पार्वती की तपस्या – इक्कीसवां अध्याय

्रह्माजी बोले ;- हे देवर्षि नारद! जब तुम पंचाक्षर मंत्र का उपदेश देकर उनके घर से चले आए तो देवी पार्वती मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं क्योंकि उन्हें महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करने का साधन मिला गया था। वे जान गई थीं कि त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को सिर्फ उनकी तपस्या करके ही जीता जा सकता है। तब मन ही मन तपस्या करने का निश्चय करके पार्वती अपने पिता हिमराज और माता मैना से बोलीं कि मैं शिवजी की तपस्या करना चाहती हूं। तप के द्वारा ही मेरे शरीर, स्वरूप, जन्म एवं वंश आदि की कृतकृत्यता होगी। इसलिए आप मुझे तप करने की आज्ञा प्रदान करें। उनकी तप करने की बात सुनकर पिता हिमालय ने सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी परंतु माता मैना ने उन्हें घर से दूर वनों में जाकर तपस्या करने से रोका। पार्वती को रोकते हुए मैना के मुंह से ‘उ’ ‘मा’ शब्द निकले तभी से उनका नाम ‘उमा’ हो गया। पार्वती के हठ के सामने मैना कुछ न कर सकीं। तब खुशी से उन्होंने पार्वती को तपस्या करने की आज्ञा प्रदान कर दी। तत्पश्चात माता-पिता की आज्ञा पाकर देवी पार्वती खुशी से मन में शिवजी का स्मरण करते हुए अपनी सखियों को साथ लेकर तपस्या करने के लिए चली गई। रास्ते में पार्वती ने सुंदर वस्त्रों को त्याग दिया तथा वल्कल और मृग चर्म को धारण कर लिया। उत्तम वस्त्रों का त्याग करने के उपरांत देवी गंगोत्री नामक तीर्थ की ओर चल दीं।

जिस स्थान पर भगवान शंकर ने घोर तपस्या की थी और जहां शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया था, वह स्थान गंगावतरण तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। वहीं पर देवी पार्वती ने तप करने का निश्चय किया। गौरी के यहां तपस्या करने से ही यह पर्वत ‘गौरी शिखर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। उस स्थान पर पार्वती ने अनेक फलों के वृक्ष लगाए । तत्पश्चात पृथ्वी को शुद्ध करके वेदी बनाकर अपनी इंद्रियों को वश में करके मन को एकाग्र कर कठिन तपस्या करनी आरंभ कर दी। ऐसी तपस्या ऋषि-मुनियों के लिए भी दुष्कर थी। भयंकर गरमी के दिनों में पार्वती अपने चारों ओर अग्नि जलाकर बीच में बैठकर ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करती थीं। वर्षा ऋतु में वे किसी चट्टान पर अथवा वेदी पर बैठकर निरंतर जलधारा से भीगती हुई शांत भाव से मंत्र जपती रहती थीं। सर्दियों में बिना कुछ खाए ठंडे जल में बैठकर पंचाक्षर मंत्र का जाप करती थीं। कभी-कभी तो वे पूरी रात बर्फ की चट्टान पर बैठकर ध्यान करती थीं। सबकुछ भूलकर वे भगवान शिव के ध्यान में मग्न होकर उनका ध्यान करती रहती थीं। समय मिलने पर अपने द्वारा लगाए गए वृक्षों को पानी देती थीं। शुद्ध हृदय वाली पार्वती आंधी-तूफान, कड़ाके की सर्दी, मूसलाधार वर्षा तथा तेज धूप की परवाह किए बगैर निरंतर मनोवांछित फलों के दाता भगवान शिव का ध्यान करती रहती थीं। उन पर अनेक प्रकार के कष्ट आए परंतु उनका मन शिवजी के चरणों में ही लगा रहा।

तपस्या के पहले वर्ष में उन्होंने केवल फलाहार किया। दूसरे वर्ष में वे केवल पेड़ के पत्तों को ही खाती थीं। इस प्रकार तपस्या करते-करते अनेकानेक वर्ष बीतते गए। देवी पार्वती ने सबकुछ खाना-पीना छोड़ दिया था। अब वे केवल निराहार रहकर ही शिवजी की आराधना करती थीं। तब भोजन हेतु पर्ण का भी त्याग कर देने के कारण देवताओं ने उन्हें ‘अपर्णा’ नाम दिया। तत्पश्चात देवी पार्वती एक पैर पर खड़ी होकर ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करने लगीं। उनके शरीर पर वल्कल वस्त्र थे तथा मस्तक पर जटाएं थीं। इस प्रकार उस तपोवन में भगवान शिव की तपस्या करते-करते तीन हजार वर्ष बीत गए।

तीन हजार वर्ष बीत जाने पर देवी पार्वती को चिंता सताने लगी। वे सोचने लगीं कि क्या इस समय महादेव जी यह नहीं जानते कि मैं उनके लिए ही तपस्या कर रही हूं? फिर क्या कारण है कि वे मेरे पास अभी तक नहीं आए। वेदों की महिमा तो यही कहती है कि भगवान शंकर सर्वज्ञ, सर्वात्मा, सबकुछ जानने वाले, सभी ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाले, सबके मन की बातों को सुनने वाले, मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाले तथा समस्त दुखों को दूर करने वाले हैं। तब क्यों वे अपनी कृपादृष्टि से मुझ दीन को कृतार्थ नहीं करते? मैंने अपनी सभी इच्छाओं और कामनाओं को त्यागकर अपना ध्यान भगवान शिव में लगाया है। भगवन् यदि मैंने पंचाक्षर मंत्र का भक्तिपूर्वक जाप किया हो तो महादेवजी आप मुझ पर प्रसन्न हों।

इस प्रकार हर समय पार्वती शिवजी के चरणों के ध्यान में ही मग्न रहती थीं। जगदंबा मां का साक्षात अवतार देवी पार्वती की वह तपस्या परम आश्चर्यजनक थी। उनकी तपस्या सभी को मुग्ध कर देने वाली थी। उनके तप की महिमा के फलस्वरूप प्राणी और जानवर उनके ध्यान में बाधा नहीं बनते थे। उनकी तपस्या के परिणामस्वरूप वहां का वातावरण बड़ा मनोरम हो गया था। वृक्ष सदा फलों से लदे रहते थे। विभिन्न प्रकार के सुंदर सुगंधित फूल हर समय वहां खिले रहते थे। वह स्थान कैलाश पर्वत की सी शोभा पा रहा था तथा पार्वती की • तपस्या की सिद्धि का साकार रूप बन गया था।

पार्वती जी की अद्भुत तपस्या और शिव को प्रसन्न करने का संकल्प

ब्रह्माजी ने नारद जी को बताया कि जब देवी पार्वती को पंचाक्षर मंत्र का उपदेश मिला, तो वे अत्यंत प्रसन्न हुईं। उन्होंने समझ लिया कि भगवान शिव को केवल तपस्या के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह निश्चय करके उन्होंने अपने माता-पिता हिमालय और मैना से तपस्या करने की अनुमति मांगी।

माता मैना का विरोध और पार्वती का दृढ़ निश्चय

पार्वती के तपस्या के संकल्प को सुनकर हिमालय ने सहर्ष अनुमति दे दी, लेकिन मैना ने उन्हें वनों में जाकर कठोर तपस्या करने से रोका। इस विरोध के दौरान मैना के मुख से ‘उ’ और ‘मा’ शब्द निकले, जिससे पार्वती का नाम ‘उमा’ पड़ गया। हालांकि, पार्वती के दृढ़ निश्चय के सामने मैना को झुकना पड़ा, और उन्होंने भी उन्हें तपस्या की अनुमति दे दी।

तपस्या का प्रारंभ

माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर देवी पार्वती ने अपने सुंदर वस्त्र त्याग दिए और वल्कल व मृगचर्म धारण कर लिया। शिवजी का ध्यान करते हुए वे अपनी सखियों के साथ गंगोत्री तीर्थ पहुंचीं। वहां उन्होंने उस स्थान को चुना, जहां भगवान शंकर ने पूर्व में तपस्या की थी और कामदेव को भस्म किया था।

कठिन तपस्या का वर्णन

गंगोत्री तीर्थ में पार्वती ने अत्यंत कठिन तपस्या प्रारंभ की।

  • गर्मी के दिनों में वे अग्नि के बीच बैठकर तप करती थीं।
  • वर्षा ऋतु में खुले आकाश के नीचे जलधारा से भीगते हुए साधना करती थीं।
  • सर्दियों में वे ठंडे जल में खड़ी होकर मंत्र जपतीं और कभी-कभी बर्फ पर बैठकर ध्यान करती थीं।
  • अपनी तपस्या के दौरान उन्होंने एक-एक करके भोजन का त्याग कर दिया। पहले केवल फल, फिर पत्ते और अंत में निराहार रहकर ही साधना की।

देवताओं ने उन्हें ‘अपर्णा’ नाम दिया, क्योंकि उन्होंने पत्तों का भी त्याग कर दिया था।

तीन हज़ार वर्षों की तपस्या

पार्वती ने एक पैर पर खड़े होकर तीन हज़ार वर्षों तक ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जाप किया। इस बीच वे सोचने लगीं कि क्या शिवजी उनकी तपस्या से प्रसन्न नहीं हुए हैं। उन्होंने भगवान शिव को स्मरण करते हुए कहा, “हे महादेव! आप सर्वज्ञ और सबके मन की बात जानने वाले हैं। यदि मेरी तपस्या और मंत्र जाप में भक्ति है, तो कृपया मुझ पर प्रसन्न हों।”

तपस्या का प्रभाव

पार्वती जी की तपस्या इतनी अद्भुत थी कि उसका प्रभाव चारों ओर दिखने लगा।

  • वन्य जीव उनके ध्यान में बाधा नहीं डालते थे।
  • वृक्ष सदा फलों से लदे रहते और सुगंधित फूल खिले रहते।
  • तपस्या स्थल की शोभा कैलाश पर्वत जैसी हो गई।

निष्कर्ष

देवी पार्वती की तपस्या उनकी अदम्य भक्ति और अटूट संकल्प का प्रतीक थी। उनकी साधना ने न केवल उस स्थान को पवित्र बना दिया, बल्कि उनकी तपस्या की महिमा से तीनों लोक प्रभावित हो गए। उनकी भक्ति और तपस्या से प्रेरित होकर भगवान शिव को शीघ्र ही प्रसन्न होना था।