शिव गाथाएँ Archives - मणिमहेश https://manimahesh.in/category/shiva-legends/ भगवान् शिव का निवास Thu, 07 Mar 2024 20:40:52 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5 https://manimahesh.in/wp-content/uploads/2022/01/cropped-om-icon-32x32.png शिव गाथाएँ Archives - मणिमहेश https://manimahesh.in/category/shiva-legends/ 32 32 महाशिवरात्रि और शिवरात्रि के बीच अंतर https://manimahesh.in/%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%9a-%e0%a4%85%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a4%b0/ Thu, 07 Mar 2024 20:21:10 +0000 https://manimahesh.in/?p=1232 महाशिवरात्रि और शिवरात्रि के बीच के मुख्य अंतर: भारतीय संस्कृति में त्योहारों का अपना एक खास स्थान है, जो न केवल सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखते हैं बल्कि आध्यात्मिक शिक्षाओं को भी प्रदर्शित करते हैं। इन्हीं में से दो प्रमुख त्योहार हैं शिवरात्रि और महाशिवरात्रि। इन दोनों त्योहारों के नाम में समानता होने के बावजूद, […]

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महाशिवरात्रि और शिवरात्रि के बीच के मुख्य अंतर: भारतीय संस्कृति में त्योहारों का अपना एक खास स्थान है, जो न केवल सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखते हैं बल्कि आध्यात्मिक शिक्षाओं को भी प्रदर्शित करते हैं। इन्हीं में से दो प्रमुख त्योहार हैं शिवरात्रि और महाशिवरात्रि। इन दोनों त्योहारों के नाम में समानता होने के बावजूद, दोनों के बीच कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। इस लेख में हम उन्हीं अंतरों को विस्तार से समझेंगे।

a simple Shivratri celebration, with an individual devoutly pouring water over a Shivling at a home shrine

महत्व और उत्सव का समय

  • शिवरात्रि: शिवरात्रि हर महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाई जाती है। इसे मासिक शिवरात्रि कहा जाता है। इस दिन भक्त व्रत रखते हैं और भगवान शिव की आराधना करते हैं।
  • महाशिवरात्रि: महाशिवरात्रि वर्ष में एक बार, फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। यह शिवरात्रि के मासिक उत्सव से कहीं अधिक विशेष माना जाता है और इसका आध्यात्मिक महत्व भी अधिक है।

ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व

  • शिवरात्रि: मासिक शिवरात्रि का महत्व भले ही प्रत्येक माह में हो, लेकिन इसका आध्यात्मिक महत्व महाशिवरात्रि की तुलना में कम है। इस दिन भक्त अपनी आध्यात्मिक साधना के माध्यम से भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त करने की कामना करते हैं।
  • महाशिवरात्रि: महाशिवरात्रि का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व बहुत अधिक है। माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। यह दिन शिव-शक्ति के मिलन का प्रतीक है। भक्त व्रत रखते हैं, रात भर जागरण करते हैं और भगवान शिव की पूजा-अर्चना में लीन रहते हैं।

उत्सव के तरीके

  • शिवरात्रि: मासिक शिवरात्रि पर, भक्त उपवास करते हैं और शिवलिंग पर जल, दूध, फल, और बिल्व पत्र अर्पित करते हैं। यह उत्सव अधिक सादगीपूर्ण होता है।
  • महाशिवरात्रि: महाशिवरात्रि के दिन, भक्तों द्वारा भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति और आदर का प्रदर्शन बड़े ही भव्य और विशेष तरीके से किया जाता है। रात भर भजन और कीर्तन होते हैं, शिवलिंग पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है, और भक्त जागरण करते हैं।

सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव

  • शिवरात्रि: मासिक शिवरात्रि का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव सीमित होता है, क्योंकि यह हर महीने मनाया जाता है।
  • महाशिवरात्रि: महाशिवरात्रि का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव काफी व्यापक होता है। इस दिन अनेक स्थानों पर मेले और उत्सव का आयोजन किया जाता है। लोग दूर-दूर से शिव मंदिरों में दर्शन के लिए आते हैं।

अंत में, शिवरात्रि और महाशिवरात्रि दोनों ही त्योहार भगवान शिव के प्रति भक्ति और आदर को प्रकट करते हैं। लेकिन, महाशिवरात्रि का महत्व और उत्सव अधिक भव्य और विशेष होता है, जिसमें भक्तों द्वारा भगवान शिव के प्रति उनकी अगाध भक्ति का उत्सव मनाया जाता है।

इस तरह से, शिवरात्रि और महाशिवरात्रि के बीच के अंतर को समझने से हमें भारतीय त्योहारों के विविधतापूर्ण और समृद्ध सांस्कृतिक ताने-बाने की गहराई में झांकने का मौका मिलता है।

A group of devotees performing night-long vigil and special worship of Lord Shiva during Mahashivratri, showing a decorated temple with Shivling

महाशिवरात्रि की कथाएँ

महाशिवरात्रि हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण त्योहार है, जो भगवान शिव की आराधना और उनके महान तपस्या, शक्ति और दया को समर्पित है। इस दिन के पीछे कई पौराणिक कथाएं और मान्यताएं हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख कथाओं का वर्णन नीचे किया गया है।

1. शिव-पार्वती विवाह

सबसे प्रसिद्ध कथा भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह की है। मान्यता के अनुसार, महाशिवरात्रि के दिन ही माता पार्वती के लंबे तपस्या के बाद भगवान शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। इस दिन को शिव और शक्ति के मिलन के रूप में मनाया जाता है।

The wedding of Lord Shiva and Goddess Parvati, depicted as a divine ceremony with the presence of gods and goddesses

2. समुद्र मंथन

एक अन्य कथा समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है, जिसमें देवता और असुर मिलकर समुद्र को मंथन कर रहे थे। मंथन से निकले विष को भगवान शिव ने ग्रहण किया और उसे अपने कंठ में धारण किया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया। इस कारण उन्हें ‘नीलकंठ’ के नाम से भी जाना जाता है। यह कृत्य भगवान शिव की दयालुता और सृष्टि के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।

The scene of Samudra Manthan with gods and demons churning the ocean using the mountain Mandara as the churning rod and the serpent Vasuki as the rope

3. लिंगोद्भव कथा

महाशिवरात्रि के दिन को भगवान शिव के लिंग रूप में प्रकट होने की रात भी माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच सर्वोच्च होने के विवाद को सुलझाने के लिए अनंत ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। इस कथा के अनुसार, भगवान शिव ने दिखाया कि वे सृष्टि के आदि और अनंत स्रोत हैं।

The emergence of the infinite Jyotirlinga, representing the moment when Lord Shiva appeared as an endless pillar of light to settle the dispute between Brahma and Vishnu

4. गृहस्थ भक्त की कथा

एक और कथा में एक साधारण गृहस्थ की कहानी है, जिसने अनजाने में महाशिवरात्रि के दिन व्रत और पूजा की थी। उसकी भक्ति और समर्पण ने भगवान शिव को प्रसन्न किया, और उन्होंने उसे उसके पापों से मुक्त कर दिया। यह कथा यह दर्शाती है कि भगवान शिव सच्ची भक्ति और विश्वास को महत्व देते हैं।

A simple and devout villager unknowingly observing Mahashivratri by fasting and offering prayers to a Shivling at night

महाशिवरात्रि की ये कथाएँ हमें भगवान शिव के विभिन्न रूपों और उनकी महिमा को समझने में मदद करती हैं। यह त्योहार हमें सिखाता है कि कैसे समर्पण, भक्ति और विश्वास के माध्यम से हम जीवन में उच्चतम आध्यात्मिकता को प्राप्त कर सकते

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भगवान शिव को आशुतोष क्यों कहा जाता है? https://manimahesh.in/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%86%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%a4%e0%a5%8b%e0%a4%b7-%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%b9%e0%a5%88/ Sat, 13 Jan 2024 06:20:37 +0000 https://manimahesh.in/?p=1192 भगवान शिव को ‘आशुतोष’ कहा जाता है क्योंकि वह अपने भक्तों के प्रति शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं। ‘आशुतोष’ का अर्थ होता है ‘जल्दी प्रसन्न होने वाला’ या ‘तुरंत खुश होने वाला’। इस उपनाम से ही इस देवता की विशेषता और उनके भक्तों के प्रति उनकी अत्यंत कृपाशीलता का संकेत होता है। यह नाम […]

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भगवान शिव को ‘आशुतोष’ कहा जाता है क्योंकि वह अपने भक्तों के प्रति शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं। ‘आशुतोष’ का अर्थ होता है ‘जल्दी प्रसन्न होने वाला’ या ‘तुरंत खुश होने वाला’। इस उपनाम से ही इस देवता की विशेषता और उनके भक्तों के प्रति उनकी अत्यंत कृपाशीलता का संकेत होता है। यह नाम भगवान शिव के भक्तों के लिए एक प्रिय और आदर्श नाम है जो उनकी अत्यधिक श्रद्धा और आस्था को प्रतिष्ठित करता है।

आध्यात्मिक साहित्य और पौराणिक कथाओं में, भगवान शिव के विभिन्न नामों और उपनामों की कई सूचियां मिलती हैं, और ‘आशुतोष’ एक ऐसा उपनाम है जो उनके प्रिय और कृपाशील स्वभाव को दर्शाता है। यह नाम भगवान शिव के भक्तों के बीच में एक अद्वितीय और प्रमुख पहचान बन चुका है जो उनके सच्चे भक्त बनने की दिशा में मार्गदर्शन करता है।

आशुतोष के इस नाम का विकास पौराणिक कथाओं से जुड़ा है, जिसमें शिव भगवान के एक विशेष घटना से यह नाम प्राप्त हुआ। एक काल, देवों और दानवों के मध्य युद्ध हुआ था जिसे समुद्र मंथन कहा जाता है। इस युद्ध में अमृत प्राप्त करने के लिए अद्भुत रत्नों की प्राप्ति के लिए बाणासुर नामक दानव ने भगवान शिव की आराधना करना शुरू किया।

बाणासुर ने अपनी भक्ति के साथ भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया, और उनसे वरदान मांगा कि उनकी माता देवी पार्वती को वह शिव के साथ विवाह करें। भगवान शिव, जो अपने भक्तों के प्रति हमेशा कृपाशील रहते हैं, ने इस आशीर्वाद को स्वीकार किया। उन्होंने बाणासुर की प्रार्थना स्वीकार की और उनकी माता को अपनी सहधर्मिणी बना लिया।

इस घटना से प्रेरित होकर भगवान शिव को ‘आशुतोष’ कहा जाने लगा, क्योंकि वह अपने भक्तों के प्रति तुरंत प्रसन्न हो जाते थे और उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार करते थे। इस उपनाम से भगवान शिव को उनके अत्यंत दयालु और सहानुभूति स्वभाव का प्रतीक माना जाता है, जो भक्तों को उनकी आस्था और प्रेम की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है।

आशुतोष के नाम से ही दर्शाया जाता है कि भगवान शिव को किसी भी अपने भक्त की प्रार्थना और आराधना के लिए वक्त नहीं लगता, उन्होंने तुरंत ही अपने भक्तों की सुनी और उनके प्रार्थनाओं को स्वीकार किया। इससे यह सिखने को मिलता है कि भगवान का प्रेम और कृपा हमेशा हमारे साथ होती है, चाहे हमारी स्थिति कुछ भी हो।

भगवान शिव को आशुतोष कहा जाने के एक और महत्वपूर्ण कारण है उनकी अत्यधिक सहानुभूति और कारुण्य भावना के कारण। वे अपने भक्तों के प्रति अत्यंत दयालु होते हैं और उन्हें संसारिक दुखों और कष्टों से मुक्ति प्रदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। इसलिए उन्हें ‘आशुतोष’ कहा जाता है, क्योंकि उनकी कृपा में अवश्य प्रसन्नता होती है और वे अपने भक्तों के सभी दुःखों को शीघ्र ही दूर करते हैं।

भगवान शिव को आशुतोष कहना उनके नाम में एक विशेषता और प्राचीन भारतीय साहित्य के क्षेत्र में एक गहरी भक्ति और आस्था की भावना को दर्शाता है। इस नाम से यह सिखने को मिलता है कि भक्ति और आस्था के साथ व्यक्ति भगवान के प्रति अद्वितीय प्रेम और कृपा को प्राप्त कर सकता है और उसे जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता और सुख की प्राप्ति हो सकती है।

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भगवान शिव की पूजा से पाएं कालसर्प दोष की परेशानी से मुक्ति https://manimahesh.in/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a5%82%e0%a4%9c%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%8f%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%aa-%e0%a4%a6%e0%a5%8b%e0%a4%b7-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%bf/ Thu, 09 Feb 2023 04:05:15 +0000 https://manimahesh.in/?p=1088 यदि आपकी कुंडली में कालसर्प दोष है तो भगवान शिव की पूजा से कालसर्प दोष की परेशानी से मुक्ति मिल सकती है। कालसर्प दोष आपके तमाम कष्टों का कारण बनता है, तो आपको कालसर्प दोष से बचने के लिए भगवान शिव की पूजा का यह सरल उपाय जरूर करना चाहिए।   कब बनता है कालसर्प […]

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यदि आपकी कुंडली में कालसर्प दोष है तो भगवान शिव की पूजा से कालसर्प दोष की परेशानी से मुक्ति मिल सकती है। कालसर्प दोष आपके तमाम कष्टों का कारण बनता है, तो आपको कालसर्प दोष से बचने के लिए भगवान शिव की पूजा का यह सरल उपाय जरूर करना चाहिए।  

  • यदि कोई व्यक्ति महाशिवरात्रि पर ज्योतिर्लिंग या महादेव मंदिर में विधि-विधान से पूजा और रुद्राभिषेक करवाता है तो उसे कुंडली से जुड़े इस दोष से मुक्ति मिल जाती है।  
  • कालसर्प दोष से बचने के लिए महाशिवरात्रि पर भगवान शिव को चांदी के नाग-नागिन का जोड़ा चढ़ाएं। 
  • महाशिवरात्रि के दिन से महा मृत्युंजय मंत्र का जाप दिन में दो बार  करें।
  • महाशिवरात्रि के दिन ‘ॐ नागकुलाय विद्महे विषदंताय धीमहि तन्नो सर्प प्रचोदयात’ का जाप करें।
  • महाशिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर दूध और जल चढ़ाकर रुद्र-अभिषेक जरूर करें। 
  • महाशिवरात्रि के साथ कालसर्प दोष पीड़ित व्यक्ति को नाग पंचमी का व्रत भी करना चाहिए ताकि काल सर्प दोष के नकारात्मक प्रभावों से बचा जा सके।
  • भगवान शिव की नियमित पूजा करें। 
  • नागपंचमी पर धातु के नाग नागिन का जोड़ा मंदिर में चढ़ाएं।
  • अनामिका अंगुली में सोना, चांदी और तांबा से मिली धातु की सर्प की अंगूठी शनिवार को धारण करें।
  • चौखट पर चांदी स्वास्तिक लगाएं।
  • 500 ग्राम का पारद शिवलिंग बनवा कर रुद्राभिषेक कराएं। घर में मोरपंख रखें। ओम नमो वासुदेवाय मंत्र का जाप करें। एकाक्षी नारियल पर चंदन से पूजन कर के 7 बार सिर से घुमा कर प्रवाहित कर दें। सांप को सपेरे की मदद से दूध पिलाएं। नव नाग स्तोत्र का जाप करें। राहू यंत्र पास रखें या बहाएं। नाग पंचमी पर वट वृक्ष की 108 प्रदक्षिणा करें।

कब बनता है कालसर्प दोष और इसके प्रकार?

यदि किसी की कुंडली में राहु और केतु के बीच में सभी ग्रह आ जाएं तो यह दोष काल सर्प दोष कहलाता है। काल के नाम पर राहु का चयन किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र में राहु को सांप का मुंह और केतु को सांप की पूंछ माना गया है। ज्योतिष के अनुसार,  कुंडली में 12 प्रकार के काल सर्प दोष बनते हैं। अनंत कालसर्प योग, कुलिक कालसर्प योग, वासुकी कालसर्प योग, शंखपाल कालसर्प योग, पद्म कालसर्प योग,महापदम कालसर्प योग,  तक्षक कालसर्प योग, कर्कोटक कालसर्प योग,शंखनाद कालसर्प योग,पातक कालसर्प योग, विषधर कालसर्प योग, शेषनाग कालसर्प योग।

अनंत कालसर्प दोष

कुंडली में राहु लग्न में हो और केतु सप्तम भाव में स्थित हो तथा सभी अन्य ग्रह सप्तम से द्वादश, एकादशी, दशम, नवम, अष्टम और सप्तम में स्थित हो तो यह अनंत कालसर्प योग कहलाता है। ऐसे जातकों के व्यक्तित्व निर्माण में कठिन परिश्रम की जरूरत पड़ती है। उसके विद्यार्जन व व्यवसाय के काम बहुत सामान्य ढंग से चलते हैं और इन क्षेत्रों में थोड़ा भी आगे बढ़ने के लिए जातक को कठिन संघर्ष करना पड़ता है।

कुलिक कालसर्प दोष

राहु द्वितीय भाव में तथा केतु अष्टम भाव में हो और सभी ग्रह इन दोनों ग्रहों के बीच में हो तो कुलिक नाम कालसर्प योग होगा।  हु दूसरे घर में हो और केतु अष्टम स्थान में हो और सभी ग्रह इन दोनों ग्रहों के बीच में हो तो कुलिक नाम कालसर्प योग होगा। जातक को अपयश का भी भागी बनना पड़ता है। इस योग की वजह से जातक की पढ़ाई-लिखाई सामान्य गति से चलती है और उसका वैवाहिक जीवन भी सामान्य रहता है। लेकिन आर्थिक परेशानियों के कारण आपके दापत्यं जीवन में खलबली मची रहती है।

शेषनाग कालसर्प दोष

कुंडली में राहु द्वादश स्थान में तथा केतु छठे स्थान में हो तथा शेष 7 ग्रह नक्षत्र चतुर्थ तृतीय और प्रथम स्थान में हो तो शेषनाग कालसर्प दोष का निर्माण होता है। शेषनाग कालसर्प योग बनता है। शास्त्रों के अनुासर व्यवहार में लोग इस योग संबंधी बाधाओं से पीड़ित अवश्य देखे जाते हैं। इस योग से पीड़ित जातकों की मनोकामनाएं हमेशा विलंब से ही पूरी होती हैं। ऐसे जातकों को अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए अपने जन्मस्थान से दूर जाना पड़ता है और शत्रु षड़यंत्रों से उसे हमेशा वाद-विवाद व मुकदमे बाजी में फंसे रहना पड़ता है। 

विषधर कालसर्प दोष

केतु पंचम और राहु ग्यारहवे भाव में हो तो विषधर कालसर्प योग बनाते हैं। इस दोष के चलते व्यक्ति धन की हानि से गुजरता है। जातक को ज्ञानार्जन करने में आंशिक व्यवधान उपस्थित होता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने में थोड़ी बहुत बाधा आती है एवं स्मरण शक्ति का हमेशा ह्रास होता है। जातक को नाना-नानी, दादा-दादी से लाभ की संभावना होते हुए भी आंशिक नुकसान उठाना पड़ता है। चाचा, चचेरे भाइयों से कभी-कभी झगड़ा- झंझट भी हो जाता है। बड़े भाई से विवाद होने की प्रबल संभावना रहती है।

वासुकी कालसर्प दोष

राहु तृतीय भाव में स्थित है तथा केतु नवम भाव में स्थित होकर जिस योग का निर्माण करते हैं तो वह दोष वासुकी कालसर्प दोष कहलाता है। वह भाई-बहनों से भी परेशान रहता है। अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी आपसी खींचतान बनी रहती है। रिश्तेदार एवं मित्रगण आपको हमेशा धोखा देते रहते हैं। घर में हमेशा कलह रहता है। साथ ही आर्थिक स्थिति भी असामान्य रहती है। अर्थोपार्जन के लिए जातक को विशेष संघर्ष करना पड़ता है।

शंखपाल कालसर्प दोष

राहु चतुर्थ भाव में तथा केतु दशम भाव में स्थित होकर अन्‍य ग्रहों के साथ जो निर्माण करते हैं तो वह कालसर्प दोष शंखपाल के नाम से जाना जाता है। इससे घर- संपत्ति संबंधी थोड़ी बहुत कठिनाइयां आती हैं। जिसके कारण जातक को कभी-कभी तनाव में आ जाता है। जातक को माता से कोई, न कोई किसी न किसी समय आंशिक रूप में तकलीफ मिलती है। चंद्रमा के पीड़ित होने के कारण जातक समय-समय पर मानसिक संतुलन खोया रहता है।

पद्य कालसर्प दोष

चतुर्थ स्‍थान पर दिए दोष के ऊपर का है पद्य कालसर्प दोष इसमें राहु पंचम भाव में तथा केतु एकादश भाव में साथ में एकादशी पंचांग 8 भाव में स्थित हो तथा इस बीच सारे ग्रह हों तो पद्म कालसर्प योग बनता है। ज्ञान प्राप्त करने पर थोड़ी समस्या उच्पन्न होती है। साथ ही जातक को संतान प्राय: विलंब से प्राप्त होती है, या संतान होने में आंशिक रूप से व्यवधान उपस्थित होता है। जातक को पुत्र संतान की प्राय: चिंता बनी रहती है। साथ ही स्वास्थ्य संबंधी समस्या भी हो सकती है।

महापद्म कालसर्प दोष

राहु छठे भाव में और केतु बारहवे भाव में और इसके बीच सारे ग्रह अवस्थित हों तो महापद्म कालसर्प योग बनता है। इस योग में जातक शत्रु विजेता होता है, विदेशों से व्यापार में लाभ कमाता है लेकिन बाहर ज्यादा रहने के कारण उसके घर में शांति का अभाव रहता है। इस योग के जातक को एक ही चीज मिल सकती है धन या सुख। इस योग के कारण जातक यात्रा बहुत करता है।

तक्षक कालसर्प दोष

जन्मपत्रिका के अनुसार राहु सप्तम भाव में तथा केतु लग्न में स्थित हो तो ऐसा कालसर्प दोष तक्षक कालसर्प दोष के नाम से जाना जाता है। इस कालसर्प योग से पीड़ित जातकों को पैतृक संपत्ति का सुख नहीं मिल पाता। ऐसे जातक प्रेम प्रसंग में भी असफल होते देखे जाते हैं। गुप्त प्रसंगों में भी उन्हें धोखा खाना पड़ता है। वैवाहिक जीवन सामान्य रहते हुए भी कभी-कभी संबंध इतना तनावपूर्ण हो जाता है जिससे कि आप अलग होने की कोसिस करते है।  

कर्कोटक कालसर्प दोष

केतु दूसरे स्थान में और राहु अष्टम स्थान में कर्कोटक नाम कालसर्प योग बनता है। ऐसे जातकों के भाग्योदय में इस योग की वजह से कुछ रुकावटें अवश्य आती हैं। नौकरी मिलने व पदोन्नति होने में भी कठिनाइयां आती हैं। इस जातकों को संपत्ति भी आते-आते रह जाती है। कोई भी काम ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। साथ ही आपको अधिक परिश्र्म करने के बाद भी लाभ नहीं मिल पाता है।

शंखचूड़ कालसर्प दोष

सर्प दोष जन्मपत्रिका में केतु तीसरे स्थान में व राहु नवम स्थान में हो तो शंखचूड़ नामक कालसर्प योग बनता है। इस योग से पीड़ित जातकों का भाग्योदय होने में अनेक प्रकार की अड़चने आती रहती हैं। व्यावसायिक प्रगति, नौकरी में प्रोन्नति तथा पढ़ाई-लिखाई में वांछित सफलता मिलने में जातकों को कई प्रकार के विघ्नों का सामना करना पड़ता है। इसके पीछे कारण वह स्वयं होता है क्योंकि वह अपनो का भी हिस्सा छिनना चाहता है। अपने जीवन में धर्म से खिलवाड़ करता है।

घातक कालसर्प दोष

कुंडली में दशम भाव में स्थित राहु और चतुर्थ भाव में स्थित केतु जब कालसर्प योग का र्निमाण करता है तो ऐसा कालसर्प दोष घातक कालसर्प दोष कहलाता है। इस योग में उत्पन्न जातक यदि मां की सेवा करे तो उत्तम घर व सुख की प्राप्ति होता है। जातक हमेशा जीवन पर्यन्त सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है उसके पास कितना ही सुख आ जाए उसका जी नहीं भरता है।

काल सर्प दोष के लक्षण

कुंडली में कालसर्प दोष हो तो जातक को कई तरह के कष्टों का सामना करना पड़ता है. कालसर्प दोष होने पर व्यक्ति शारीरिक और आर्थिक रूप से हमेशा परेशान रहता है। कुछ जातकों को इस दोष की वजह से संतान संबंधी कष्ट भी उठाने पड़ते हैं। मतलब या तो वो संतानहीन रहता है या फिर संतान रोगी होती है। कालसर्प दोष होने पर जातक की नौकरी भी बार-बार छूटती रहती है और उसे कई कर्ज भी लेना पड़ जाता है। कुंडली में काल सर्प योग तो ज्योतिष की सलाह से इसका निवारण करना चाहिए।

विवाह पर काल सर्प दोष प्रभाव

काल सर्प दोष का प्रभाव जातक के विवाह पर तब पड़ता है जब केतु सप्तम भाव में और राहु प्रथम भाव में हो। काल सर्प दोष के कारण वैवाहिक जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और वैवाहिक जीवन कमजोर हो जाता है। यह व्यावहारिक जीवन को कठिन बनाते हुए जोड़ों के बीच कई समस्याएं और तनाव पैदा करता है।

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भगवान शिव के पंचाक्षर मंत्र “ॐ नमः शिवाय” के जप से दूर करें सब कष्ट https://manimahesh.in/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a4%82%e0%a4%9a%e0%a4%be%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a5%90-%e0%a4%a8%e0%a4%ae%e0%a4%83-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%9c%e0%a4%aa-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%a6%e0%a5%82%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%ac-%e0%a4%95%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f/ Thu, 09 Feb 2023 03:04:51 +0000 https://manimahesh.in/?p=1075 वेदों और पुराणों के अनुसार शिव अर्थात सृष्टि के सृजनकर्ता को प्रसन्न करने के लिए सिर्फ पंचाक्षर मंत्र “ॐ नमः शिवाय”का जप ही काफी है। भोलेनाथ इस मंत्र से बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं एवं इस मंत्र के जप से आपके सभी दुःख, सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं। श्रावण माह में स्वयं भगवान शिव […]

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वेदों और पुराणों के अनुसार शिव अर्थात सृष्टि के सृजनकर्ता को प्रसन्न करने के लिए सिर्फ पंचाक्षर मंत्र “ॐ नमः शिवाय”का जप ही काफी है। भोलेनाथ इस मंत्र से बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं एवं इस मंत्र के जप से आपके सभी दुःख, सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं।

श्रावण माह में स्वयं भगवान शिव माता पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी और अपने शिवगणों सहित पृथ्वी पर विराजते हैं। श्रावण का महीना शिव भक्तों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस मास में वे अपने आराध्य भोलेनाथ की विधि-विधान से पूजाकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। शिवपूजा का सर्वमान्य पंचाक्षर मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’, जो प्रारंभ में ॐ के संयोग से षडाक्षर हो जाता है, भगवान शिव को शीघ्र ही प्रसन्न कर देता है। हृदय में ‘ॐ नमः शिवाय’ का मंत्र समाहित होने पर संपूर्ण शास्त्र ज्ञान एवं शुभ कार्यों का ज्ञान स्वयं ही प्राप्त हो जाता है। यह मंत्र शिव तथ्य है जो सर्वज्ञ,परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल है इसके समान अन्य कोई नहीं है। भोले नाथ की कृपा पाने के लिए यह मंत्र बहुत प्रभावी है।

सर्वप्रथम ब्रह्माजी को दिया

शिवपुराण के अनुसार एक बार मां पार्वती भोलेनाथ से पूछती हैं कि कलियुग में समस्त पापों को दूर करने के लिए किस मंत्र का आशय लेना चाहिए? देवी पार्वती के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान शिव कहते हैं कि प्रलय काल में जब सृष्टि में सब समाप्त हो गया था, तब मेरी आज्ञा से समस्त वेद और शास्त्र पंचाक्षर में विलीन हो गए थे। सबसे पहले शिवजी ने अपने पांच मुखों से यह मंत्र ब्रह्माजी को प्रदान किया था। शिव पुराण के अनुसार इस मंत्र के ऋषि वामदेव हैं एवं स्वयं शिव इसके देवता हैं। नमः शिवाय की पंच ध्वनियां सृष्टि में मौजूद पंचतत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनसे सम्पूर्ण सृष्टि बनी है और प्रलयकाल में उसी में विलीन हो जाती है। भगवान शिव सृष्टि को नियंत्रित करने वाले देव माने जाते हैं। क्रमानुसार ‘न’ पृथ्वी,’मः’पानी,’शि’अग्नि ,’वा’ प्राणवायु और ‘य’ आकाश को इंगित करता है। शिव के पंचाक्षर मंत्र से सृष्टि के पांचों तत्वों को नियंत्रित किया जा सकता है।

सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं

वेदों और पुराणों के अनुसार शिव अर्थात सृष्टि के सृजनकर्ता को प्रसन्न करने के लिए सिर्फ “ॐ नमः शिवाय” का जप ही काफी है। भोलेनाथ इस मंत्र से बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं एवं इस मंत्र के जप से आपके सभी दुःख, सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं और आप पर महाकाल की असीम कृपा बरसने लगती है। स्कन्दपुराण में कहा गया है कि-‘ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र जिसके मन में वास करता है, उसके लिए बहुत से मंत्र, तीर्थ, तप व यज्ञों की क्या जरूरत है। यह मंत्र मोक्ष प्रदाता है, पापों का नाश करता है और साधक को लौकिक, परलौकिक सुख देने वाला है।

कैसे जपें मंत्र

इस मंत्र का जाप हमें शिवालय, तीर्थ या घर में साफ, शांत व एकांत जगह बैठकर करना चाहिए। ॐ नमः शिवाय मंत्र का जाप कम से कम 108 बार हर दिन रुद्राक्ष की माला से करना चाहिए, क्योकि रुद्राक्ष भगवान  शिव को अति प्रिय है। जप हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। यदि आप पवित्र नदी के किनारे शिवलिंग की स्थापना और पूजन के बाद जप करेंगे तो उसका फल सबसे उत्तम प्राप्त होगा। शिव के ‘ॐ नम: शिवाय’ मंत्र का जाप किसी भी समय किया जाता है।  इसके उच्चारण से समस्त इंद्रियां जाग उठती हैं। इसके धार्मिक लाभ के अलावा ‘ॐ नम: शिवाय’ मंत्र स्वास्थ्य लाभ भी देता है।

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भगवान शिव की देन है सुदर्शन चक्र https://manimahesh.in/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%a8-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%a6%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b6%e0%a4%a8-%e0%a4%9a%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0/ Sat, 21 Jan 2023 17:17:45 +0000 https://manimahesh.in/?p=905 सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अस्त्र है। सुदर्शन चक्र एक दाँतेदार, नुकीले किनारों वाला एक गोलाकार ब्लेड जो भगवान विष्णु अपने हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं। भगवान शिव की कृपा के परिणामस्वरूप ही यह अद्भुत अस्त्र भगवान विष्णु को प्राप्त हुआ। एक समय की बात है जब राक्षसों ने देवताओं पर बहुत ही […]

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सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अस्त्र है। सुदर्शन चक्र एक दाँतेदार, नुकीले किनारों वाला एक गोलाकार ब्लेड जो भगवान विष्णु अपने हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं। भगवान शिव की कृपा के परिणामस्वरूप ही यह अद्भुत अस्त्र भगवान विष्णु को प्राप्त हुआ।

एक समय की बात है जब राक्षसों ने देवताओं पर बहुत ही अत्याचार किया और देवता दुखी हो कर भगवान विष्णु के पास अपने उद्धार के लिए गए। भगवान विष्णु ने कहा कि दैत्य बहुत शक्तिशाली हैं उन्हे यह काम करने के लिए किसी दिव्य अस्त्र की जरूरत पड़ेगी। इसलिए अगर उन्हें राक्षसों (असुरों) के बारे में कुछ करना है तो पहले उन्हे भगवान शिव की पूजा करनी होगी।

भगवान विष्णु कैलाश पर्वत पर गए और शिव की प्रार्थना करने के लिए उन्होंने कई मंत्र जप किए, लेकिन भगवान शिव का कहीं कोई नामों निशान नहीं था।
भगवान शिव के एक हजार नाम हैं और विष्णु भगवान ने इन नामों का जाप करना शुरू किया। एक-एक करके भगवान के मंत्रों को दोहराने के रूप में। वह प्रतिदिन एक हजार जप करते थे और भगवान शिव को एक हजार कमल के फूल चढ़ाते थे।

भगवान शिव ने भगवान विष्णु की परीक्षा लेने का निश्चय किया। एक दिन उन्होंने एक हजार में से एक कमल का फूल चुरा लिया जो कि उन्हें पेश किए जाने थे। जब भगवान विष्णु जी को पता चला कि एक कमल का फूल कम है तो उन्होंने अपनी आंख निकाल ली और लापता कमल के स्थान पर उसे अर्पित कर दिया। भगवान शिव यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए व वे भगवान विष्णु के सामने प्रकट हुए। उन्होंने भगवान विष्णु को एक वरदान देने की पेशकश की। भगवान विष्णु ने कहा, ‘आपको तो पता ही है कि शक्तिशाली दैत्य देवताओं पर अत्याचार कर रहे हैं। मुझे राक्षसों से लड़ने के लिए एक हथियार चाहिए। कृपया मुझे एक हथियार दें।’ तब भगवान शिव ने विष्णु भगवान को सुदर्शन चक्र दिया। इस अस्त्र से भगवान विष्णु ने राक्षसों को मार गिराया।

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भगवान शिव के एक हजार नाम https://manimahesh.in/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%b9%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%ae/ Sat, 21 Jan 2023 16:55:18 +0000 https://manimahesh.in/?p=903 भगवान विष्णु ने राक्षसों के संहार के लिए भगवान शिव की आराधना के लिए भगवान शिव के एक हजार नाम जप कर कमल के फूल चढ़ाए थे। भगवान शिव ने प्रसन्न हो कर उन्हे सुदर्शन चक्र प्रदान किया था। सुविधा के लिए आइए हम भगवान के इन हजार नामों की सूची बनाएं एक सौ समूहों […]

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भगवान विष्णु ने राक्षसों के संहार के लिए भगवान शिव की आराधना के लिए भगवान शिव के एक हजार नाम जप कर कमल के फूल चढ़ाए थे। भगवान शिव ने प्रसन्न हो कर उन्हे सुदर्शन चक्र प्रदान किया था।

सुविधा के लिए आइए हम भगवान के इन हजार नामों की सूची बनाएं

एक सौ समूहों में शिव, प्रत्येक समूह में दस नाम हैं।

(1) शिव, हर, मृदा, रुद्र, पुष्कर, पुष्पलोचन, अर्थिगम्य, सदाचार, शर्व, शंभु।
(2) महेश्वरा, चंद्रपीडा, चंद्रमौली, विश्व, विश्वमारेश्वर, वेदांतसारसंदोहा, कपाली, नीललोहिता, ध्यानधारा, अप्रीच्छेद्य।
(3) गौरीभारत, गणेशवर, अष्टमूर्ति, विश्वमूर्ति, त्रिवर्गवर्गसाधना, ज्ञानगम्य, द्रिदप्रज्ञ, देवदेव, त्रिलोचन, वामदेव
(4) मददेव, पातु, परिवृदा, द्रिदा, विश्वरूप, विरुपाक्ष, वागिशा, शुचिसत्तमा, सर्वप्रमानसम्वादी, वृशांक।
(5) वृषवाहन, ईशा, पिनाकी, खट्वांगा, चित्रवेश, चिरंतन, तमोहर, महायोगी, गोपता, ब्रह्मा।
(6) धूर्जति, कलाकला, कृतिवासः, सुभागा, प्रणवत्मक, उन्नाध्र, पुरुष, जुश्य, दुर्वासा, पुराशासन।
(7) दिव्यायुध, स्कंदगुरु, परमेष्ठी, परात्पर, अनादिमाध्यनिधान, गिरीश, गिरिजाधव, कुबेरबंधु, श्रीकनाथ, लोकवर्णोत्तम।
(8) मृदु, समाधिवेद्य, कोदंडी, नीलकंठ, पराश्वधि, विशालाक्ष, मृगव्याध, सुरेशा, सूर्यतापन, धर्मधाम।
(9) क्षमाक्षेत्र, भगवान, भगनेत्रभिदा, उग्र, पशुपति, तर्क्ष, प्रियभक्त, परंतप, दाता, दयाकर।
(10) दक्ष, कर्मंडी, कमशासन, शमशाननिलय, सुक्ष, शमशानस्थ, महेश्वरा, लोककर्ता, मृगपति, महाकर्ता।
(11) महौषधि, उत्तरा, गोपति, गोपता, ज्ञानगम्य, पुराण, नीति, सुनीति, शुद्धात्मा, सोम।
(12) सोमरता, सुखी, सोमपापा, अमृतपा, सौम्य, महतेजः, महाद्युति, तेजोमय, अमृतमय, अन्नमय।
(13) सुहापति, अजातशत्रु, आलोक, संभव, हव्यवाहन, लोककार, वेदकार, सूत्रकार, सनातन, महर्षि।
(14) कपिलाचार्य, विश्वदीप्ति, विलोचन, पिनाकपाणि, भूदेव, स्वस्तिदा, स्वस्तिकृत, सुधि, धात्रीधाम, धमकारा।
(15) सर्वगा, सर्वगोचार, ब्रह्मश्रीक, विश्वरिका, सर्ग, कर्णिकारा, प्रिया, कवि, शाखा, विशाखा।
(16) गोशाख, शिव, भीष्क, अनुत्तम, गंगाप्लवोदक, भाया, पुष्कल, स्थापति, स्थिर, विजितात्मा।
(17) विषयात्मा, भूतवाहन, सारथी, सगण, गणकया, सुकीर्ति, चिन्नासंशय, कामदेव, कामपाल, भस्मोधुलिता-विग्रह।
(18) भस्मप्रिया, भस्माश्यै, कामी, कांता, कृतगमा, समावर्त, निवृत्तात्मा, धर्मपुंज, सदाशिव, अकालमशा।
(19) चतुर्वाहु, दुर्वासा, दुरसादा, दुर्लभ, दुर्लभ, दुर्गम, दुर्गा, सर्वायुधविशारदा, अध्यात्मयोगनिलय सुतन्तु तन्तुवर्धन।
(20) शुभांग, लोकसारंग, जगदीश, जनार्दन, भस्मशुद्धिकरा, मेरु, ओजस्वी, शुद्धविग्रह, असाध्य, साधुसाध्य।
(21) भृत्यमार्कटरूपधिका, हिरण्यरेता, पूरण, रिपुजिवाहरा, बाला, महाह्रद, महागर्त, व्याली, सिद्धवृंदारवंदिता, व्याघ्रचर्मम्बरा।
(22) महाभूत, महानिधि, अमृतशा, अमृतवापु, पाञ्चजन्य, प्रभंजन, पंचविंशतितत्त्वस्थ, पारिजात, परा-वरा, सुलभ।
(23) सुव्रत, शूरा, ब्रह्मवेदनिधि, निधि, वर्णाश्रमगुरु, वर्णी, शत्रुजिता, शत्रुतापना, आश्रम, क्षमा।
(24) क्षमा, ज्ञानवान, अचलेश्वर, प्रमाणभूत, दुर्जनेय, सुपर्णा, वायुवाहन, धनुर्धारा, धनुर्वेद, गुणरशी।
(25) गुनाकारा, सत्यसत्यपरा, दीना, धर्मगा, आनंद, धर्मसाधना, अनंतदृष्टि, दंड, दमयिता, दम।
(26) अभिवाद्य, महामाया, विश्वकर्मा, विशारदा, वीतराग, विनीतात्मा, तपस्वी, भूतभवन, उन्मत्तवेश, प्रच्छन्न।
(27) जीतकाम, अजितप्रिया, कल्याणप्रकृति, कल्प, सर्वलोकप्रजापति, तारास्वी, तवक, धीमान, प्रधानप्रभु, अव्यय।
(28) लोकपाल, अन्तरहितात्मा, कल्पादि, कमललेखन, वेदशास्त्रार्थतत्वज्ञ, अनियामा, नियताश्रय, चंद्र, सूर्य, शनि।
(29) केतु, वरंगा, विद्रुमच्छवि, भक्तिवश्य, अनघा, परब्रह्ममृगवनारपना, आद्री, आद्रयालय, कांता, परमात्मा।
(30) जगद्गुरु, सर्वकर्मालय, तुष्ट, मंगल्य, मंगलवृत, महातप, दीर्घतप, स्थाविष्ठ, स्थविरा ध्रुव।
(31) अह, संवत्सर, व्याप्ति, प्रमाण, परमातप, संवत्सरकार, मंत्र-प्रत्यय, सर्वदर्शन, अज, सर्वेश्वर
(32) सिद्ध, महारेता, महाबल, योगी, योग्या, सिद्धि, महातेजा, सर्वदी, अग्रहा, वासु।
(33) वसुमना, सत्य, सर्वपपरा, सुकीर्ति, शोभन, श्रीमना, अवनमनसागोचार, अमृतशाश्वत, शांता, वनहस्ता।
(34) प्रतापवन, कमंडलंधरा, धन्वी, वेदांग, वेदविता, मुनि, भृजिष्णु, भोजन, भोक्ता, लोकानंत।
(35) दुरधारा, अतीन्द्रिय, महामाया, सर्ववास, चतुष्पथ, कालयोगी, महानदा, महोत्साह, महाबल, महाबुद्धि।
(36) महावीर्य, भूताचारी, पुरंदर, निशाचर, प्रेताचारी, महाशक्ति, महाद्युति, अहिर्देश्यवपु श्रीमना सर्वाचार्यमनोगति।
(37) वहुश्रुत, नियतात्मा, ध्रुव, ध्रुव, सर्वशाष्क, ओजस्तेजोद्युतिदार, नर्तक, नृत्यप्रिय, नृत्यनित्य, प्रकाशात्मा।
(38) प्रकाशका, स्पष्टाक्षरा, बुध, मंत्र, समाना, सरसम्प्लव, युगादिक्रीड़ा, युगवर्त, गंभीर, वृषवाहन।
(39) इष्ट, विशिष्ट, शिष्टेश, शलभ, शरभ, धनु, तीर्थरूपा, तीर्थनाम, तीर्थदृश्य, स्टुता।
(40) अर्थदा, अपामनिधि, अधिष्ठान, विजया, जयकलाविता, प्रतिष्ठाता, प्रमाणज्ञ, हिरण्यकवच, हरि, विमोचन।
(41) सुरगना, विद्याशा, विंदुसंश्रय, बालरूपा, विकार्ता, बालोनमत्ता, गहना, गुहा, करण, कर्ता।
(42) सर्वबन्धविमोचन, व्यवस्था, व्यवस्था, स्थानदा, जगददिजा, गुरुदा, ललिता, अभेदा, भावात्मासमस्थिता, वीरेश्वर।
(43) वीरभद्र, वीरसनाविधि, विराट, विरचुदामणि, वेट्टा, तिवरानंद, नादिधर, अजनाधारा, त्रिधुली, शिपविष्टा।
(44) शिवालय, बालखिल्य, महाचपा, तिग्मांशु, बधिरा, खागा, अधिरमा, सुशरण, सुब्रह्मण्य, सुधापति।
(45) मघवन, कौशिका, गोमन, विराम, सर्वसाधना, लालाताक्ष, विश्वदेह, सारा, संसारचक्रभृत, अमोघदंड।
(46) मध्यस्थ, हिरण्य, ब्रह्मवर्चसी, परमार्थ, परा, मयी, शम्बर, व्याघ्रलोचन, रुचि, विरंचि।
(47) स्वरबंधु, वाचस्पति, अहरपति, रवि, विरोचन, स्कंद, शास्ता, वैवस्वत, यम, युक्ति।
(48) उन्नतकीर्ति, सनुरगा, परांजय, कैलाशाधिपति, कांता, सविता, रविलोचन, विद्वत्तम, वितभय, विश्वभारत।
(49) अनिवारिता, नित्य, नियतकल्याण, पुण्यश्रवणकीर्तन, दुरश्रवा, विश्वसाह, ध्येय, दुःश्वप्नाशन, उत्तराना, दुष्कृति।
(50) विजनेय, दुःसह, भव, अनादि भूर्भुवक्शी, किरीति, रुचिरंगदा, जनाना, जनजनमादी, प्रीतिमान।
(51) नीतिमान, धव, वसिष्ठ, कश्यप, भानु, भीम, भीमपराक्रम, प्रणव, शतपथचार, महाकाश।
(52) महाघन, जन्माधिपा, महादेव, सकलगमपराग, तत्त्व, तत्त्ववित, एकात्म, विभु, विश्वविभूषण, ऋषि।
(53) ब्राह्मण, ऐश्वर्यजन्ममृत्युजरतिगा, पंचयज्ञसमुत्पत्ति, विश्वेश, विमलोदय, आत्मयोनि, अनद्यंत, वत्सल, भक्तलोकधिका, गायत्रीवल्लभ।
(54) प्रमशु, विश्ववास, प्रभाकर, शिशु, गिरिराहा, सम्राट, सुषेण, सुरशत्रुह, अमोघ, अरिष्टनेमि।
(55) कुमुदा, विगतज्वारा, स्वयंज्योति, तनुज्योति, अंचला, आत्मज्योति, पिंगला, कपिलशमश्रु भालनेत्र त्रयितानु।
(56) ज्ञानस्कन्दमहानिति, विश्वोतिपट्टी, उपप्लव, भाग, विवस्वाना, आदित्य, योगपरा, दिवास्पति, कल्याणगुणनाम, पापहा।
(57) पुण्यदर्शन, उदारकीर्ति, उद्योगी, सदयोगी, सदासनमय, नक्षत्रमाली, नकेशा, स्वाधिष्ठानपदश्रय, पवित्रा, पापहरी।
(58) मणिपुर, नभोगति, हृत, पुण्डरीकासीना, शत्रु, श्रान्त, वृषकपि, उष्णा, गृहपति, कृष्ण।
(59) परमार्थ, अनर्थनाशन, अधर्मशत्रु, अज्ञेय, पुरुहुता, पुरुषश्रुत, ब्रह्मगर्भ, वृहद्गर्भ, धर्मधेनु, धनागम।
(60) जगद्धितैषी, सुगत, कुमारा, कुशालगम, हिरण्यवर्ण, ज्योतिष्मना, नन्भूतरता, ध्वनि, अराग, नयन्द्याक्ष।
(61) विश्वामित्र, धनेश्वरा, ब्रह्मज्योति, वसुधाम, महाज्योतिनुत्तम, मातमह, मातरिश्व, नभस्वन, नागहरधिका, पुलस्त्य।
(62) पुलहा, अगस्त्य, जातुकर्ण्य, पराशर, निरावरणनिर्वरा, वैरांच्य, विष्टाश्रवा, आत्मभु, अनिरुद्ध, अत्रि।
(63) ज्ञानमूर्ति, महायशा, लोकविराग्रंति, वीरा, चंदा, सत्यपराक्रम, व्यालकपा, महाकल्प, कल्पवृक्ष, कालधारा,
(64) अलंकारिष्णु, अचला, रोचिष्णु, विक्रमोन्नता। अयुहशब्दपति, वेगी, प्लवाना, शिखिसरथी, असमशिष्ट, अतिथि।
(65) शत्रुप्रेममती, पदपासना, वसुश्रवा, प्रताप, हव्यवाह, विश्वभोजन, जपया, जरदीशमन, लोहितात्मा, तनुनपता।
(66) बृहदश्व, नभोयोनी, सुप्रतीका, तामिस्रहा, निदाघ, तपना, मेघ, स्वक्ष, परपुरंजय, सुखनील।
(67) सुनिष्पन्ना, सुरभि, शिशिरतमक, वसंत, माधव, ग्रीष्म, नभस्य, विजयवाहन, अंगिरा, गुरु।
(68) आत्रेय, विमला, विश्ववाहन, पवन, सुमति, विदवाना, त्रविद्या, नरवाहन, मनोबुद्धि, अहंकार।
(69) क्षेत्रज्ञ, क्षेत्रपालक, जमदग्नि, बलनिधि, विगला, विश्वगलव, अघोरा, अनुत्तर, यज्ञ, श्रेये।
(70) निष्श्रेयापथ, शैला, गगनकुंडभ, दानावरी, अरिंदमा, रजनीजनक, चारुविशाला, लोककल्पधृका, चतुर्वेद, चतुर्भव।
(71) चतुरा, चतुरप्रिया, अमलाया, समालय, तीर्थवेदशिवलय, वहुरूपा, महारूपा, सर्वरूपा, चराचर, यनिर्मयक।
(72) न्यायी, न्यायगम्य, निरंतर, सहस्रमूर्द्ध, देवेंद्र, सर्वशास्त्रप्रभंजन, मुंडा, विरूपा, विक्रांत, दंडी।
(73) दन्त, गुणोत्तम, पिंगलक्ष, जनाध्यक्ष, नीलग्रीव, निरामया, सहस्रवाहु, सर्वेशा, शरण्य, सर्वलोकधिका।
(74) पद्मासन, परमज्योति, परम्परा, परमफला, पद्मगर्भ, महागर्भ, विश्वगर्भ, विचाक्षाना, चराचरजना, वरद।
(75) वरेश, महाबाला, देवसुरगुरु, देव, देवासुरमहाश्रय, देवादिदेव, देवग्नि, देवग्निसुखदा, प्रभु, देवसुरेश्वर।
(76) दिव्या, देवसुरमहेश्वरा, देवदेवमय, अचिन्त्य, देवदेवतामसंभव, सद्योनि, असुरव्याघ्र, देवसिंह, दिवाकर, विबुधग्रवारा।
(77) श्रेष्ठ, सर्वदेवोत्तमोत्तम, शिवज्ञानरत, श्रीमना, शिखिश्रीपर्वतप्रिया, वज्रहस्ता, सिद्धखद्गी, नरसिम्हनिपटन, ब्रह्मचारी, लोकाचारी।
(78) धर्मचारी, धनाधिपा, नंदी, नंदीश्वर, अनंत, नागनव्रतधारा शुचि, लिंगाध्यक्ष, सुराध्यक्ष, योगाध्यक्ष।
(79) युगवाह, स्वधर्म, स्वर्गता, स्वर्गखरा, स्वरमयस्वाना, वनाध्यक्ष, विजकार्ता, धर्माकृत, धर्मसंभव, दंभ।
(80) अलोभा, अर्थवित, शंभु, सर्वभूतममहेश्वर, शमशाननिलय, त्रिक्षा, सेतु, अप्रतिमाकृति, लोकोत्तर-फुतालोक, त्र्यंबक।
(81) नागभूषण, अंधकरी, मखवेशी, विष्णुकंधारपटना, हिनादोष, अक्षयगुण दक्षरी पुष्दंतभित, धुरजति, खंडपराशु।
(82) सकला, निष्कल, अनघा, अकाल, सकलाधारा, पांडुराभ, मृदा, नट, पूर्ण, पुरायिता,
(83) पुण्य, सुकुमार, सुलोचना, समग्रप्रिय, अक्रूर, पुण्यकीर्ति, अनमय, मनोजव, तीर्थकर, जटिल।
(84) जीवितेश्वर, जीवितान्तकर, नित्य, वसुरेता, वसुप्रदा, सद्गति, सत्कृति, सिद्धि, सज्जति, कालाकण्टक।
(85) कालधारा, महाकाल, भूसत्यप्रयाण, लोकलावण्यकर्ता, लोकोत्तरसुखालय, चंद्रसंजीवन, शास्ता, लोकगुडा, महाधिप, लोकबंधु।
(86) लोकनाथ, कृतज्ञ, कृतिभूषण, अनपाय, अक्षरा, कांता, सर्वशस्त्रहद्वारा, तेजोमया, द्युतिधारा, लोकग्रन्ति।
(87) अनु, शुचिस्मिता, प्रसन्नात्मा, दुर्जय, दुरतिक्रमा, ज्योतिर्मय, जगन्नाथ, निराक्रा, जलेश्वर, तुंबवीना।
(88) महाकोप, विशोक, शोकानाशन, त्रिलोकापा, त्रिलोकेश, सर्वशुद्धि, अधोक्षजा, अव्यक्तलक्षण, देवा, व्यक्तव्यक्त।
(89) विशम्पति, वरशिला, वरगुण, सारमंधाना, माया, ब्रह्मा, विष्णु, प्रजापाल, हंस, हंसगति।
(90) वय, वेध, विधाता, धाता, श्रेष्ठ, हर्ता, चतुर्मुख, कैलासशिखरवासी, सर्ववासी, सदागति।
(91) हिरण्यगर्भ, द्रुहिना, भूतपा, भूपति, सदयोगी, योगवीत, योगी, वरद, ब्राह्मणप्रिया, देवप्रिया।
(92) देवनाथ, देवजना, देवचिंतक, विषाक्ष, विशालाक्ष, वृषदा, वृषवर्धन, निर्मम, निरहंकार, निर्मोहा।
(93) निरुपद्रव, दर्प, दर्पदा, द्रिप्ता, सर्वभूतपरिवर्तक, सहस्रजित, सहस्रार्चि, प्रभाव, स्निग्धप्रकृति, सहस्रार्ची, प्रभाव,
स्निग्धाप्रकृतिदक्षिणा, भूतभव्यभावनाथ।
(94) भूतिनाशना, अर्थ, अनर्थ, महाकोश, परकार्यकपंडिता, निशकंटक, कृतानंद, निर्व्याज, व्याजमर्दन, सत्ववान।
(95) सात्विका, सत्यकीर्ति, स्नेहाकृतगम, अकंपिता, गुणग्रही, नैकट्मा, नायककर्माकृत, सुप्रिता, सुमुख, सुक्षा।
(96) सुकारा, दक्षिणायला, नंदीस्कंधाधारा, धुर्य, प्राकट, पृतीवर्धन, अपराजिता, सर्वसत्व, गोविंदा, अधृता।
(97) सत्ववाहन, स्वधृत, सिद्ध, पुतामूर्ति, यशोधन, वराहभृंगधिका, भृंगी, बलवन, एकनायक, श्रुतिप्रकाश।
(98) श्रुतिमन, एकबंधु, अनेककृत, श्रीवत्सलशिवरंभ, शांताभद्र, साम, यशा, भूषणा, भूषणा, भूति।
(99) भूतकृत, भूतभवन, अकंप, भक्तिकाय, कलहा, नीललोहिता, सत्यव्रत, महात्यागी, नित्यशांतिपरायण, परार्थवृत्ति।
(100) विविक्षु, विशारद, शुभदा, शुभकर्ता, शुभनाम, शुभ, अनर्थिता, अगुना, साक्षी, अकर्त।

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भगवान शिव भी न बच पाए शनि देव की वक्र दृष्टि से https://manimahesh.in/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%ad%e0%a5%80-%e0%a4%a8-%e0%a4%ac%e0%a4%9a-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%8f-%e0%a4%b6%e0%a4%a8%e0%a4%bf-%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b5-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%a6%e0%a5%83%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a4%bf-%e0%a4%b8%e0%a5%87/ Fri, 06 Jan 2023 15:12:04 +0000 https://manimahesh.in/?p=877 एक बार स्वयं भगवान शिव भी शनि देव की वक्र दृष्टि के चपेट में आ गए थे और उनकी वक्र दृष्टि से बचने की कोशिश भी अंत मे नाकाम ही हुई। भगवान भोलेनाथ पर शनि देव की वक्र दृष्टि को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार एक बार शनि देव अपने आराध्य […]

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एक बार स्वयं भगवान शिव भी शनि देव की वक्र दृष्टि के चपेट में आ गए थे और उनकी वक्र दृष्टि से बचने की कोशिश भी अंत मे नाकाम ही हुई।

भगवान भोलेनाथ पर शनि देव की वक्र दृष्टि को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार एक बार शनि देव अपने आराध्य भोलेनाथ के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचे थे। उन्होंने भगवान भोले को प्रणाम कर पहले उनसे आशीर्वाद लिया फिर शनि देव ने भगवान शंकर को विनम्र भाव से बताया कि कल आपकी राशि में मेरी वक्र दृष्टि पड़ने वाली है। इस पर भगवान महादेव बहुत ही आश्चर्यचकित हुए।

भगवान शिव ने शनि देव से पूछा कि वह उनकी राशि में कितने समय के लिए रहेंगे और उनकी वक्र दृष्टि का प्रभाव कैसा होगा। शनि देव ने उन्हें विस्तार से अपनी वक्र दृष्टि के समय और प्रभाव के बारे में बताया। उन्होंने भगवान भोलेनाथ को बताया कि सवा प्रहर तक वक्र दृष्टि उनके ऊपर रहेगी। तब महादेव ने शनि देव की दृष्टि से बचने के लिए एक युक्ति लगाई और अगले दिन शनि देव के कैलाश पहुंचने से पहले ही वह पृथ्वी लोक पर आ गए।

इस दौरान उन्होंने सोचा कि अगर शनि देव उन्हे ढूंढते हुए धरती पर या गए तो वो उन्हे पहचान लेंगे। इसलिए भगवान शिव ने वक्र दृष्टि से बचने के लिए हाथी का रूप धरण कर लिया। सूर्यास्त के बाद जब वक्र दृष्टि का प्रहर बीत गया तो भगवान भोलेनाथ दोबारा अपने वास्तविक रूप में आ गए और प्रसन्न होकर कैलाश पर्वत पर लौट आए ।

जैसे ही भगवान शिव कैलाश पर आए उन्हें वहां शनि देव पूर्व से ही उपस्थित मिले। उन्होंने शनि देव को देखते ही उनकी दृष्टि से बचने की बात कह डाली। उन्होंने बोला कि शनिदेव आपकी वक्र दृष्टि का असर मुझ पर नहीं हो पाया और मैं तो बहुत आसानी से इस से बच गया।

यह सुनकर शनि देव ने हाथ जोड़कर भगवान भोलेनाथ से कहा कि प्रभु क्षमा करें लेकिन मेरे वक्र दृष्टि के कारण ही आपको कैलाश पर्वत छोड़कर धरती पर जाना पद और अपना दिव्य रूप छोड़कर कर एक पशु रूप धारण करना पड़ा।

यह सुनकर भगवान शिव मुस्कुरा दिए और अपने शिष्य शनि देव की न्यायप्रियता को देखकर काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने शनि देव को ह्रदय से लगाया और आशीर्वाद दिया।

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शिव पुराण में है हर समस्या का समाधान https://manimahesh.in/%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a3-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%b9%e0%a4%b0-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%a8/ Sun, 01 Jan 2023 02:09:05 +0000 https://manimahesh.in/?p=817 शिव पुराण में उन्नति और मुक्ति का मार्ग बताया गया है। इसमें भोलेनाथ के अवतार और महीमा का वर्णन मिलता है। आइए जानते हैं शिव पुराण की वह अनमोल बातें जो मनुष्य के सुख-समृद्धि का राज हैं।

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शिव पुराण में उन्नति और मुक्ति का मार्ग बताया गया है। इसमें भोलेनाथ के अवतार और महीमा का वर्णन मिलता है। आइए जानते हैं शिव पुराण की वह अनमोल बातें जो मनुष्य के सुख-समृद्धि का राज हैं।

  • मोह का त्याग – जब देवी सती ने अग्नि कुंड में प्राण त्याग दिए थे तो शिव उनकी देह लेकर पृथ्वी पर भटकने लगे, इस दौरान त्राही-त्राही मच गई थी। विष्णु जी ने सती के पार्थिव शरीर को छिन्न-भिन्न कर शिव का मोह तोड़ा था। शिव पुराण कहती है कि संसार में किसी भी वस्यु या लोगों से लगाव मानव को दुख और असफलता की ओर ले जाता है।
  • तप – शिव पुराण के अनुसार तपस्या ही लक्ष्य प्राप्ति का उपाय है। देवी पार्वती ने शिव को पाने के लिए सालों तपस्या की। उनके इरादे इतने मजबूत थे की वह अपने जगह से टस से मस नहीं हुईं। लक्ष्य के प्रति लगन और इरादे अडिग हों तो कोई भी बाधा या लालच आपको हरा नहीं सकता।
  • क्रोध का त्याग – शिव पुराण के अनुसार भोलेनाथ को खुश करना है तो अहंकार और क्रोध का त्याग करना होगा। ये दोनों सफलता की राह में बड़ी बाधा है। गुस्से से विवेक नष्ट हो जाता है और काम बिगड़ जातें हैं
  • धन का उपयोग – धर्म को हमेशा धन से ऊपर रखना चाहिए। शिव पुराण के अनुसार उचित तरीके से की गई कमाई को हमेशा तीन भागों में बांटना चाहिए। एक निवेश, दूसरा धन उपभोग, तीसरा धर्म के कार्य में व्यय करें। इस तरह पैसों के इस्तेमाल से जीवन सुखी और सफल बनता है।
  • प्रदोषकाल – शिव पुराण के अनुसार प्रदोष काल शिव की पूजा का उत्तम समय माना गया है। वहीं शमशान को शिव का निवास माना जाता है। कहते हैं सुबह और शाम के समय कभी कटु वचन नहीं बोलने चाहिए। न ही किसी के प्रति मन में बुरे विचार लाएं। ऐसा करना पाप का भागी बनाता है।
  • सम्मान – शिव पुराण के अनुसार गुरु और बड़ों का आदर करने वाला उत्तम स्थान पाता है। गुरु के बिना शिष्य का बेड़ा पार नहीं हो सकता और बड़ों के आशीष से तरक्की के मार्ग खुल जाते हैं। वहीं स्वंय के सम्मान से भी कभी समझौता न करें। मान-सम्मान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम दूसरों को सम्मान देना चाहिए।

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क्यों भगवान शिव ने शुक्राचार्य को निगल लिया? https://manimahesh.in/%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9a%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%97%e0%a4%b2-%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be/ Sat, 31 Dec 2022 06:44:08 +0000 https://manimahesh.in/?p=816 पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार भगवान शिव ने क्रोधित हो के शुक्राचार्य को निगल लिया था और माता पार्वती ने ही बचाई थी शुक्राचार्य की जान । शुक्राचार्य ने किसी प्रकार छल-कपट से एक बार कुबेर की सारी संपत्ति का अपहरण किया। कुबेर को जब इस बात का पता चला, तब उन्होंने शिव जी […]

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पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार भगवान शिव ने क्रोधित हो के शुक्राचार्य को निगल लिया था और माता पार्वती ने ही बचाई थी शुक्राचार्य की जान ।

शुक्राचार्य ने किसी प्रकार छल-कपट से एक बार कुबेर की सारी संपत्ति का अपहरण किया। कुबेर को जब इस बात का पता चला, तब उन्होंने शिव जी से शुक्राचार्य की करनी की शिकायत की।


शुक्राचार्य को इस बात का पता चला कि उनके खिलाफ भगवान शिव जी तक शिकायत पहुंच गई है तो वे बहुत घबरा गए और शिव जी के गुस्से से बचने के लिए झाड़ियों में जा छिपे। आखिर वे इस तरह शिव जी की आंख बचाकर कितने दिन छिप सकते थे।

एक बार जब वे शिव भगवान के सामने या गए तो शुक्राचार्य को देखते ही उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़कर निगल डाला। शिव जी की देह में शुक्राचार्य का दम घुटने लगा। शिव जी का क्रोध शांत नहीं हुआ और वे बाहर निकलने की कोशिश करने लगे। लेकिन भगवान शिव ने क्रोध मे आकर अपने शरीर के सभी द्वार बंद कर दिए ।

यह देख शुक्राचार्य ने भगवान शिव के उदर मे जाकर भगवान शंकर की स्तुति शुरू कर दी। भगवान शिव ने हंस कर कहा कि क्योंकि तुम मेरे उदर मे हो तो मेरे पुत्र समान हो गए। तुम मेरे शिश्न से बाहर निकल आओ। अंत में शुक्राचार्य मूत्र द्वार से बाहर निकल आए। इस कारण शुक्राचार्य पार्वती परमेश्वर के पुत्र समान हो गए।

शुक्राचार्य को बाहर निकले देख शिव जी का क्रोध पुन: भड़क उठा। वे शुक्राचार्य की कुछ हानि करें, इस बीच पार्वती ने परमेश्वर से निवेदन किया, यह तो हमारे पुत्र समान हो गया है। इसलिए इस पर आप क्रोध मत कीजिए।
यह तो दया का पात्र है। पार्वती की अभ्यर्थना पर शिव जी ने शुक्राचार्य को अधिक तेजस्वी बनाया। अब शुक्राचार्य भय से निरापद हो गए थे।


शुक्राचार्य ने प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती के साथ विवाह किया। शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्रों का नाम शंद और अमर्क था। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे।।

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बृहस्पति देव ने शिव स्तुति गाकर की इंद्र के प्राण की रक्षा https://manimahesh.in/%e0%a4%ac%e0%a5%83%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%aa%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b5-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a5%81%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%95%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%87%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a3-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%be/ Sat, 31 Dec 2022 06:19:40 +0000 https://manimahesh.in/?p=814 एक बार भगवान शिव इंद्र देव से बहुत ही ज्यादा क्रोधित हो गए थे, तब बृहस्पति देव ने शिव स्तुति गाकर इंद्र के प्राण की रक्षा की थी। एक बार इंद्र देव और गुरु बृहस्पति भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत जा रहे थे। तभी शिवजी ने दोनों की परीक्षा लेनी चाही। शिवजी […]

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एक बार भगवान शिव इंद्र देव से बहुत ही ज्यादा क्रोधित हो गए थे, तब बृहस्पति देव ने शिव स्तुति गाकर इंद्र के प्राण की रक्षा की थी।

एक बार इंद्र देव और गुरु बृहस्पति भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत जा रहे थे। तभी शिवजी ने दोनों की परीक्षा लेनी चाही। शिवजी भेष बदलकर अवधूत बन गए। इस रूप में शिवजी बहुत भयावह लग रहे थे। शिवजी इंद्र और बृहस्पति के मार्ग में खड़े हो गए। अवधूत को देखकर इंद्र और बृहस्पति हैरान हुए।

इंद्र को देवराज होने पर अत्यंत घमंड था। इसलिए उन्होंने अहंकार और क्रोध में शिवजी से पूछा, ‘तुम कौन? क्या महादेव अभी कैलाश पर्वत पर निवास कर रहे हैं, हम उनसे मिलने आए हैं। ’ इंद्र की बात सुनकर भी शिवजी चुपचाप खड़े रहे। इस तरह से इंद्र को और अधिक गुस्सा आ गया। उन्हें लगा एक साधारण अवधूत द्वारा देवराज का अपमान हो रहा है। इससे इंद्र बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने अवधूत से कहा कि, मेरे बार-बार पूछने पर भी तुमने कुछ न कहकर मेरा बहुत अपमान किया है, इसके लिए तुम्हें दंड दिया जाएगा और इंद्र ने अवधूत पर प्रहार करने के लिए अपना व्रज उठा लिया।

इधर भगवान शिव के शरीर पर धधकती ज्वाला और चेहरे पर क्रोध देख बृहस्पति समझ गए कि ऐसा प्रचंड रूप केवल महादेव का ही हो सकता है। शिवजी के इस विकराल रूप और क्रोध से इंद्र का विनाश न हो जाए, इसलिए बृहस्पति शिवजी के क्रोध को कम करने से लिए शिव स्तुति गाने लगे। इतना ही नहीं बृहस्पति ने इंद्र को महादेव के चरणों में लेटा दिया, जिससे इंद्र के प्राणों की रक्षा हो सके।

लेकिन महादेव क्रोध में थे और मस्तिष्क से अब भी ज्वाला निकल रही थी। तब बृहस्पति ने कहा, हे महादेव! इंद्र आपके चरणों में हैं। अब आप अपने माथे से निकलने वाली इस ज्वाला को कहीं और स्थान दीजिए और इंद्र के प्राण की रक्षा कीजिए।

शिवजी की तीसरी नेत्र ने निकलने वाली ज्वाला इतनी तीव्र थी इसे न जीव और न देवता सहन कर सकते थे। तब शिव ने इस तेज को एक समुंद्र में फेंक दिया। ज्वाला को समुंद्र में फेंकते ही एक बालक की उत्पत्ति हुई। शिवजी के तेज से जन्म लेने के कारण इस बालक का नाम शिवपुत्र जालंधर पड़ा। भगवान ब्रह्मा द्वारा ही जालंधर का नामकरण किया गया।

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