गति मन के समान है। एक पल में यहां तो दूसरे पल में वहां। मैं सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्धात्मा हूं। मैं ज्योतिषी हूं और भाग्य की सभी बातें जानता हूं। क्या हुआ है? क्या होने वाला है? यह सबकुछ मैं जानता हूं। मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी दिव्य सुलक्षणा पुत्री पार्वती को, जो कि सुंदर एवं लक्ष्मी के समान है, आश्रय विहीन, कुरूप और गुणहीन महेश्वर शिव को सौंपना चाहते हैं। वे शिवजी तो मरघट में रहते हैं। उनके शरीर पर हर समय सांप लिपटे रहते हैं और वे अधिक समय योग और ध्यान में ही बिताते हैं। वे नंग-धड़ंग होकर ही इधर-उधर भटकते फिरते हैं। उनके पास पहनने के लिए वस्त्र भी नहीं हैं। आज कोई उनके कुल के विषय में भी नहीं जानता है। वे स्वभाव से बहुत ही उग्र हैं । बात-बात पर उन्हें क्रोध आ जाता है। वे अपने शरीर पर सदा भस्म लगाए रहते हैं। सिर पर उन्होंने जटाजूट धारण कर रखा है। ऐसे अयोग्य वर को, जिसमें अच्छा और रुचिकर कहने लायक कुछ भी नहीं है, आप क्यों अपनी पुत्री का जीवन साथी बनाना चाहते हैं?

आपका यह सोचना कि शिव ही आपकी पुत्री के योग्य हैं, सर्वथा गलत है। आप तो महान ज्ञानी हैं। आप नारायण कुल में उत्पन्न हुए हैं। भला आपकी सुंदर पुत्री को वरों की क्या कमी हो सकती है? उस परम सुंदरी से विवाह करने को अनेकों देशों के महान वीर, बलशाली, सुंदर, स्वस्थ राजा और राजकुमार सहर्ष तैयार हो जाएंगे। आप तो समृद्धिशाली हैं। आपके घर में भला किस वस्तु की कमी हो सकती है? परंतु शैलराज जहां आप अपनी पुत्री को ब्याहना चाह रहे हैं, वे बहुत निर्धन हैं। यहां तक कि उनके भाई-बंधु भी नहीं हैं। वे सर्वथा अकेले हैं। गिरिराज हिमालय! आपके पास अभी समय है। अतः आप अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों व अपनी प्रिय पत्नी देवी मैना से इस विषय में सलाह कर लें परंतु अपनी पुत्री पार्वती से इस विषय में कोई सलाह न लें क्योंकि वे शिव के गुण-दोषों के बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं। ऐसा कहकर ब्राह्मण देवता, जो वास्तव में साक्षात भगवान शिव ही थे, हिमालय का आदर-सत्कार ग्रहण करके आनंदपूर्वक वहां से अपने धाम को चले गए।

भगवान शिव का ब्राह्मण रूप में आगमन और हिमालय से संवाद

देवताओं का शिवजी के पास जाना
गिरिराज हिमालय और देवी मैना की भक्ति देखकर देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। देवताओं के गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी देवता कैलाश पर्वत पहुंचे और भगवान शिव की स्तुति की। उन्होंने भगवान शिव से आशीर्वाद की याचना की, उनकी भक्ति का गुणगान किया, और गिरिराज हिमालय एवं देवी मैना की भक्ति के बारे में बताया। भगवान शिव ने उन सभी की प्रार्थनाओं को स्वीकार किया, जिससे देवता प्रसन्न होकर अपने-अपने धाम लौट गए।

भगवान शिव का ब्राह्मण रूप में आगमन
भगवान शिव ने फिर एक बार शैलराज हिमालय के घर जाने का निश्चय किया, लेकिन इस बार वे ब्राह्मण के रूप में आए। उनका रूप अत्यंत आकर्षक और दिव्य था। उनके हाथ में दण्ड और छत्र था, शरीर पर दिव्य वस्त्र थे, और माथे पर तिलक शोभा पा रहा था। गले में शालग्राम और हाथ में स्फटिक की माला थी। वे मुक्त कंठ से हरिनाम जप रहे थे। हिमालय ने तुरंत उठकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया, और देवी पार्वती ने भगवान शिव को पहचानते हुए भक्तिभाव से उनकी स्तुति की।

हिमालय का प्रश्न और शिवजी का उत्तर
इस समय हिमालय ने ब्राह्मण रूप में आए भगवान शिव से पूछा, “हे विप्रवर! आप कौन हैं?” इस पर भगवान शिव ने उत्तर दिया, “हे गिरिश्रेष्ठ! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूं, जो भूतल पर भ्रमण करता रहता हूं। मेरी गति मन के समान है। मैं सर्वज्ञ, परोपकारी और शुद्धात्मा हूं। मैं ज्योतिषी हूं और भविष्यवाणी करने में सक्षम हूं।” भगवान शिव ने यह भी कहा कि उन्हें ज्ञात हुआ है कि हिमालय अपनी पुत्री पार्वती को महेश्वर शिव से विवाह के लिए सौंपना चाहते हैं, जो कि बहुत ही अयोग्य और गरीब हैं। वे मरघट में रहते हैं, उनके शरीर पर सदा सांप लिपटे रहते हैं, और वे अधिकतर ध्यान में ही मग्न रहते हैं। वे क्रोधी और उग्र स्वभाव के हैं। ऐसे व्यक्ति को अपनी पुत्री का जीवन साथी क्यों बनाना चाहते हैं?

हिमालय से उपदेश और चेतावनी
भगवान शिव ने आगे कहा कि हिमालय को अपनी पुत्री के लिए अन्य योग्य वरों के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि शिव से विवाह के लिए पार्वती की कोई विशेष जानकारी नहीं है। भगवान शिव ने यह भी कहा कि वह स्वयं अपनी पुत्री से इस विषय में कोई सलाह न लें, क्योंकि वे शिव के गुण-दोषों के बारे में कुछ नहीं जानतीं। शिवजी ने हिमालय को अपनी पुत्री के लिए श्रेष्ठ और योग्य वरों के चयन की सलाह दी और बिना किसी उपहार के वहां से वापिस लौट गए।

भगवान शिव का अद्भुत रूप और हिमालय की द्वंद्वात्मक स्थिति
भगवान शिव का यह रूप और उनका वचन हिमालय के लिए एक चुनौती और द्वंद्व का कारण बन गया। एक ओर वे जानते थे कि भगवान शिव के पास विशाल माया और शक्ति है, दूसरी ओर उनकी भक्ति और विश्वास शिव पर था। हिमालय और देवी मैना दोनों ही अपने मन में यह सोचते रहे कि भगवान शिव के उपदेशों को कैसे स्वीकार किया जाए और अपनी पुत्री का भविष्य कैसे सुरक्षित किया जाए।

The post ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना – तीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना – उनतीसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%af-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a8%e0%a4%a4%e0%a5%80%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:16:32 +0000 https://manimahesh.in/?p=1516 ब्रह्माजी बोले ;- हे महामुनि नारद! भगवान शिव के वहां से अंतर्धान हो जाने के उपरांत देवी पार्वती भी अपनी सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके आने का शुभ समाचार सुनकर देवी मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और तुरंत सिंहासन से उठकर देवी पार्वती से मिलने के […]

The post शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना – उनतीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
ब्रह्माजी बोले ;- हे महामुनि नारद! भगवान शिव के वहां से अंतर्धान हो जाने के उपरांत देवी पार्वती भी अपनी सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके आने का शुभ समाचार सुनकर देवी मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और तुरंत सिंहासन से उठकर देवी पार्वती से मिलने के लिए चल दिए। उनके सभी भाई भी उनकी जय-जयकार करते हुए उनसे मिलने के लिए आगे चले गए। देवी पार्वती अपने नगर के निकट पहुंचीं। वहां उन्होंने अपने माता-पिता और भाइयों को नगर के मुख्य द्वार पर अपना इंतजार करते पाया। वे अत्यंत हर्ष से विभोर होकर उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे। पार्वती ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। हिमालय और मैना ने अपनी पुत्री को अनेकानेक आशीर्वाद देकर गले से लगा लिया। भाव विह्वल होकर उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे। सभी उपस्थित लोगों ने उनकी मुक्त हृदय से प्रशंसा की। वे कहने लगे कि पार्वती ने उनके कुल का उद्धार किया है और अपने मनोवांछित कार्य की सिद्धि की है। इस प्रकार सभी प्रसन्न थे और उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं थक रहे थे। लोगों ने सुगंधित पुष्पों, चंदन एवं अन्य सामग्रियों से देवी पार्वती का पूजन किया। इस शुभ बेला में उन पर स्वर्ग से देवताओं ने भी पुष्प । वर्षा की तथा उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बहुत आदर सहित उन्हें घर की ओर जाया गया और विधि-विधान से उनका गृह प्रवेश कराया गया। ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों, देवताओं और प्रजाजनों ने उन्हें अनेकों शुभ व उत्तम आशीर्वाद प्रदान किए।

इस शुभ अवसर पर शैलराज हिमालय ने ब्राह्मणों एवं दीन-दुखियों को दान दिया। उन्होंने ब्राह्मणों से मंगल पाठ भी कराया। उन्होंने पधारे हुए सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और स्त्री पुरुषों का आदर सत्कार किया। तत्पश्चात हिमालय अपनी पत्नी मैना को साथ लेकर गंगा स्नान को चलने लगे, तभी भगवान शिव नाचने वाले नट का वेश धारण करके उनके समीप पहुंचे। उनके बाएं हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू था और पीठ पर कथरी रखी थी उन्होंने सुंदर, लाल वस्त्र पहने थे । नाचने-गाने में वे पूर्णतः मग्न थे । नट रूप धारण किए हुए शिवजी ने बहुत सुंदर नृत्य किया और अनेक प्रकार के गीत गा-गाकर सभी का मन मोह लिया। नृत्य करते समय वे बीच-बीच में शंख और डमरू भी बजा रहे थे और मनोरम लीलाएं कर रहे थे। उनकी इस प्रकार की मन को हरने वाली लीलाएं देखने के लिए पूरे नगर के स्त्री पुरुष, बच्चे-बूढ़े, वहां आ गए। नटरूपी भगवान शिव को नृत्य करते हुए देखकर और उनका गाना सुनकर सभी मंत्र मुग्ध हो गए। परंतु देवी पार्वती से भला यह कब तक छिपता? उन्होंने मन ही मन अपने प्रिय महादेव जी के साक्षात दर्शन कर लिए। शिवजी का रूप ही अलौकिक है। उन्होंने पूरे शरीर पर विभूति मल रखी थी तथा उनके शरीर पर त्रिशूल बना हुआ था। गले में हड्डियों की माला पहन रखी थी। उनका मुख सूर्य के तेज के समान शोभा पा रहा था।

उनके गले में यज्ञोपवीत के समान नाग लटका हुआ था । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के इस सुंदर, मनोहारी स्वरूप का हृदय में दर्शन कर लेने मात्र से ही देवी पार्वती हर्षातिरेक से बेहोश हो गईं। वे जैसे उनके स्वप्न में कह रहे थे कि देवी ‘अपना मनोवांछित वर मांगो।’ हृदय में विराजमान इस अनोखे स्वरूप को मन ही मन प्रणाम करके पार्वती ने कहा कि भगवन्! मेरे पति बन जाइए। तब देवेश्वर ने मुस्कुराते हुए ‘तथास्तु’ कहा और उनके स्वप्न से अंतर्धान हो गए। जब उनकी आंखें खुलीं तो उन्होंने शिवजी को नट रूप धारण किए वहां नाचते-गाते देखा।

नट के रूप में स्वयं भक्तवत्सल भगवान शिव के नाच-गाने से प्रसन्न होकर पार्वती की माता मैना सोने की थाली में रत्न, माणिक, हीरे और सोना लेकर उन्हें भिक्षा देने के लिए आईं। उनका ऐश्वर्य देखकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए परंतु उन्होंने उन सुंदर रत्नों और आभूषणों को लेने से इनकार कर दिया।

वे बोले ;- देवी! भला मुझे रत्नों और आभूषणों से क्या लेना-देना। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहती हैं तो अपनी कन्या का दान दे दीजिए । यह कहकर वे पुनः नृत्य करने लगे। उनकी बातें सुनकर देवी मैना क्रोध से उफन उठीं। वे उन्हें उसी समय वहां से निकालना चाहती थीं कि तभी गिरिराज हिमालय भी गंगा स्नान करके वापिस लौट आए। जब उनकी पत्नी मैना ने उन्हें सभी बातें बताईं तो वे भी जल्द से जल्द नट को वहां से निकालने को तैयार हो गए। उन्होंने अपने सेवकों को नट को बाहर निकालने की आज्ञा दी। परंतु यह असंभव था। वे साक्षात शिव भले ही नट का रूप धारण किए हुए थे परंतु उनका शरीर अद्भुत तेज से संपन्न था और वे परम तेजस्वी दिखाई दे रहे थे। उन्हें उठाकर निकाल फेंकना तो दूर की बात थी, उन्हें तो छूना भी कठिन था। तब उन्होंने मैना – हिमालय को अनेक प्रकार की लीलाएं रचकर दिखाईं। नट ने तुरंत ही श्रीहरि विष्णु का रूप धारण कर लिया। उनके माथे पर किरीट, कानों में कुण्डल और शरीर पर पीले वस्त्र अनोखी शोभा पा रहे थे। उनकी चार भुजाएं थीं। पूजा करते समय हिमालय और मैना ने जो पुष्प, गंध एवं अन्य वस्तुएं अर्पित की थीं वे सभी उनके शरीर और मस्तक पर शोभा पा रही थीं। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। तत्पश्चात नट ने जगत की रचना करने वाले ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप धारण कर लिया। उनका शरीर लाल रंग का था और वे वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। उन सभी ने उस नट भक्तवत्सल भगवान शिव के उत्तम रूप को देखा। उनके साथ देवी पार्वती भी थीं। वे रूद्र रूप में मुस्कुरा रहे थे। उनका वह स्वरूप अत्यंत सुंदर एवं मनोहारी था। उनकी ये सुंदर लीलाएं देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए थे और परम आनंद का अनुभव कर रहे थे। तत्पश्चात पुनः एक बार नट रूपी शिवजी ने मैना हिमालय से उनकी पुत्री का हाथ मांगा तथा अन्य भिक्षा ग्रहण करने से इनकार कर दिया परंतु शिवजी की माया से मोहित हुए गिरिराज हिमालय ने उन्हें अपनी पुत्री सौंपने से मना कर दिया। बिना कुछ भी लिए वह नट वहां से अंतर्धान हो गया। वे सोचने लगे कि श वे स्वयं भगवान शिव ही थे, जो स्वयं यहां पधार कर हमारी कन्या का हाथ मांग रहे थे और हमें अपनी माया से छलकर अपने निवास कैलाश पर वापिस चले गए हैं। यह सोचकर हिमालय और मैना दोनों ही एक पल को बहुत प्रसन्न हुए परंतु अगले ही पल यह सोचकर उदास हो गए कि हमने स्वयं साक्षात शिवजी को, बिना कुछ दिए और उनका आदर-सम्मान किए बिना ही खाली हाथ अपने द्वार से लौटा दिया। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे।

देवी पार्वती का आगमन और भगवान शिव का नट रूप में दर्शन

पार्वती का स्वागत
जब देवी पार्वती भगवान शिव की स्वीकृति के बाद अपने घर की ओर चलीं, तो उनके आगमन की खबर से उनके माता-पिता, देवी मैना और शैलराज हिमालय अत्यंत प्रसन्न हुए। दोनों तुरंत सिंहासन छोड़कर अपनी पुत्री से मिलने के लिए दौड़े। पार्वती के भाइयों ने भी खुशी-खुशी उनकी जय-जयकार करते हुए उनका स्वागत किया। पार्वती जब नगर के मुख्य द्वार पर पहुंचीं, तो उन्होंने अपने माता-पिता और भाइयों को उनका स्वागत करते पाया। वे सब अपनी बेटी को देखकर अत्यंत खुश हुए और उसे गले से लगा लिया। पार्वती ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया, और हिमालय व मैना ने आशीर्वाद के साथ अपनी पुत्री को गले से लगा लिया। इस दृश्य को देखकर उपस्थित सभी लोग उनकी प्रशंसा करने लगे और पार्वती को उनके कुल का उद्धार करने वाली और अपनी तपस्या से सफल होने वाली देवी के रूप में सराहने लगे।

भगवान शिव का नट रूप में आगमन
इस खुशी के अवसर पर, शैलराज हिमालय ने ब्राह्मणों और दीन-दुखियों को दान दिया और मंगल पाठ कराया। इसी बीच, भगवान शिव नट के रूप में, अपने बाएं हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू लिए, नृत्य करते हुए वहां पहुंचे। उनका रूप और नृत्य सभी को मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। शिवजी ने नृत्य करते हुए गीत गाए, शंख और डमरू बजाए और मनोरम लीलाएं रचाईं। उनके नृत्य और संगीत को देख सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।

पार्वती का दिव्य दर्शन
देवी पार्वती ने भगवान शिव के नट रूप को देखा और उनका रूप हृदय में महसूस किया। उनका रूप अलौकिक था, शरीर पर विभूति और त्रिशूल के निशान थे। उनका मुख सूर्य के तेज़ जैसा था। उन्होंने अपनी आँखों को बंद किया और अपने प्रिय महादेव के दर्शन किए। शिवजी ने स्वप्न में उन्हें वरदान देने का संकेत दिया। पार्वती ने शरणागत भाव से भगवान शिव से कहा, “भगवान, आप मेरे पति बन जाइए।” शिवजी ने मुस्कुराते हुए ‘तथास्तु’ कहा और फिर उनका रूप अंतर्धान हो गया।

देवी मैना की भिक्षा और शिवजी का उत्तर
नट रूप में भगवान शिव का नृत्य देखकर देवी मैना ने उन्हें सोने की थाली में रत्न, माणिक, हीरे और सोने से भिक्षा देने का प्रस्ताव किया। लेकिन भगवान शिव ने उन आभूषणों को अस्वीकार करते हुए कहा, “मुझे रत्नों और आभूषणों की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप मुझे कुछ देना चाहती हैं, तो अपनी कन्या का दान दे दीजिए।”

इस पर देवी मैना को गुस्सा आ गया, और वे नट रूप में शिवजी को बाहर निकालने का सोचने लगीं। उसी समय गिरिराज हिमालय स्नान करके लौटे और उन्होंने यह सुनकर नट रूप में शिवजी को वहाँ से निकालने का आदेश दिया। लेकिन, शिवजी का रूप अद्भुत था और उनकी शक्ति इतनी तेज़ थी कि उन्हें छूना भी कठिन था।

भगवान शिव की माया और रूपों का परिवर्तन
तभी नट रूप में शिवजी ने अपनी माया से श्रीहरि विष्णु का रूप धारण किया, फिर ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप लिया, और अंत में रुद्र रूप में मुस्कुराते हुए देवताओं और सभी उपस्थित लोगों को अपनी लीलाओं से आश्चर्यचकित कर दिया। सभी ने भगवान शिव के रूपों को देखा और उनके अद्भुत रूपों की प्रशंसा की।

नट रूप में शिवजी का पुनः वचन
फिर नट रूपी भगवान शिव ने हिमालय और मैना से एक बार फिर पार्वती का हाथ मांगा। लेकिन जब हिमालय ने अपनी पुत्री को देने से मना कर दिया, तो नट रूप में शिवजी बिना कुछ लिए वहां से अंतर्धान हो गए। इस घटनाक्रम से हिमालय और मैना को यह अहसास हुआ कि वे स्वयं भगवान शिव से मिले थे और उनकी माया से मोहित हो गए थे। इस समझ के साथ वे दोनों प्रसन्न तो हुए, लेकिन साथ ही उदास भी थे कि वे साक्षात शिवजी को बिना कुछ दिए और उनका सम्मान किए बिना ही वापस लौटा दिए थे।

The post शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना – उनतीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
शिव-पार्वती संवाद – अट्ठाईसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%85%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%a0%e0%a4%be%e0%a4%88%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:15:14 +0000 https://manimahesh.in/?p=1515 ब्रह्माजी कहते हैं ;— नारद! परमेश्वर भगवान शिव की बातें सुनकर और उनके साक्षात स्वरूप का दर्शन पाकर देवी पार्वती को बहुत हर्ष हुआ। उनका मुख मंडल प्रसन्नता के कारण कमल दल के समान खिल उठा। उस समय वे बहुत सुख का अनुभव करने लगीं। अपने सम्मुख खड़े महादेव जी से वे इस प्रकार बोलीं- […]

The post शिव-पार्वती संवाद – अट्ठाईसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
ब्रह्माजी कहते हैं ;— नारद! परमेश्वर भगवान शिव की बातें सुनकर और उनके साक्षात स्वरूप का दर्शन पाकर देवी पार्वती को बहुत हर्ष हुआ। उनका मुख मंडल प्रसन्नता के कारण कमल दल के समान खिल उठा। उस समय वे बहुत सुख का अनुभव करने लगीं। अपने सम्मुख खड़े महादेव जी से वे इस प्रकार बोलीं- हे देवेश्वर ! आप सबके स्वामी हैं। हे प्रभो! पूर्वकाल आपने जिस प्रिया के कारण प्रजापति दक्ष के संपूर्ण यज्ञ का पलों विनाश कर दिया था, भला उसे ऐसे ही क्यों भुला दिया? हे सर्वेश्वर! हम दोनों का साथ तो जन्म-जन्मांतर का है। प्रभु ! इस समय मैं समस्त देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनको तारकासुर के दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए पर्वतों के राजा हिमालय की पत्नी देवी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुई हूं। आपको ज्ञात ही है कि आपको पुनः पति रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैंने यह कठोर तपस्या की है।

इसलिए देवेश! आप मुझसे विवाह कर मुझे मेरी इच्छानुसार अपनी पत्नी बना लें। भगवन् आप तो अनेक लीलाएं रचते हैं। अब आप मेरे पिता शैलराज हिमालय और मेरी माता मैना के समक्ष चलकर उनसे मेरा हाथ मांग लीजिए।

भगवन्! जब आप इन सब बातों से मेरे पिता को अवगत कराएंगे, तब वे निश्चय ही मेरा हाथ प्रसन्नतापूर्वक आपको सौंप देंगे। पूर्व जन्म में जब मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी, उस समय मेरा और आपका विवाह हुआ था। तब मेरे पिता दक्ष ने ग्रहों की पूजा नहीं की थी। उस विवाह में ग्रहपूजन से संबंधित बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी। मैं यह चाहती हूं कि इस बार शास्त्रोक्त विधि से हमारा विवाह संपन्न हो। हमें विवाह से संबंधित सभी रीति-रिवाजों और रस्मों का भली-भांति पालन करना चाहिए ताकि इस बार हमारा विवाह सफल हो सके। देवेश्वर ! आप मेरे पिता हिमालय को इस संबंध में बताएं ताकि उन्हें अपनी पुत्री की तपस्या के विषय में ज्ञात हो सके।

देवी पार्वती के प्रेम और निष्ठा भरे इन शब्दों को सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और हंसते हुए बोले ;- हे देवी! महेश्वरी! इस संसार में हमारे आस-पास जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब ही नाशवान अर्थात नश्वर है। मैं निर्गुण परमात्मा हूं। मैं अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होता हूं। मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है। देवी आप समस्त कर्मों को करने वाली प्रकृति हैं। आप ही महामाया हैं। आपने ही मुझे इस माया-मोह के बंधनों में फंसाया है। मैंने इन सभी को धारण कर रखा है। कौन मुख्य ग्रह है? कौन ऋतु समूह हैं? हे देवी! आप और मैं दोनों ही सदैव अपने भक्तों को सुख देने के लिए ही अवतार ग्रहण करते हैं। आप सगुण और निर्गुण प्रकृति हैं। हे गिरिजे! मैं आपके पिता के पास आपका हाथ मांगने के लिए नहीं जा सकता । फिर भी आपकी इच्छा को पूरा करना मेरा कर्तव्य है। अतः आप जैसा कहेंगी मैं अवश्य करूंगा।

महादेव जी के ऐसा कहने पर देवी पार्वती अति हर्ष का अनुभव करने लगीं और शिवजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके बोलीं ;- हे नाथ! आप परमात्मा हैं और मैं प्रकृति हूं। हम दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र एवं सगुण है, फिर भी अपने भक्तों की इच्छा पूरा करना हमारा कर्तव्य है। भगवन्! मेरे पिता हिमालय से मेरा हाथ मांगकर उन्हें दाता होने का सौभाग्य प्रदान करें।

हे प्रभु! आप तो जगत में भक्तवत्सल नाम से विख्यात हैं। मैं भी तो आपकी परम भक्त हूं। क्या मेरी इच्छा को पूरा करना आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं है? नाथ! हम दोनों जन्म-जन्म से एक-दूसरे के ही हैं। हमारा अस्तित्व एक साथ है। तभी तो आपका अर्द्धनारीश्वर रूप सभी मनुष्यों, ऋषि-मुनियों एवं देवताओं द्वारा पूज्य है। मैं आपकी पत्नी हूं। मैं जानती हूं कि आप निर्गुण, निराकार और परमब्रह्म परमेश्वर हैं। आप सदा अपने भक्तों का हित करने वाले हैं। आप अनेकों प्रकार की लीलाएं रचते हैं। भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं। मुझ दीन पर भी अपनी कृपादृष्टि करिए और अनोखी लीला रचकर इस कार्य की सिद्धि कीजिए।

नारद! ऐसा कहकर देवी पार्वती दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर खड़ी हो गईं। अपनी प्राणवल्लभा पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए महादेवजी ने हिमालय से उनका हाथ मांगने हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तत्पश्चात त्रिलोकीनाथ महादेव जी उस स्थान से अंतर्धान होकर अपने निवास कैलाश पर्वत पर चले गए । कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सारा वृत्तांत नंदीश्वर सहित अपने सभी गणों को सुनाया। यह जानकर सभी गण बहुत खुश हुए और नाचने-गाने लगे। उस समय वहां महान उत्सव होने लगा। उस समय सभी खुश थे और आनंद का वातावरण था।

देवी पार्वती की प्रेमपूर्ण प्रार्थना और भगवान शिव का उत्तर

पार्वती का निवेदन
देवी पार्वती ने भगवान शिव से कहा, “हे देवेश्वर! आप सबके स्वामी हैं। आपने पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष के यज्ञ को नष्ट किया था, लेकिन उस समय आपने मेरी प्रियता को भुला दिया था। हमारे साथ तो जन्म-जन्मांतर का संबंध है। प्रभु, मैंने तपस्या की है ताकि आप पुनः मेरे पति बनें। अब आप मेरे पिता हिमालय और माता मैना के पास जाकर उनसे मेरा हाथ मांग लें। वे निश्चित रूप से प्रसन्न होकर मुझे आपके हवाले कर देंगे।”

पार्वती ने यह भी कहा, “जब मैं पूर्व जन्म में सती थी, तब मेरे पिता ने हमारे विवाह में कुछ त्रुटियां की थीं, लेकिन इस बार हम शास्त्रों के अनुसार विवाह करना चाहते हैं। हमें सभी रीति-रिवाजों का पालन करना चाहिए ताकि हमारा विवाह सफल हो सके।”

भगवान शिव का उत्तर
भगवान शिव ने देवी पार्वती की बातों को सुना और हंसी के साथ उत्तर दिया, “हे देवी! यह संसार समस्त वस्तुएं नाशवान हैं। मैं निर्गुण परमात्मा हूं, और मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है। आप प्रकृति और महामाया हैं, और आपने ही मुझे इस माया के बंधनों में बांध रखा है। हम दोनों ही अपने भक्तों की भलाई के लिए अवतार ग्रहण करते हैं।”

शिव जी ने कहा, “मैं आपके पिता हिमालय के पास जाकर आपका हाथ मांगने नहीं जा सकता, लेकिन आपकी इच्छा का सम्मान करते हुए मैं जो कुछ भी कहेंगे, वही करूंगा।”

देवी पार्वती का हर्ष और शिव की स्वीकृति
भगवान शिव के उत्तर से देवी पार्वती अत्यंत प्रसन्न हुईं। उन्होंने भक्तिपूर्वक शिवजी को प्रणाम किया और कहा, “हे प्रभु! आप परमात्मा हैं, और मैं प्रकृति हूं। हम दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है, फिर भी हम दोनों का उद्देश्य केवल अपने भक्तों की भलाई है। आप भक्तवत्सल हैं, क्या मेरी इच्छा पूरी करना आपके लिए कठिन है? हम दोनों जन्म-जन्म से एक-दूसरे के हैं।”

देवी पार्वती ने भगवान शिव से अनुरोध किया, “आप मुझ पर कृपा कर मुझे इस कार्य में सफलता प्रदान करें। मैं जानती हूं कि आप सर्वज्ञ हैं और आप अपनी लीलाओं से सब कुछ साकार करते हैं। कृपया आप अपनी दिव्य कृपा से इस कार्य को सिद्ध करें।”

भगवान शिव की स्वीकृति और आनंद
भगवान शिव ने देवी पार्वती की इच्छा का सम्मान किया और स्वीकृति दी। उन्होंने हिमालय से पार्वती का हाथ मांगने का निर्णय लिया। इसके बाद महादेव जी कैलाश पर्वत लौट गए और वहां नंदीश्वर सहित सभी गणों को यह खुशी की खबर सुनाई। इस समाचार से सभी गण आनंदित हो गए और उत्सव का माहौल बन गया। सभी गण खुशी से नाचने-गाने लगे, और वहां आनंद का वातावरण छा गया।

The post शिव-पार्वती संवाद – अट्ठाईसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
पार्वती जी का क्रोध से ब्राह्मण को फटकारना – सत्ताईसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a7-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%a3-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%ab%e0%a4%9f%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%88%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:14:07 +0000 https://manimahesh.in/?p=1514 पार्वती बोलीं ;- हे ब्राह्मण देवता! मैं तो आपको परमज्ञानी महात्मा समझ रही थी परंतु आपका भेद मेरे सामने पूर्णतः खुल चुका है। आपने शिवजी के विषय में मुझे जो कुछ भी बताया है वह मुझे पहले से ही ज्ञात है पर यह सब बातें सर्वथा झूठ हैं। इनमें सत्य कुछ भी नहीं है। आपने […]

The post पार्वती जी का क्रोध से ब्राह्मण को फटकारना – सत्ताईसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
पार्वती बोलीं ;- हे ब्राह्मण देवता! मैं तो आपको परमज्ञानी महात्मा समझ रही थी परंतु आपका भेद मेरे सामने पूर्णतः खुल चुका है। आपने शिवजी के विषय में मुझे जो कुछ भी बताया है वह मुझे पहले से ही ज्ञात है पर यह सब बातें सर्वथा झूठ हैं। इनमें सत्य कुछ भी नहीं है। आपने तो कहा था कि आप शिवजी को अच्छी प्रकार से जानते हैं। आपकी बातें सुनकर लगता है कि आप झूठ बोल रहे हैं क्योंकि ज्ञानी मनुष्य कभी भी त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के विषय में कोई भी अप्रिय बात नहीं कहते हैं। यह सही है कि लीलावश शिवजी कभी-कभी अद्भुत वेष धारण कर लेते हैं परंतु सच्चाई तो यह है वे साक्षात परम ब्रह्म हैं। वे ही परमात्मा हैं। उन्होंने स्वेच्छा से ऐसा वेष धारण किया है । हे ब्राह्मण! आप कौन हैं? जो ब्राह्मण का रूप धरकर मुझे छलने के लिए यहां आए हैं। आप ऐसी अनुचित व असंगत बातें करके एवं तर्क-वितर्क करके क्या साबित करना चाहते हैं? मैं भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति जानती हूं। वास्तव में शिवजी निर्गुण ब्रह्म हैं। समस्त गुण ही जिनका स्वरूप हों, भला उनकी जाति कैसे हो सकती है? शिवजी तो सभी विद्याओं का आधार हैं। भला, फिर उनको विद्या से क्या काम हो सकता है? पूर्वकाल में भगवान शिव ने ही श्रीहरि विष्णु को संपूर्ण वेद प्रदान किए थे। जो चराचर जगत के पिता हैं, उनके भक्तजन मृत्यु को भी जीत लेते हैं। जिनके द्वारा इस प्रकृति की उत्पत्ति हुई है, जो सभी तत्वों के आरंभ के विषय में जानते हैं, उनकी आयु का माप कैसे किया जा सकता है? भक्तवत्सल शिवजी सदा ही अपने भक्तों के वश में ही रहते हैं। वे अपने भक्तों प्रसन्न होने पर प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति और मंत्रशक्ति नामक अक्षय शक्तियां प्रदान करते हैं। उनके परम चरणों का ध्यान करके ही मृत्यु को जीता जा सकता है। इसलिए शिवजी को ‘मृत्युंजय’ नाम से जाना जाता है।

भगवान शिव की कृपा प्राप्त करके ही विष्णुजी को विष्णुत्व, ब्रह्माजी को ब्रह्मत्व और अन्य देवताओं को देवत्व की प्राप्ति हुई है। भगवान शिव महाप्रभु हैं। ऐसे कल्याणमयी भगवान शिव की आराधना करने से ऐसा कौन-सा मनोरथ है जो सिद्ध नहीं हो सकता? उनकी सेवा न करने से मनुष्य सात जन्मों तक दरिद्र होता है। वहीं दूसरी ओर उनका भक्तिपूर्वक पूजन करने से सदैव के लिए लक्ष्मी प्राप्ति होती है। भगवान शिव के समक्ष आठों सिद्धियां सिर झुकाकर इसलिए नृत्य करती हैं कि भगवान उनसे सदा संतुष्ट रहें। भला ऐसे भगवान शिव के लिए कोई भी वस्तु कैसे दुर्लभ हो सकती है? भगवान शिव का स्मरण करने से ही सबका मंगल होता है। इनकी पूजा के प्रभाव से ही उपासक की सभी कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। ऐसे निर्विकारी भगवान शिव में भला विकार कहां से और कैसे आ सकता है? जिस मनुष्य के मुख में सदैव ‘शिव’ का मंगलकारी नाम रहता है, उसके दर्शन मात्र से ही सब पवित्र हो जाते हैं। आपने कहा था कि वे अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाते हैं। यह पूर्णतया सत्य है, परंतु उनके शरीर पर लगी हुई यह भस्म, जब जमीन पर गिरकर झड़ती है तो क्यों सभी देवता उस भस्म को अपने मस्तक पर लगाकर अपने को धन्य समझते हैं। अर्थात उनके स्पर्श मात्र से ही अपवित्र वस्तु भी पवित्र हो जाती है। भगवान शिव ही इस जगत के पालनकर्ता, सृष्टिकर्ता और संहारक हैं। भला उन्हें कैसे साधारण बुद्धि द्वारा जाना जा सकता है? उनके निर्गुण रूप को आप जैसे लोग कैसे जान सकते हैं? दुराचारी और पापी मनुष्य भगवान शिव के स्वरूप को नहीं समझ सकते। जो मनुष्य अपने अहंकार और अज्ञानता के कारण शिवतत्व की निंदा करते हैं उसके जन्म का सारा पुण्य भस्म हो जाता है। हे ब्राह्मण! आपको ज्ञानी महात्मा जानकर मैंने आपकी पूजा की है परंतु आपने शिवजी की निंदा करके अपने साथ-साथ मुझे भी पाप का भागी बना दिया है। आप घोर शिवद्रोही हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि शिवद्रोही का दर्शन हो जाने पर शुद्धिकरण हेतु स्नान करना चाहिए तथा प्रायश्चित करना चाहिए।

यह कहकर देवी पार्वती का क्रोध और बढ़ गया और वे बोलीं ;- अरे दुष्ट! तुम तो कह रहे थे कि तुम शंकर को जानते हो, परंतु सच तो यह है कि तुम उन सनातन शिवजी को नहीं जानते हो। भगवान शिव परम ज्ञानी, सत्पुरुषों के प्रियतम व सदैव निर्विकार रहने वाले हैं। वे मेरे अभीष्ट देव हैं। ब्रह्मा और विष्णु भी सदा महादेव जी को नमन करते हैं। सारे देवताओं द्वारा शिवजी को आराध्य माना जाता काल भी सदा उनके अधीन रहता है। वे भक्तवत्सल शिवशंकर ही सर्वेश्वर हैं और हम सबके परमेश्वर हैं। वे दीन-दुखियों पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं। उन्हीं महादेव जी को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैं शुद्ध हृदय से इस वन में घोर तपस्या कर रही हूं कि वे मुझे अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ कर मेरे मन की इच्छा पूरी करें ।

ऐसा कहकर देवी पार्वती चुप हो गईं और निर्विकार होकर पुनः शांत मन से शिवजी का ध्यान करने लगीं। उनकी बातों को सुन ब्राह्मण देवता ने जैसे ही कुछ कहना चाहा, पार्वती ने मुंह फेर लिया और अपनी सखी,,

विजया से बोलीं ;- ‘सखी! इस अधम ब्राह्मण को रोको। यह बहुत देर से मेरे आराध्य प्रभु शिव की निंदा कर रहा । अब पुनः उनके ही विषय में कुछ बुरा-भला कहना चाहता है। शिव निंदा करने वाले के साथ-साथ शिव निंदा सुनने वाला भी पाप का भागी बन जाता है। अतः भगवान शिव के उपासकों को शिव निंदा करने वाले का वध कर देना चाहिए। यदि शिव-निंदा करने वाला कोई ब्राह्मण हो तो उसका त्याग कर देना चाहिए तथा उस स्थान से दूर चले जाना चाहिए।

यह दुष्ट ब्राह्मण है, अतः हम इसका वध नहीं कर सकते । इसलिए हमें इसका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। हमें इसका मुंह भी नहीं देखना चाहिए। हम सब आज इसी समय इस स्थान को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर चले जाते हैं, ताकि इस अज्ञानी ब्राह्मण से पुनः हमारी भेंट न हो।

इस प्रकार कहकर देवी पार्वती ने जैसे ही कहीं और चले जाने के उद्देश्य से अपना पैर आगे बढ़ाया वैसे ही भगवान शिव अपने साक्षात रूप में उनके सामने प्रकट हो गए। देवी पार्वती ने अपने ध्यान के दौरान शिव के जिस स्वरूप का स्मरण किया था। शिवजी ने उन्हें उसी रूप के साक्षात दर्शन करा दिए। साक्षात भगवान शिव शंकर को इस तरह अनायास ही अपने सामने पाकर गिरिजानंदिनी पार्वती का सिर शर्म से झुक गया।

तब भगवान शिव देवी पार्वती से बोले ;- हे प्रिये! आप मुझे यहां अकेला छोड़कर कहां जा रही हैं? देवी! मैं आपकी इस कठोर तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं। मैंने सभी देवताओं एवं ऋषि-मुनियों से आपकी तपस्या और दृढ़ निश्चय की प्रशंसा सुनी है। इसलिए आपकी परीक्षा लेने की ठानकर मैं आपके सामने चला आया हूं। अब आप मुझसे कुछ भी मांग सकती हैं क्योंकि मैं जान चुका हूं आप अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमा होने के साथ-साथ ज्ञान, बुद्धि और विवेक का अनूठा संगम हैं। आज आपने अपने उत्तम भक्ति भाव से मुझे अपना खरीदा हुआ दास बना दिया है। सुस्थिर चित्त वाली देवी गिरिजा मैं जान गया हूं कि आप ही मेरी सनातन पत्नी हैं। मैंने अनेकों प्रकार से बार-बार आपकी परीक्षा ली है। हे देवी! मेरे इस अपराध को आप क्षमा कर दें। हे शिवे ! इन तीनों लोकों में आपके समान अनुरागिणी कोई न है, न थी और न ही कभी हो सकती है। मैं आपके अधीन हूं। देवी! आपने मुझे पति बनाने का उद्देश्य मन में लेकर ही यह कठिन तपस्या की है। अतः आपकी इस इच्छा को पूरा करना मेरा धर्म है। देवी मैं शीघ्र ही आपका पाणिग्रहण कर आपको अपने साथ कैलाश पर्वत पर ले जाऊंगा।

देवाधिदेव महादेव जी के इन वचनों को सुनकर गिरिजानंदिनी पार्वती के आनंद की कोई सीमा नहीं रही। वे अत्यंत प्रसन्न हुईं। हर्षातिरेक से उनका तपस्या करते हुए सारा कष्ट पल में ही दूर हो गया। उनकी सारी थकावट तुरंत ही दूर हो गई। पार्वती अपनी तपस्या की सफलता और त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल महादेव जी के साक्षात दर्शन पाकर कृतार्थ हो गईं और उनके सभी दुख क्लेश पल भर में ही दूर हो गए।

देवी पार्वती का संवाद और भगवान शिव का साक्षात्कार

पार्वती का विरोध और तर्क
देवी पार्वती ने ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण देवता! मैं तो आपको परमज्ञानी महात्मा समझ रही थी, परंतु आपका भेद अब मेरे सामने खुल चुका है। आपने जो कुछ भी भगवान शिव के बारे में कहा है, वह मुझे पहले से ही ज्ञात था, लेकिन यह सब बातें पूरी तरह से झूठ हैं। आप कह रहे थे कि आप शिवजी को अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन आपकी बातें सुनकर लगता है कि आप झूठ बोल रहे हैं। कोई ज्ञानी व्यक्ति कभी भी भगवान शिव के बारे में अप्रिय बातें नहीं कहता।”

उन्होंने आगे कहा, “यह सत्य है कि भगवान शिव कभी-कभी अद्भुत वेष धारण करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि वे स्वयं परम ब्रह्म हैं। वे ही परमात्मा हैं और उनका यह रूप स्वयं उनकी इच्छा से है। ब्राह्मण! आप कौन हैं जो भगवान शिव के बारे में ऐसे झूठे आरोप लगा रहे हैं?”

भगवान शिव के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन
पार्वती ने भगवान शिव के महान स्वरूप को स्पष्ट किया: “शिवजी निर्गुण ब्रह्म हैं। वे सभी विद्याओं का आधार हैं, और उन्होंने ही भगवान विष्णु और ब्रह्मा को भी अपने आशीर्वाद से महिमा दी है। शिवजी के प्रति भक्ति से ही मृत्यु भी पराजित हो जाती है। भगवान शिव के चरणों का ध्यान करके ही मनुष्य जीवन के सबसे कठिन संकटों से उबर सकता है।”

पार्वती ने यह भी कहा कि भगवान शिव के शरीर पर जो भस्म लगी होती है, वह पवित्रता का प्रतीक है, क्योंकि उस भस्म के स्पर्श से ही अपवित्र वस्तु भी पवित्र हो जाती है। भगवान शिव सभी देवताओं के आराध्य हैं और उनकी पूजा से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। भगवान शिव का नाम लेने से ही सबका मंगल होता है। वे न केवल सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारक हैं, बल्कि वे भक्तों के लिए हमेशा कृपाशील रहते हैं।

पार्वती का संकल्प
पार्वती ने कहा, “आपने जो कहा कि शिवजी के शरीर पर चिता की भस्म होती है, तो यह सत्य है, लेकिन यह भस्म पवित्रता का प्रतीक है। भगवान शिव अपने भक्तों के लिए सदा कृपाशील रहते हैं। उन्होंने ही ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवताओं को उनकी शक्तियां दी हैं। शिवजी की पूजा से मनुष्य सभी दोषों से मुक्त हो जाता है।”

पार्वती ने जोर दिया कि शिवजी की निंदा करने वाला कोई भी व्यक्ति पाप का भागी बन जाता है, और ऐसे व्यक्ति को त्यागना चाहिए। उन्होंने ब्राह्मण से कहा कि वह अब उनकी निंदा न करे, अन्यथा वह पाप के भागी बन जाएंगे। वे यह भी कहती हैं कि यदि शिवजी की निंदा करने वाला कोई ब्राह्मण हो, तो उसका त्याग करना चाहिए और उसे अपने समाज से दूर कर देना चाहिए।

भगवान शिव का दर्शन
पार्वती की बातें सुनकर भगवान शिव उनके सामने प्रकट हुए। भगवान शिव ने पार्वती से कहा, “हे देवी! आपने जो कठोर तपस्या की है, मैं उससे अत्यंत प्रसन्न हूं। मैं जान चुका हूं कि आप ही मेरी सनातन पत्नी हैं। आपके इस तप के कारण ही मुझे आना पड़ा और मैं आपके सामने खड़ा हूं। अब आप मुझसे कुछ भी मांग सकती हैं।”

भगवान शिव का प्रस्ताव
भगवान शिव ने पार्वती से कहा, “आपने जो तपस्या की है, वह वास्तव में अद्वितीय है। आपने मुझे अपना दास बना लिया है। अब मैं आपको अपना जीवनसाथी बनाने के लिए तैयार हूं। मैं शीघ्र ही आपको कैलाश पर्वत पर ले जाकर आपका पाणिग्रहण करूंगा।”

पार्वती की प्रसन्नता
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर देवी पार्वती अत्यंत प्रसन्न हुईं। उनकी तपस्या का फल उन्हें मिल गया और उनका समस्त कष्ट समाप्त हो गया। भगवान शिव के साक्षात दर्शन से उनका जीवन धन्य हो गया और उनके सभी दुख समाप्त हो गए।

The post पार्वती जी का क्रोध से ब्राह्मण को फटकारना – सत्ताईसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
पार्वती को शिवजी से दूर रहने का आदेश – छब्बीसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%a6%e0%a5%82%e0%a4%b0-%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%86%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6-%e0%a4%9b%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:09:56 +0000 https://manimahesh.in/?p=1513 पार्वती बोलीं ;- हे जटाधारी मुनि! मेरी सखी ने जो कुछ भी आपको बताया है, वह बिलकुल सत्य है। मैंने मन, वाणी और क्रिया से भगवान शिव को ही पति रूप में वरण किया है। मैं जानती हूं कि महादेव जी को पति रूप प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ कार्य है। फिर भी मेरे हृदय […]

The post पार्वती को शिवजी से दूर रहने का आदेश – छब्बीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
पार्वती बोलीं ;- हे जटाधारी मुनि! मेरी सखी ने जो कुछ भी आपको बताया है, वह बिलकुल सत्य है। मैंने मन, वाणी और क्रिया से भगवान शिव को ही पति रूप में वरण किया है। मैं जानती हूं कि महादेव जी को पति रूप प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ कार्य है। फिर भी मेरे हृदय में और मेरे ध्यान में सदैव वे ही निवास करते हैं। अतः उन्हीं की प्राप्ति के लिए ही मैंने इस तपस्या के कठिन मार्ग को चुना है। यह सब ब्राह्मण को बताकर देवी पार्वती चुप हो गईं।

उनकी बातों को सुनकर ब्राह्मण देवता बोले ;- हे देवी! अभी कुछ समय पूर्व तक मेरे मन में यह जानने की प्रबल इच्छा थी कि क्यों आप कठोर तपस्या कर रही हैं परंतु देवी आपके मुख से यह सब सुनकर मेरी जिज्ञासा पूरी तरह शांत हो गई है। देवी आपके किए गए कार्य के अनुरूप ही इसका परिणाम होगा परंतु यदि यह तुम्हें सुख देता है तो यही करो। यह कहकर ब्राह्मण जैसे ही जाने के लिए उठे वैसे ही देवी पार्वती उन्हें प्रणाम करके बोली- हे विप्रवर! आप कहां जा रहे हैं? कृपया यहां कुछ देर और ठहरिए और मेरे हित की बात कहिए।

देवी पार्वती के ये वचन सुनकर साधु का वेश धारण किए हुए भगवान शिव वहीं ठहर गए और बोले ;– हे देवी! यदि आप वाकई मुझे यहां रोककर मुझसे अपने हित की बात सुनना चाहती हैं तो मैं आपको अवश्य ही समझाऊंगा, जिससे आपको अपने हित का स्वयं ज्ञान हो जाएगा। देवी! मैं स्वयं भी महादेव जी का भक्त हूं। इसलिए उन्हें अच्छी प्रकार से जानता हूं । जिन भगवान शिव को आप अपना पति बनाना चाहती हैं वे प्रभु शिव शंकर सदैव अपने शरीर पर भस्म धारण किए रहते हैं। उनके सिर पर जटाएं हैं। शरीर पर वस्त्रों के स्थान पर वे बाघ की खाल पहनते हैं और चादर के स्थान पर वे हाथी की खाल ओढ़ते हैं। हाथ में भीख मांगने के लिए कटोरे के स्थान पर खोपड़ी का प्रयोग करते हैं। सांपों के अनेक झुंड उनके शरीर पर सदा लिपटे रहते हैं। जहर को वे पानी की भांति पीते हैं। उनके नेत्र लाल रंग के और अत्यंत डरावने लगते हैं। उनका जन्म कब, कहां और किससे हुआ, यह आज तक भी कोई नहीं जानता। वे घर-गृहस्थी के बंधनों से सदा ही दूर रहते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं। देवी! मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि शिवजी को अपना पति क्यों बनाना चाहती हो। आपका विवेक कहां चला गया है? प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती को सिर्फ इसीलिए ही अपने यज्ञ में नहीं बुलाया, क्योंकि वे कपालधारी भिक्षुक की भार्या हैं। उन्होंने अपने यज्ञ में शिव के अतिरिक्त सभी देवताओं को भाग दिया। इसी अपमान से क्रोधित होकर सती ने अपने प्राणों को त्याग दिया था।

देवी आप अत्यंत सुंदर एवं स्त्रियों में रत्न स्वरूप हैं। आपके पिता गिरिराज हिमालय समस्त पर्वतों के राजा हैं। फिर क्यों आप इस उग्र तपस्या द्वारा भगवान शिव को पति रूप में पाने का प्रयास कर रही हैं। क्यों आप सोने की मुद्रा के बदले कांच को खरीदना चाहती हैं? सुगंधित चंदन को छोड़कर अपने शरीर पर कीचड़ क्यों मलना चाहती हैं? सूर्य के तेज को छोड़कर क्यों जुगनू की चमक पाना चाहती हैं? सुंदर, मुलायम वस्त्रों को त्यागकर क्यों चमड़े से अपने शरीर को ढंकना चाहती हैं? क्यों राजमहल को छोड़कर वनों और जंगलों में भटकना चाहती हैं? आपकी बुद्धि को क्या हो गया है जो आप देवराज इंद्र एवं अन्य देवताओं को, जो कि रत्नों के भंडार के समान हैं, छोड़कर लोहे को अर्थात शिवजी को पाने की इच्छा करती हैं। सच तो यह है कि इस समय मुझे आपके साथ शिवजी का संबंध परस्पर विरुद्ध दिखाई दे रहा है। कहां आप और कहां महादेव जी? आप चंद्रमुखी हैं तो शिवजी पंचमुखी, आपके नेत्र कमलदल के समान हैं तो शिवजी के तीन नेत्र सदैव क्रोधित दृष्टि ही डालते हैं। आपके केश अत्यंत सुंदर हैं, जो कि काली घटाओं के समान प्रतीत होते हैं वहीं भगवान शिव के सिर के जटाजूट के विषय में सभी जानते हैं। आप सुंदर कोमल साड़ी धारण करती हैं तो शिवजी कठोर हाथी की खाल का उपयोग करते हैं। आप अपने शरीर पर चंदन का लेप करती हैं तो वे हमेशा अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाए रखते हैं। आप अपनी शोभा बढ़ाने हेतु दिव्य आभूषण धारण करती हैं, तो शिवजी के शरीर पर सदैव सर्प लिपटे रहते हैं। कहां मृदंग की मधुर ध्वनि, कहां डमरू की डमडम ? देवी पार्वती! महादेव जी सदा भूतों की दी हुई बलि को स्वीकार करते हैं। उनका यह रूप इस योग्य नहीं है कि उन्हें अपना सर्वांग सौंपा जा सके। देवी! आप परम सुंदरी हैं। आपका यह अद्भुत और उत्तम रूप शिवजी के योग्य नहीं हैं। आप ही सोचें– यदि उनके पास धन होता तो क्या वे इस तरह नंगे रहते? सवारी के नाम पर उनके पास एक पुराना बैल है। कन्या के लिए योग्य वर ढूंढ़ते समय वर की जिन-जिन विशेषताओं और गुणों को देखा-परखा जाता है, शिवजी में वह कोई भी गुण मौजूद नहीं है। और तो और आपके प्रिय कामदेव जी को भी उन्होंने अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया था। साथ ही उस समय आपको छोड़कर चले जाना आपका अनादर करना ही था। हे देवी! उनकी जात-पात, ज्ञान और विद्या के बारे में सभी अनजान हैं । पिशाच ही उनके सहायक हैं। उनके गले में विष दिखाई देता है। वे सदैव सबसे अलग-थलग रहते हैं।

इसलिए आपको भगवान शिव के साथ अपने मन को कदापि नहीं जोड़ना चाहिए । आपके और उनके रूप और सभी गुण अलग-अलग हैं, जो कि परस्पर एक-दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं। इसी कारण मुझे आपका और महादेव जी का संबंध रुचिकर नहीं लगता है। फिर भी जो आपकी इच्छा हो, वैसा ही करो। वैसे मैं तो यह चाहता हूं कि आप असत की ओर से अपना मन हटा लें। यदि यह सब नहीं करना चाहती हैं तो आपकी इच्छा। जो चाहो करो। अब मुझे और कुछ नहीं कहना है ।

उन ब्राह्मण मुनि की बातों को सुनकर देवी पार्वती बहुत दुखी हुईं। अपने प्राणप्रिय त्रिलोकीनाथ शिव के विषय में कठोर शब्दों को सुनकर उन्हें बहुत बुरा लगा। वे मन ही मन क्रोधित हो गईं। लेकिन मन ही मन यह भी सोच रही थीं कि शिव के सौंदर्य को स्थूलदृष्टि से देखने-परखने का प्रयास करने वाले कैसे जान सकते हैं। संसारी व्यक्ति मंगल-अमंगल को अपने सुख के साथ जोड़कर देखता है, वह सत्य को कहां देख पाता है। इस तरह विवेक द्वारा अपने मन को समझा-बुझाकर अपने को संयत करते हुए देवी पार्वती कहने लगीं।

भगवान शिव के रूप और देवी पार्वती का संकल्प

देवी पार्वती ने भगवान शिव के रूप में जो भिन्नताएं बताई थीं, उन्हें सुनकर देवी पार्वती को गहरी पीड़ा हुई। उन्होंने सोचा कि साधारण दृष्टिकोण से शिव के रूप और गुणों का मूल्यांकन करना गलत है। उनका दृढ़ विश्वास था कि भगवान शिव की वास्तविकता को केवल एक विशेष दृष्टिकोण से ही समझा जा सकता है, जिसे केवल एक भक्त ही सही से देख सकता है।

भगवान शिव के रूप का विवरण

ब्राह्मण रूप में भगवान शिव ने पार्वती से कहा कि भगवान शिव का रूप कितना अजीब और विरोधाभासी है। वे भस्म पहनते हैं, उनके शरीर पर सांप लिपटे होते हैं, और उनका रूप भयावह और डरावना होता है। उनका जन्म, उनका स्वरूप, और उनका जीवन इतना विचित्र है कि कोई भी सामान्य व्यक्ति उन्हें समझ नहीं सकता। भगवान शिव के पास न धन है, न ऐश्वर्य, न कोई भव्य सवारी। उनके पास एक पुराना बैल है और वे भूत-प्रेतों के साथ रहते हैं। उनका रूप और उनका जीवन अन्य देवताओं और प्रजापति दक्ष के दृष्टिकोण से पूरी तरह से विपरीत है।

देवी पार्वती का मंथन

दूसरी ओर, देवी पार्वती ने इन कठोर शब्दों को सुनकर मन में यह सोचा कि जो लोग भगवान शिव के रूप और जीवन को सतही रूप से देखते हैं, वे उनकी वास्तविकता को नहीं समझ सकते। पार्वती का दृढ़ विश्वास था कि शिव के रूप में छिपे वे दिव्य गुण हैं, जो अन्यथा नहीं देखे जा सकते। वे समझ चुकी थीं कि शिव का वास्तविक रूप आत्मा की गहराई में ही पहचाना जा सकता है, और बाहरी रूप से देखे जाने वाले भिन्नताएं केवल भ्रामक हो सकती हैं।

उनकी आस्था और समर्पण ने उन्हें यह समझाया कि भगवान शिव के साथ उनका संबंध किसी भौतिक या बाहरी गुण से नहीं, बल्कि एक गहरी आत्मीयता और भक्ति से जुड़ा हुआ है। वे जानती थीं कि जो लोग केवल बाहरी रूप को देखते हैं, वे शिव के वास्तविक रूप को कभी नहीं पहचान सकते।

देवी पार्वती का संकल्प

इस प्रकार देवी पार्वती ने अपने मन को शांत किया और अपने तपस्या के उद्देश्य को फिर से दृढ़ किया। वे जानती थीं कि भगवान शिव ही उनके जीवन का सर्वोत्तम साथी हैं, और उनकी भक्ति व तपस्या का मार्ग कठिन जरूर है, परंतु वह इसे पूरी तरह से निभाने के लिए तैयार थीं। उनके मन में यह स्पष्ट था कि उन्होंने जो मार्ग चुना है, वह सत्य और प्रेम का मार्ग है, और यही मार्ग उन्हें भगवान शिव के पास ले जाएगा।

वह अपने मन को समझा-बुझाकर शांत हो गईं और भगवान शिव के प्रति अपनी निष्ठा और प्रेम में और भी दृढ़ हो गईं।

The post पार्वती को शिवजी से दूर रहने का आदेश – छब्बीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
शिवजी द्वारा पार्वती जी की तपस्या की परीक्षा करना – पच्चीसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a4%e0%a4%aa%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a5%80%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:05:04 +0000 https://manimahesh.in/?p=1508 ्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! सप्तऋषियों ने पार्वती जी के आश्रम से आकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को वहां का सारा वृत्तांत सुनाया। सप्तऋषियों के अपने लोक चले जाने के पश्चात शिवजी ने देवी पार्वती की तपस्या की स्वयं परीक्षा लेने के बारे में सोचा। परीक्षा लेने के लिए महादेव जी ने एक तपस्वी का […]

The post शिवजी द्वारा पार्वती जी की तपस्या की परीक्षा करना – पच्चीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! सप्तऋषियों ने पार्वती जी के आश्रम से आकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को वहां का सारा वृत्तांत सुनाया। सप्तऋषियों के अपने लोक चले जाने के पश्चात शिवजी ने देवी पार्वती की तपस्या की स्वयं परीक्षा लेने के बारे में सोचा। परीक्षा लेने के लिए महादेव जी ने एक तपस्वी का रूप धारण किया और उस स्थान की ओर चल दिए जहां पार्वती तपस्यारत थीं। आश्रम में पहुंचकर उन्होंने देखा देवी पार्वती वेदी पर बैठी हुई थीं और उनका मुखमंडल चंद्रमा की कला के समान तेजोद्दीप्त था। भगवान शिव ब्राह्मण देवता का रूप धारण करके उनके सम्मुख पहुंचे। ब्राह्मण देवता को आया देखकर पार्वती ने भक्तिपूर्वक उनका फल-फूलों से पूजन सत्कार किया। पूजन के बाद देवी पार्वती ने ब्राह्मण देवता से पूछा – हे ब्राह्मणदेव! आप कौन हैं और कहां से पधारे हैं? मुनिश्वर! आपके परम तेज से यह पूरा वन प्रकाशित हो रहा है। कृपा कर मुझे अपने यहां आने का कारण बताइए।

तब ब्राह्मण रूप धारण किए हुए महादेव जी बोले ;- मैं इच्छानुसार विचरने वाला ब्राह्मण हु । मेरा मन प्रभु के चरणों का ही ध्यान करता है। मेरी बुद्धि सदैव उन्हीं का स्मरण करती है। में दूसरो को सुखी करके खुश होता हूँ। देवी में एक तपस्वी हुं पर आप कोन है ? आप किसकी पुत्री हैं? और इस समय इस निर्जन वन में क्या कर रही हैं? हे देवी! आप इस दुर्लभ और कठिन तपस्या से किसे प्रसन्न करना चाहती हैं? तपस्या या तो ऋषि-मुनि करते हैं या फिर भगवान के चरणों में ध्यान लगाना वृद्धों का काम है। भला इस तरुणावस्था में आप क्यों घर के ऐशो आराम को त्यागकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई तपस्विनी का जीवन जी रही हैं? आप किस तपस्वी की धर्मपत्नी हैं और पति के समान तप कर रही हैं? हे देवी! अपने बारे में मुझे जानकारी दीजिए कि आपका क्या नाम है? और आपके पिता का क्या नाम है ? किस प्रकार आप तप के प्रति आसक्त हो गईं? क्या आप वेदमाता गायत्री हैं? लक्ष्मी हैं अथवा सरस्वती हैं?

देवी पार्वती बोलीं ;- हे मुनिश्रेष्ठ! न तो मैं वेदमाता गायत्री हूं, न लक्ष्मी और न ही सरस्वती हूं। मैं गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हूं। पूर्व जन्म में मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी परंतु मेरे पिता दक्ष द्वारा मेरे पति भगवान शिव का अपमान देखकर मैंने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दिया था। इस जन्म में भी प्रभु शिवशंकर की सेवा करने का मुझे अवसर मिला था। मैं नियमपूर्वक उनकी सेवा में व्यस्त थी परंतु दुर्भाग्य से कामदेव के चलाए गए बाण के फलस्वरूप शिवजी को क्रोध आ गया और उन्होंने कामदेव को अपने क्रोध की अग्नि से भस्म कर दिया और वहां से उठकर चले गए। उनके इस प्रकार चले जाने से मैं पीड़ित होकर उनकी प्राप्ति का प्रयत्न करने हेतु तपस्या करने गंगा के तट पर चली आई हूं। यहां मैं बहुत लंबे समय से कठोर तपस्या कर रही हूं ताकि मैं शिवजी को पुनः पति रूप में प्राप्त कर सकूं परंतु मैं ऐसा करने में सफल नहीं हो सकी हूं। मैं अभी अग्नि में प्रवेश करने ही वाली थी कि आपको आया देखकर ठहर गई। अब आप जाइए, मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी क्योंकि भगवान शिव ने मुझे स्वीकार नहीं किया है।

ऐसा कहकर देवी पार्वती उन ब्राह्मण देवता के सामने ही अग्नि में समा गई। ब्राह्मण देव ने उन्हें ऐसा करने से बहुत रोका परंतु देवी पार्वती ने उनकी एक भी बात नहीं सुनी और अग्नि में प्रवेश कर लिया परंतु देवी पार्वती की तपस्या के प्रभाव के फलस्वरूप वह धधकती हुई। अग्नि एकदम ठंडी हो गई। सहसा पार्वती आकाश में ऊपर की ओर उठने लगीं। तब ब्राह्मण रूप धारण किए हुए भगवान शिव हंसते हुए बोले-हे देवी! तुम्हारे शरीर पर अग्नि का कोई प्रभाव न पड़ना तुम्हारी तपस्या की सफलता का ही सूचक है। परंतु तुम्हारी मनोवांछित इच्छा का पूरा न होना तुम्हारी असफलता को दर्शाता है। अतः देवी तुम मुझ ब्राह्मण से अपनी तपस्या के मनोरथ को बताओ।

शिवजी के इस प्रकार पूछने पर उत्तम व्रत का पालन करने वाली देवी पार्वती ने अपनी सखी को उत्तर देने के लिए कहा।

उनकी सखी बोली ;- हे साधु महाराज! मेरी सखी गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हैं। पार्वती का अभी तक विवाह नहीं हुआ है। ये भगवान शिव को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसी के लिए वे तीन हजार वर्षों से कठोर तपस्या कर रही हैं। मेरी सखी पार्वती ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इंद्र को छोड़कर पिनाकपाणि भगवान शंकर को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए ये मुनि नारद की आज्ञानुसार कठोर तपस्या कर रही हैं।

देवी पार्वती की सखी की बातें सुनकर जटाधारी तपस्वी का वेष धारण किए हुए भगवान शिव हंसते हुए बोले- देवी! आपकी सखी ने जो कुछ मुझे बताया है, मुझे परिहास जैसा लगता है। यदि फिर भी यही सत्य है तो पार्वती आप स्वयं इस बात को स्वीकार करें और मुझसे इस बात को कहें।

भगवान शिव का पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेना

भगवान ब्रह्मा ने नारदजी से कहा कि सप्तऋषियों के जाने के बाद, भगवान शिव ने देवी पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने एक तपस्वी का रूप धारण किया और पार्वती के तपस्थल की ओर चल पड़े।

ब्राह्मण रूप में भगवान शिव का आगमन

भगवान शिव, ब्राह्मण देवता का रूप धारण करके पार्वती के आश्रम पहुंचे। पार्वती ने उनका स्वागत किया और उनसे पूछा कि वे कौन हैं और यहाँ क्यों आए हैं। भगवान शिव ने पार्वती से सवाल किया कि वह इस कठिन तपस्या क्यों कर रही हैं, जबकि वह युवा अवस्था में हैं। उन्होंने पार्वती से यह भी पूछा कि वह किस देवता को प्रसन्न करना चाहती हैं और किस उद्देश्य से इतनी कठिन तपस्या कर रही हैं।

देवी पार्वती का परिचय और तपस्या का उद्देश्य

देवी पार्वती ने उत्तर दिया कि वह गिरिराज हिमालय की पुत्री हैं और पहले जन्म में प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थीं। भगवान शिव के अपमान के कारण सती ने योगाग्नि में आत्मदाह किया था। इस जन्म में भी उन्होंने भगवान शिव की सेवा करने का संकल्प लिया था। अब वह भगवान शिव को अपने पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या कर रही थीं।

पार्वती का अग्नि में प्रवेश

देवी पार्वती ने कहा कि यदि भगवान शिव उन्हें नहीं स्वीकारते हैं, तो वह अग्नि में प्रवेश करने के लिए तैयार हैं। उन्होंने यह भी बताया कि वह तीन हजार वर्षों से कठोर तपस्या कर रही हैं। देवी पार्वती के तपस्या के प्रभाव से अग्नि ठंडी हो गई और वह आकाश की ओर उन्नत हो गईं। भगवान शिव, ब्राह्मण रूप में, इस दृश्य को देखकर हंसते हुए बोले कि यह तपस्या की सफलता का संकेत है, लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि उनका मनोवांछित फल न मिलना, एक असफलता का संकेत है।

पार्वती की सखी का उत्तर

भगवान शिव ने पार्वती से पूछा कि वह अपनी तपस्या के उद्देश्य को स्पष्ट करें। तब पार्वती की सखी ने उत्तर दिया कि पार्वती भगवान शिव को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं और इसके लिए वह तीन हजार वर्षों से तपस्या कर रही हैं। सखी ने यह भी बताया कि पार्वती मुनि नारद के उपदेशानुसार तपस्या कर रही हैं।

भगवान शिव का परिहास

भगवान शिव ने पार्वती की सखी की बातों को परिहास जैसा बताया और पार्वती से कहा कि अगर यह सत्य है, तो वह स्वयं स्वीकार करें और अपनी इच्छा व्यक्त करें।

निष्कर्ष

यह संवाद देवी पार्वती की अडिग भक्ति और तपस्या को प्रकट करता है। भगवान शिव की परीक्षा पार्वती के दृढ़ निश्चय और प्रेम को परखने के लिए थी, और इसने यह सिद्ध कर दिया कि उनकी भक्ति सच्ची और अडिग थी।

The post शिवजी द्वारा पार्वती जी की तपस्या की परीक्षा करना – पच्चीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा – चौबीसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%b8%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%8b%e0%a4%b7%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%be-%e0%a4%9a%e0%a5%8c%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:03:35 +0000 https://manimahesh.in/?p=1509 ब्रह्माजी कहते हैं ;— देवताओं के अपने-अपने निवास पर लौट जाने के उपरांत भगवान शिव पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने के विषय में सोचने लगे। वे अपने परात्पर, माया रहित स्वरूप का चिंतन करने लगे। वैसे तो वे सर्वेश्वर और सर्वज्ञ हैं। वे ही सब के रचनाकार और परमेश्वर हैं। उस समय देवी पार्वती […]

The post सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा – चौबीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
ब्रह्माजी कहते हैं ;— देवताओं के अपने-अपने निवास पर लौट जाने के उपरांत भगवान शिव पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने के विषय में सोचने लगे। वे अपने परात्पर, माया रहित स्वरूप का चिंतन करने लगे। वैसे तो वे सर्वेश्वर और सर्वज्ञ हैं। वे ही सब के रचनाकार और परमेश्वर हैं।

उस समय देवी पार्वती बहुत कठोर तप कर रही थीं। उस तपस्या को देखकर स्वयं भगवान शिव भी आश्चर्यचकित हो गए। उनकी अटूट भक्ति ने शिवजी को विचलित कर दिया। तब भगवान शिव ने सप्तऋषियों का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही सातों ऋषि वहां आ गए। वे अत्यंत प्रसन्न थे और अपने सौभाग्य की सराहना कर रहे थे। उन्हें देखकर शिवजी हंसते हुए बोले- आप सभी परम हितकारी व सभी वस्तुओं का ज्ञान रखने वाले हैं। गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती इस समय सुस्थिर होकर शुद्ध हृदय से गौरी शिखर पर्वत पर घोर तपस्या कर रही हैं। उनकी इस तपस्या का एकमात्र उद्देश्य मुझे पति रूप में प्राप्त करना है। उन्होंने अपनी सभी कामनाओं को त्याग दिया है। मुनिवरों, आप सब मेरी इच्छा से देवी पार्वती के पास जाएं और उनकी दृढ़ता की परीक्षा लें।

भगवान शिव की आज्ञा पाकर सातों ऋषि देवी पार्वती के तपस्या वाले स्थान पर चले गए। वहां देवी पार्वती तपस्या में लीन थीं। उनका मुख तपपुंज से प्रकाशित था। उन उत्तम व्रतधारी सप्तऋषियों ने हाथ जोड़कर मन ही मन देवी पार्वती को प्रणाम किया।

तत्पश्चात ऋषि बोले ;– हे देवी! गिरिराज नंदिनी! हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि आप किसलिए यह तपस्या कर रही हैं? आप इस तप के द्वारा किस देवता को प्रसन्न करना चाहती हैं? और आपको किस फल की इच्छा है?

उन सप्तऋषियों के इस प्रकार पूछने पर गिरिराजकुमारी देवी पार्वती बोलीं – मुनीश्वरो! आप लोगों को मेरी बातें अवश्य ही असंभव लगेंगी। साथ ही मुझे इस बात की भी आशंका है कि आप लोग मेरा परिहास उड़ाएंगे परंतु फिर भी जब आपने मुझसे कुछ पूछा है तो मैं आपको इसका उत्तर अवश्य दूंगी। मेरा मन एक बहुत उत्तम कार्य के लिए तपस्या कर रहा है। वैसे तो यह कार्य होना बहुत मुश्किल है, तथापि मैं इसकी सिद्धि हेतु पूरे मनोयोग से कार्य कर रही हूं। देवर्षि नारद द्वारा दिए गए उपदेश के अनुसार मैं भगवान शिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए उनकी तपस्या कर रही हूं। मेरा मन सर्वथा उन्हीं के ध्यान में मग्न रहता है तथा मैं उन्हीं के चरणारविंदों का चिंतन करती रहती हूं।

देवी पार्वती का यह वचन सुनकर सप्तर्षि हंसने लगे और पार्वती को तपस्या मार्ग से निवृत्त करने के उद्देश्य से मिथ्या वचन बोलने लगे। उन्होंने कहा- ‘हे हिमालय पुत्री पार्वती! देवर्षि नारद तो व्यर्थ ही अपने को महान पंडित मानते हैं। उनके मन में क्रूरता भरी रहती है ।

आप तो बहुत समझदार दिखाई देती हैं। क्या आप उनको समझ नहीं पाईं ? नारद सदैव छल-कपट की बातें करते हैं। वे दूसरों को मोह-माया में डालते रहते हैं। उनकी बातें मानने से सिर्फ हानि ही होती है। प्रजापति दक्ष के पुत्रों को उन्होंने ऐसा उपदेश दिया कि वे हमेशा के लिए अपना घर छोड़कर चले गए। दक्ष के ही अन्य पुत्रों को भी उन्होंने बेघर कर दिया और वे भिखारी बन गए। विद्याधर चित्रकेतु का नारद ने घर उजाड़ दिया। प्रह्लाद को भक्ति मार्ग पर चलवाकर और उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्होंने हिरण्यकशिपु से प्रह्लाद पर बहुत से अत्याचार करवाए। मुनि नारद सदैव लोगों को अपनी मीठी-मीठी वाणी द्वारा मोहित करते हैं। फिर अपनी इच्छानुसार सबसे कार्य करवाते हैं। वे केवल शरीर से ही शुद्ध दिखाई देते हैं जबकि उनका मन मलिन और क्लेशयुक्त रहता है। वे सदैव हमारे साथ रहते हैं। इसलिए हम उन्हें भली-भांति जानते और पहचानते हैं। हे देवी! आप तो अत्यंत विद्वान और परम ज्ञानी जान पड़ती हैं। भला आप कैसे नारद के द्वारा मूर्ख बन गईं?

देवी! आप जिनके लिए इतनी कठोर तपस्या कर रही हैं, वे भगवान शिव तो बहुत उदासीन और निर्विकार हैं। वे सदैव काम के शत्रु हैं। हे पार्वती! आप थोड़ा विचार करके देखो कि आप किस प्रकार का पति चाहती हैं? आप मुनि नारद के बहकावे में न आएं। भगवान शिव तो महा निर्लज्ज, अमंगल रूप, काम के परम शत्रु, निर्विकारी, उदासीन, कुल से हीन, भूतों व प्रेतों के साथ रहने वाले हैं। भला इस प्रकार का पति पाकर आपको किस प्रकार का सुख मिल सकता है? नारद मुनि ने अपनी माया से तुम्हारे ज्ञान और विवेक को पूर्णतया नष्ट कर दिया है और तुम्हें अपनी छल-कपट-प्रपंच वाली बातों से छला है। देवी ! कृपया आप यह सोचें कि इन्हीं शिव शंकर ने परम गुणवती सुंदर दक्ष पुत्री सती के साथ विवाह किया था। उस बेचारी को भी उनके साथ अत्यंत दुख उठाने पड़े। भगवान शिव सती को त्यागकर पुनः अपने ध्यान में निमग्न हो गए। वे सदा अकेले और शांत रहने वाले हैं। वे किसी स्त्री के साथ निर्वाह नहीं कर सकते। तभी तो देवी सती ने इसी दुख के कारण अपने पिता के घर जाकर अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया था।

हे देवी! इन सब बातों को यदि आप शांत मन से ध्यान लगाकर सोचें तो पूर्णतया सही पाएंगी। इसलिए हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप यह तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न करने का हठ छोड़ दें और वापिस अपने पिता हिमालय के घर चली जाएं। जहां तक आपके विवाह का प्रश्न है हम आपका विवाह योग्य वर से अवश्य करा देंगे। इस समय आपके लिए त्रिलोकी में सबसे योग्य पुरुष बैकुण्ठ के स्वामी, लक्ष्मीपति श्रीहरि विष्णु हैं। वे तुम्हारे अनुरूप ही सुंदर एवं मंगलकारी हैं। उन्हें पति के रूप में प्राप्त करके आप सुखी हो जाएंगी। अतः देवी आप भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के इस हठ को त्याग दें।

सप्तऋषियों की ऐसी बातें सुनकर साक्षात जगदंबा का अवतार देवी पार्वती हंसने लगीं और उन परम ज्ञानी सप्तऋषियों से बोलीं- हे मुनीश्वरो, आप अपनी समझ के अनुसार सही कह रहे हैं परंतु मैं अपने दृढ़ विश्वास को त्याग नहीं सकती। मैं गिरिराज हिमालय की पुत्री हूं। पर्वत पुत्री होने के कारण मैं स्वाभाविक रूप से कठोर हूं। मैं तपस्या से घबरा नहीं सकती। इसलिए हे मुनिगणो, आप मुझे रोकने की चेष्टा न करें। मैं जानती हूं कि देवर्षि नारद ने जो उपदेश मुझे दिया है और शिवजी की प्राप्ति का साधन जो मुझे बताया है, वह असत्य नहीं है। मैं उसका पालन अवश्य करूंगी। यह तो सर्वविदित है कि गुरुजनों का वचन सदैव हित के लिए ही होता है। इसलिए मैं अपने गुरु नारद जी के वचनों का सर्वथा पालन करूंगी। इससे ही मुझे दुखों से छुटकारा मिलेगा और सुख की प्राप्ति होगी। जो गुरु के वचनों को मिथ्या जानकर उन पर नहीं चलते, उन्हें इस लोक और परलोक में दुख ही मिलता है। इसलिए गुरु के वचनों को पत्थर की लकीर मानकर उनका पालन करना चाहिए। अतः मेरा घर बसे या न बसे, मैं तपस्या का यह पथ नहीं छोडूंगी।

हे मुनिश्वरो! आपका कथन भी सही है। भगवान विष्णु सद्गुणों से युक्त हैं तथा नित नई लीलाएं रचते हैं परंतु भगवान शिव साक्षात परब्रह्म हैं। वे परम आनंदमय हैं। माया-मोह में फंसे लोगों को ही प्रपंचों की आवश्यकता होती है। ईश्वर को इन सबकी न तो कोई आवश्यकता होती है और न ही रुचि । भगवान शिव सिर्फ भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। वे धर्म या जाति विशेष पर कृपा नहीं करते। ऋषियो ! यदि भगवान शिव मुझे पत्नी रूप में नहीं स्वीकारेंगे, तो मैं आजीवन कुंवारी ही रहूंगी और किसी अन्य का वरण कदापि नहीं करूंगी। यदि सूर्य पूर्व की जगह पश्चिम से निकलने लगे, पर्वत अपना स्थान छोड़ दें और अग्नि शीतलता अपना ले, चट्टानों पर फूल खिलने लगें, तो भी मैं अपना हठ नहीं छोडूंगी।

ऐसा कहकर देवी पार्वती ने सप्तऋषियों को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा भक्तिभाव से शिव चरणों का स्मरण करते हुए पुनः तपस्या में लीन हो गईं। तब पार्वती के श्रीमुख से उनका दृढ़ निश्चय सुनकर सप्तऋषि बहुत प्रसन्न हुए और उनकी जय-जयकार करने लगे। उन्होंने पार्वती को तपस्या में सफल होकर भगवान शिव से मनोवांछित वरदान प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात देवी पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने गए सप्तर्षि उन्हें प्रणाम करके प्रसन्न मुद्रा में भगवान शिव को वहां हुई सभी बातों का ज्ञान कराने के लिए शीघ्र उनके धाम की ओर चल दिए। तब भगवान शिव शंकर के पास पहुंचकर सप्तऋषियों ने उनके समीप जाकर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। तत्पश्चात सप्तऋषियों ने महादेव जी को सारा वृत्तांत बताया। फिर प्रभु शिव की आज्ञा पाकर सप्तऋषि स्वर्गलोक चले गए।

देवी पार्वती की तपस्या और भगवान शिव की परीक्षा का सारांश

देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या देखकर देवताओं और स्वयं भगवान शिव भी प्रभावित हुए। भगवान शिव ने सप्तऋषियों को उनकी तपस्या की परीक्षा लेने भेजा।

सप्तऋषियों का आगमन और संवाद

सप्तऋषियों ने देवी पार्वती से उनकी तपस्या का कारण पूछा। पार्वती ने उत्तर दिया कि वे भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तप कर रही हैं। सप्तऋषियों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया और कहा कि भगवान शिव निर्लज्ज, निर्विकारी, और ध्यानमग्न रहने वाले हैं। उन्होंने भगवान विष्णु को उपयुक्त पति बताकर तपस्या छोड़ने का आग्रह किया।

देवी पार्वती का दृढ़ निश्चय

पार्वती ने सप्तऋषियों के तर्कों को विनम्रता से ठुकराते हुए कहा कि भगवान शिव ही उनके आराध्य हैं। उन्होंने गुरु नारद के उपदेशों पर विश्वास जताया और कहा कि चाहे संसार की सारी व्यवस्थाएं बदल जाएं, वे अपनी तपस्या नहीं छोड़ेंगी।

सप्तऋषियों की प्रसन्नता और भगवान शिव को सूचना

पार्वती के दृढ़ निश्चय को देखकर सप्तऋषि प्रसन्न हुए और उन्हें तपस्या में सफलता का आशीर्वाद दिया। वे भगवान शिव के पास लौटकर सारी घटना सुनाने के लिए चले गए।

निष्कर्ष

देवी पार्वती की तपस्या उनके दृढ़ निश्चय और भक्ति का प्रतीक है। यह कथा सिखाती है कि सच्चे प्रेम और भक्ति से भगवान को भी प्रसन्न किया जा सकता है।

The post सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा – चौबीसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
शिव से विवाह करने का अनुरोध – तेईसवां अध्याय https://manimahesh.in/%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b9-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%85%e0%a4%a8%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a7-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%88%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%af/ Sat, 11 Jan 2025 17:02:04 +0000 https://manimahesh.in/?p=1507 ब्रह्माजी कहते हैं ;— हे नारद! देवताओं ने वहां पहुंचकर भगवान शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। वहां उपस्थित नंदीश्वर भगवान शिव से बोले ;- प्रभु! देवता और मुनि संकट में पड़कर आपकी शरण में आए हैं। सर्वेश्वर आप उनका उद्धार करें । दयालु नंदी के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव ने धीरे-धीरे […]

The post शिव से विवाह करने का अनुरोध – तेईसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>
ब्रह्माजी कहते हैं ;— हे नारद! देवताओं ने वहां पहुंचकर भगवान शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति की।

वहां उपस्थित नंदीश्वर भगवान शिव से बोले ;- प्रभु! देवता और मुनि संकट में पड़कर आपकी शरण में आए हैं। सर्वेश्वर आप उनका उद्धार करें । दयालु नंदी के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव ने धीरे-धीरे आंखें खोल दीं। समाधि से विरत होकर परमज्ञानी परमात्मा भगवान शंकर देवताओं से बोले – हे ब्रह्माजी! हे श्रीहरि विष्णु ! एवं अन्य देवताओ, आप सब यहां एक साथ क्यों आए हैं? आपके आने का क्या प्रयोजन है? आप सभी को साथ देखकर लगता है कि अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण बात है। अतः आप मुझे उस बात से अवगत कराएं।

भगवान शंकर के ये वचन सुनकर सभी देवताओं का भय पूर्णतः दूर हो गया और वे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु को देखने लगे।

तब श्रीहरि विष्णु सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए भगवान शिव से बोले – भगवान शंकर ! तारकासुर नामक दानव ने हम सभी देवताओं को बहुत दुखी कर रखा है। उसने हमें अपने-अपने स्थानों से भी निकाल दिया है। यही सब बताने के लिए हम सब देवता आपके पास आए हैं। भगवन्! ब्रह्माजी द्वारा प्राप्त वरदान के फलस्वरूप उस तारकासुर की मृत्यु आपके पुत्र के द्वारा निश्चित है। हे स्वामी! आप उस दुष्ट का नाश कर हम सबकी रक्षा करें। हम सबका उद्धार कीजिए । प्रभो! आप हिमालय पुत्री पार्वती का पाणिग्रहण कीजिए। आपका विवाह ही हमारे कष्टों को दूर कर सकता है। आप भक्तवत्सल हैं। अपने भक्तों के दुखों को दूर करने के लिए आप देवी पार्वती से शीघ्र विवाह कर लीजिए ।

विष्णुजी के ये वचन सुनकर भगवान शिव बोले ;- देवताओ! यदि मैं आपके कहे अनु परम सुंदरी देवी पार्वती से विवाह कर लूं तो इस धरती पर सभी मनुष्य देवता और ऋषि-मुनि कामी हो जाएंगे। तब वे परमार्थ पद पर नहीं चल सकेंगे। देवी दुर्गा अपने विवाह से कामदेव को पुनः जीवित कर देंगी। मैंने कामदेव को भस्म करके देवताओं के हित का ही कार्य किया था। सभी देव निष्काम भाव से उत्तम तपस्या कर रहे थे, ताकि विशिष्ट प्रयोजन को पूर्ण कर सकें। कामदेव के न होने से सभी देवता निर्विकार होकर शांत भाव से समाधि में ध्यानमग्न होकर बैठ सकेंगे। काम से क्रोध होता है। क्रोध से मोह हो जाता है और मोह के फलस्वरूप तपस्या नष्ट हो जाती है। इसलिए मैं तो आप सबसे भी यही कहता हूं कि आप भी काम और क्रोध को त्यागकर तपस्या करें ।

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के मुख से इस प्रकार की बातें सुनकर हम सभी हत्प्रभ से उन्हें देखते रहे और वे हम सब देवताओं और मुनियों को निष्काम होने का उपदेश देकर चुप हो गए और पुनः पहले की भांति सुस्थिर होकर ध्यान में लीन हो गए। भगवान शिव ब्रह्म स्वरूप आत्मचिंतन में लग गए।

श्रीहरि विष्णु सहित अन्य देवताओं ने जब परमेश्वर शिव को ध्यान में मग्न देखा तब सब देवता नंदीश्वर से कहने लगे- नंदीश्वर जी! हम अब क्या करें? हमें भगवान शिव को प्रसन्न करने का कोई मार्ग सुझाइए। तब नंदीश्वर सभी देवताओं को संबोधित करते हुए बोले – आप भक्तवत्सल भगवान शिव की प्रार्थना करते रहो। वे सदैव ही अपने भक्तों के वश में रहते हैं। तब नंदीश्वर की बात सुनकर देवता पुनः भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे बोले – हे देवाधिदेव! महादेव! करुणानिधान! भगवान शिव शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। आप हम सबके सभी दुखों और कष्टों को दूर कीजिए और हम सबका उद्धार कीजिए। इस प्रकार देवताओं ने भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की। इसके बाद भी जब भगवान ने आंखें नहीं खोलीं तो सब देवता उनकी करुण स्वर में स्तुति करते हुए रोने लगे। तब श्रीहरि विष्णु मन ही मन भगवान शिव का स्मरण करने लगे और करुण स्वर में अपना निवेदन करने लगे। देवताओ, मेरे और श्रीहरि विष्णु के बार-बार निवेदन करने पर भगवान शिव की तंद्रा टूटी और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी आंखें खोल दीं। तब भगवान शिव बोले- तुम सब एक साथ यहां किसलिए आए हो? मुझे इससे अवगत कराओ।

श्रीहरि विष्णु बोले ;- हे देवेश्वर ! हे शिव शंकर! आप सर्वज्ञ हैं। सबके अंतर्यामी ईश्वर हैं। आप तो सबकुछ जानते हैं। भगवन्, आप हमारे मन की बात भी अवश्य ही जानते होंगे। फिर भी यदि आप हमारे मुख से सुनना चाहते हैं तो सुनें। तारक नामक असुर आजकल बड़ा बलशाली हो गया है। वह देवताओं को अनेकों प्रकार के कष्ट देता है। इसलिए हम सभी देवताओं ने देवी जगदंबा से प्रार्थना कर उन्हें गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में अवतार ग्रहण कराया है। इसलिए ही हम बार-बार आपकी प्रार्थना कर रहे हैं कि आप देवी पार्वती को पत्नी रूप में प्राप्त करें। ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र ही तारकासुर का वध कर हमें उसके आतंक से मुक्त करा सकता है। मुनिश्रेष्ठ नारद के उपदेश के अनुसार देवी पार्वती कठोर तपस्या कर रही हैं। उनकी तपस्या के तेज के प्रभाव से समस्त चराचर जगत संतप्त हो गया है। इसलिए हे भगवन्! आप पार्वती को वरदान देने के लिए जाइए हे प्रभु! देवताओं पर आए इस संकट और उनके दुखों को मिटाने के लिए आप देवी पार्वती पर अपनी कृपादृष्टि कीजिए। आपका विवाह उत्सव देखने के लिए हम सभी बहुत उत्साहित हैं। अतः प्रभु, आप शीघ्र ही विवाह बंधन में बंधकर हमारी इस इच्छा को भी पूरा करें। भगवन्! आपने रति को जो वरदान प्रदान किया था, उसके पूरा होने का भी अवसर आ गया है। अतः महेश्वर! आप अपनी प्रतिज्ञा को शीघ्र ही पूरा करें।

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! ऐसा कहकर और प्रणाम करके विष्णुजी और अन्य देवताओं ने पुनः शिवजी की स्तुति की। तत्पश्चात वे सब हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब उन्हें देखकर वेद मर्यादाओं के रक्षक भगवान शिव हंसकर बोले-‘हे हरे! हे विधे! और हे देवताओ! मेरे अनुसार विवाह करना उचित कार्य नहीं है क्योंकि विवाह मनुष्य को बांधकर रखने वाली बेड़ी है। जगत में अनेक कुरीतियां हैं। स्त्री का साथ उनमें से एक है। मनुष्य सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो सकता है परंतु स्त्री के बंधन से वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। एक बार को लोहे और लकड़ी की बनी जंजीरों से मुक्ति मिल सकती है परंतु विवाह एक ऐसी कैद है, जिससे छुटकारा पाना असंभव है। विवाह मन को विषयों के वशीभूत कर देता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति असंभव हो जाती है। मनुष्य यदि सुख की इच्छा रखता है तो उसे इन विषयों को त्याग देना चाहिए। विषयों को विष के समान माना जाता है। इन सब बातों का ज्ञान होते हुए भी, मैं आप सबकी प्रार्थना को सफल करूंगा क्योंकि मैं सदैव ही अपने भक्तों के अधीन रहता हूं। मैंने अपने भक्तों की रक्षा के लिए अनेक कष्ट सहे हैं।

हे हरे! और हे विधे! आप तो सबकुछ जानते ही हैं। मेरे भक्तों पर जब-जब विपत्ति आती हैं, तब-तब मैं उनके सभी कष्टों को दूर करता हूं। भक्तों के अधीन होने के कारण मैं उनके हित में अनुचित कार्य भी कर बैठता हूं। भक्तों के दुखों को मैं हमेशा दूर करता हूं। तारकासुर ने तुम्हें जो दुख दिए हैं, उन्हें मैं भलीभांति जानता हूं। उनको मैं अवश्य ही दूर करूंगा। जैसा कि आप सभी जानते हैं, मेरे मन में विवाह करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी पुत्र प्राप्ति हेतु मैं देवी पार्वती का पाणिग्रहण अवश्य करूंगा। अब तुम सब देवता निर्भय और निडर होकर अपने-अपने धाम को लौट जाओ। मैं तुम्हारे कार्य की सिद्धि अवश्य करूंगा। इसलिए अपनी सभी चिंताओं को त्यागकर सभी सहर्ष अपने घर जाओ।

ऐसा कहकर भगवान शिव शंकर पुनः मौन हो गए और समाधि में बैठकर ध्यान में मग्न हो गए। तत्पश्चात, विष्णुजी और मैं देवराज इंद्र सहित सभी देवता अपने-अपने धामों को खुशी से लौट आए।

भगवान शिव और देवी पार्वती के तपस्या की अद्भुत कथा

ब्रह्माजी नारदजी से कहते हैं

देवी पार्वती ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या आरंभ की। उनकी तपस्या को वर्षों बीत गए, लेकिन भगवान शिव ने न तो दर्शन दिए और न ही कोई वरदान। इस बीच, देवी पार्वती के पिता हिमालय, माता मैना और अन्य परिजन उन्हें समझाने और वापस घर लाने के लिए आए।

पार्वती का अडिग निश्चय

सभी परिजनों के आग्रह पर देवी पार्वती ने विनम्रतापूर्वक कहा—
“हे पिताजी और माताजी! क्या आप मेरी प्रतिज्ञा भूल गए हैं? मैं भगवान शिव को अपनी तपस्या से अवश्य प्रसन्न करूंगी। यह वही स्थान है जहां महादेव ने कामदेव को भस्म किया था। उन्हीं त्रिलोकीनाथ शिव को मैं अपनी भक्ति से वश में करूंगी। आप निश्चिंत होकर घर लौट जाएं।”

परिजनों ने पार्वती के अडिग निश्चय की सराहना की और वापस लौट गए। इसके बाद देवी पार्वती ने दुगुने उत्साह और भक्ति के साथ तपस्या आरंभ कर दी।

तपस्या का प्रभाव और देवताओं की चिंता

पार्वती की तपस्या के प्रभाव से संपूर्ण त्रिलोक संतृप्त हो उठा। प्रकृति अशांत हो गई, और देवता इस स्थिति का कारण समझ नहीं पा रहे थे। सभी देवताओं ने इंद्र के नेतृत्व में गुरु बृहस्पति और फिर ब्रह्माजी की शरण ली। ब्रह्माजी ने ध्यान करके जाना कि यह संतृप्ति देवी पार्वती की तपस्या का परिणाम है। उन्होंने देवताओं को लेकर क्षीरसागर में भगवान विष्णु के पास जाने का सुझाव दिया।

विष्णुजी की सलाह

क्षीरसागर में भगवान विष्णु ने देवताओं की करुण पुकार सुनी और कहा—
“देवी पार्वती घोर तपस्या कर रही हैं ताकि भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त कर सकें। उनकी इच्छा पूरी करना हमारे वश की बात नहीं है। हमें त्रिलोकीनाथ शिव के पास जाकर उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वे पार्वती से विवाह करें।”

देवताओं का भय

विष्णुजी की बात सुनकर देवता भयभीत हो गए। उन्होंने कहा—
“भगवान शिव अत्यंत क्रोधी हैं। उनके नेत्र कालाग्नि के समान हैं। उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था। यदि वे क्रोधित हुए, तो हमें भी भस्म कर सकते हैं।”

विष्णुजी का मार्गदर्शन

विष्णुजी ने देवताओं को समझाते हुए कहा—
“भगवान शिव भयों का नाश करने वाले और समस्त देवताओं के स्वामी हैं। वे परम तपस्वी और भक्तवत्सल हैं। हमें निडर होकर उनकी शरण में जाना चाहिए।”

विष्णुजी के मार्गदर्शन पर देवता भगवान शिव के पास जाने को तैयार हुए।

शिवजी के पास देवताओं का आगमन

देवताओं के मार्ग में तपस्या में लीन देवी पार्वती को देखकर उन्होंने उनकी तपस्या की प्रशंसा की और प्रणाम किया। इसके बाद ब्रह्माजी, विष्णुजी और अन्य देवता भगवान शिव के दर्शनार्थ आगे बढ़े।

भगवान शिव की प्रसन्नता

देवता कुछ दूरी पर ठहर गए और नारदजी को शिवजी की प्रसन्नता का पता लगाने भेजा। नारदजी ने देखा कि भगवान शिव प्रसन्न मुद्रा में हैं। यह जानकर वे लौटे और देवताओं को यह शुभ समाचार दिया। तब सभी देवता शिवजी के पास पहुंचे।

शिवजी की स्तुति

भगवान शिव योग मुद्रा में अपने गणों से घिरे हुए सुखपूर्वक विराजमान थे। ब्रह्माजी, विष्णुजी और अन्य देवताओं ने वेदों और उपनिषदों के ज्ञात विधि से भगवान शिव की स्तुति की।

निष्कर्ष

देवताओं और त्रिलोक के कल्याण के लिए भगवान विष्णु, ब्रह्माजी, और सभी देवताओं ने शिवजी से देवी पार्वती से विवाह करने का अनुरोध किया। यह कथा शिव और शक्ति के पवित्र मिलन की ओर अग्रसर होती है, जो संसार की भलाई और संतुलन का प्रतीक है।

The post शिव से विवाह करने का अनुरोध – तेईसवां अध्याय appeared first on मणिमहेश.

]]>