पार्वती – शिव का दार्शनिक संवाद – तेरहवां अध्याय

भगवान शंकर के वचन सुनकर पार्वती जी बोलीं ;- योगीराज ! आपने जो कुछ भी मेरे पिताश्री गिरिराज हिमालय से कहा उसका उत्तर मैं देती हूं। अंतर्यामी । आपने महान तप करने का निश्चय किया है। ऐसा करने का निश्चय आपने शक्ति के कारण ही लिया है। सभी कर्मों को करने की यह शक्ति ही प्रकृति है। प्रकृति ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार करती है। प्रभु! आप थोड़ा विचार करें, प्रकृति क्या है? और आप कौन हैं? यदि प्रकृति न हो तो शरीर तथा स्वरूप किस प्रकार हों? आप सदा प्राणियों के लिए वंदनीय और चिंतनीय हैं। यह सब प्रकृति के ही कारण है।

पार्वती जी के वचनों को सुनकर उत्तम लीला करने वाले भगवान शिव हंसते हुए बोले- मैं अपने कठोर तप द्वारा प्रकृति का नाश कर चुका हूं। अब मैं तत्व रूप में स्थित हूं। साधु पुरुषों को प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिए। भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को सुनकर

पार्वती हंसती हुई बोलीं ;- हे करुणानिधान! कल्याणकारी योगीराज ! आपने जो कहा, क्या वह प्रकृति नहीं है, तो फिर आप उससे अलग कैसे हो सकते हैं? बोलना या कुछ भी करना अर्थात हमारे द्वारा किया गया हर क्रियाकलाप ही प्रकृति है। हम सदा ही प्रकृति के ही वश में हैं। यदि आप प्रकृति से अलग हैं तो न आपको बोलना चाहिए और न ही कुछ और करना चाहिए क्योंकि ये कार्य तो प्रकृति के हैं अर्थात प्राकृत हैं। भगवन्! आप हंसते, सुनते, खाते देखते और करते हैं वह सब भी तो प्रकृति का ही कार्य है। इसलिए व्यर्थ के वाद-विवाद से कोई लाभ नहीं है। यदि आप वाकई प्रकृति से अलग हैं तो इस समय यहां तपस्या क्यों कर रहे हैं? सच तो यह है कि आप प्रकृति के वश में हैं और इस समय अपने स्वरूप को खोजने के लिए ही तपस्या में लीन रहना चाहते हैं। योगीराज ! आप किस प्रकार की बात कर रहे हैं, थोड़ा विचार कर कहें। यदि आपने प्रकृति का नाश कर डाला है तो आप किस प्रकार विद्यमान रहेंगे, क्योंकि संसार तो सदा से ही प्रकृति से बंधा हुआ है। क्या आप प्रकृति का यह तत्व नहीं जान रहे हैं कि मैं ही प्रकृति हूं। आप पुरुष हैं। यह पूर्णतया सच है । मेरे ही कारण आप सगुण और साकार माने जाते हैं। भगवन्, आप जितेंद्रिय होने पर भी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करते हैं। हे महादेव! यदि आप यही मानते हैं कि आप प्रकृति से अलग हैं तो आपको मेरी किसी भी सेवा से और किसी भी प्रकार से डरना नहीं चाहिए।

पार्वती के मुख से निकले सांख्य-शास्त्र में डूबे हुए वचन सुनकर भगवान शिव निरुत्तर हो गए। तब उन्होंने पार्वती जी को अपने दर्शन और सेवा करने की आज्ञा प्रसन्नतापूर्वक प्रदान कर दी। तत्पश्चात भगवान शिव पर्वतराज हिमालय से बोले – हे गिरिराज हिमालय! मैं तुम्हारे इस शिखर पर तपस्या करना चाहता हूं। कृपया मुझे इसकी आज्ञा प्रदान करें । देवाधिदेव भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को सुनकर गिरिराज हिमालय दोनों हाथ जोड़कर बोले – हे महादेव! यह पूरा संसार आपका ही है। सभी देवता, असुर और मनुष्य सदैव आपका ही पूजन और चिंतन करते हैं। मैं आपके सामने एक तुच्छ मनुष्य हूं, भला मैं आपको किस प्रकार आज्ञा दे सकता हूं? प्रभु! यह आपकी इच्छा है, आप जब तक यहां निवास करना चाहें, कर सकते हैं। गिरिराज के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव मुस्कुराने लगे और आदरपूर्वक हिमालय से बोले- अब आप जाइए। अब हमारी तप करने की इच्छा है। तुम्हारी कन्या नित्य आकर मेरे दर्शन कर सकती है और मेरी सेवा करने की भी मैं उसे आज्ञा देता हूं।

लोक कल्याणकारी भगवान शिव के इन उत्तम वचनों को सुनकर हिमालय और पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नमस्कार किया और अपने घर लौट गए। उसी दिन से पार्वती जी प्रतिदिन भगवान शिव के दर्शनों के लिए वहां आतीं। उस समय उनके साथ उनकी दो सखियां भी वहां जातीं और भक्तिपूर्वक शिवजी की सेवा करती । वे महादेव के चरणों को धोकर उस चरणामृत को पीती थीं। तत्पश्चात उनके चरणों को पोंछतीं। फिर उनका षोडशोपचार अर्थात सोलह उपचारों से विधिवत पूजन करने के पश्चात अपने घर वापस लौट आतीं। इस प्रकार प्रतिदिन शिवजी का पूजन करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया। कभी- कभी पार्वतीजी अपनी सखियों के साथ वहां भक्तिपूर्वक उनके भजनों को भी गाती थीं। एक दिन सदाशिव ने पार्वती जी को इस प्रकार अपनी सेवा में तत्पर देखकर विचार किया कि जब इनके हृदय में उपजे अभिमान के बीज के अंकुर का नाश हो जाएगा, तभी मैं इनका पाणिग्रहण करूंगा।

ऐसा सोचकर लीलाधारी भगवान शिव पुनः ध्यान में मग्न हो गए। तब उनका मन चिंतामुक्त हो गया। तब देवी पार्वती भगवान शिव के रूप का चिंतन करती हुई भक्तिभाव से उनकी सेवा करती रहतीं। भगवान शंकर भी शुद्ध भाव से पार्वती को प्रतिदिन दर्शन देते थे।

इसी बीच इंद्र और अन्य देवता व मुनि ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी की आज्ञा से कामदेव हिमालय पर्वत पर गए। सभी देवताओं के कार्य की सिद्धि हेतु काम की प्रेरणा से वे पार्वती – शिव का संयोग कराना चाहते थे। इसका कारण यह था कि महापराक्रमी तारकासुर ने ऋषि-मुनियों और देवताओं की नाक में दम कर रखा था। उसका वध करने के लिए उन्हें भगवान शिव जैसे महापराक्रमी और बलवान पुत्र की आवश्यकता थी ।

कामदेव ने हिमालय के शिखर पर पहुंचकर अनेक यत्न किए परंतु भगवान शिव काम की माया से मोहित न हो सके। उन्होंने क्रोध से कामदेव को भस्म कर दिया। अब शक्ति में ही सामर्थ्य थी कि शिव को मोहित कर वे देवताओं की इच्छा को साकार करतीं। इसीलिए काम के अनंग होने के बाद जनकल्याण के लिए तथा अपने व्रत को पूरा करने के लिए पार्वती ने मन ही मन शिवजी को पति रूप में पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। कठोर तपस्या करके देवी पार्वती ने शिवजी के हृदय को जीत लिया। तब वे दोनों अत्यंत प्रेम से प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे और उन्होंने देवताओं के महान कार्य को सिद्ध किया।

पार्वती जी का तात्त्विक संवाद और भगवान शिव की तपस्या

पार्वती जी ने भगवान शिव से कहा, “योगीराज, आपने जो कुछ भी मेरे पिताश्री गिरिराज हिमालय से कहा, उसका उत्तर मैं देती हूं। आपने महान तप करने का निश्चय किया है, और यह शक्ति ही प्रकृति है। प्रकृति के बिना शरीर और स्वरूप का अस्तित्व नहीं हो सकता। प्रभु, आप स्वयं प्रकृति का हिस्सा हैं, और बिना इसके, आप कुछ भी नहीं कर सकते। आप जो कुछ भी करते हैं, वह प्रकृति के द्वारा होता है। यदि आप सच में प्रकृति से अलग हैं, तो तपस्या क्यों कर रहे हैं? क्या आप प्रकृति से बाहर हैं तो अपने कृत्यों से अलग कैसे हो सकते हैं?”

पार्वती जी के तात्त्विक वचनों को सुनकर भगवान शिव हंसते हुए बोले, “मैं अपनी तपस्या से प्रकृति का नाश कर चुका हूं और अब मैं केवल तत्वरूप में स्थित हूं। साधु पुरुषों को प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिए।”

पार्वती जी ने फिर अपनी तात्त्विक दृष्टि से भगवान शिव को उत्तर दिया, “यदि आप कहते हैं कि आप प्रकृति से अलग हैं तो आपको न बोलना चाहिए, न देखना चाहिए, न कुछ करना चाहिए क्योंकि ये सभी कार्य प्रकृति के हैं। आप न चाहते हुए भी इन्हें करते हैं। भगवान, आप प्रकृति के हिस्से हैं और प्रकृति का यह तत्व ही आपको साकार रूप में देखता है। आप जितेंद्रिय होने पर भी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करते हैं।”

भगवान शिव ने पार्वती जी के शब्दों को ध्यानपूर्वक सुना और उनके तात्त्विक ज्ञान का सम्मान करते हुए उन्हें दर्शन और सेवा का अवसर देने का निर्णय लिया। शिवजी ने गिरिराज हिमालय से कहा, “मैं आपके शिखर पर तपस्या करना चाहता हूं, कृपया मुझे इसकी अनुमति दें।”

गिरिराज हिमालय ने भगवान शिव के वचनों को स्वीकार करते हुए कहा, “हे महादेव! यह सारा संसार आपका ही है, आप जहां चाहें वहां निवास कर सकते हैं।”

भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब आप जाइए, अब हम तपस्या में लीन होना चाहते हैं। आपकी कन्या नित्य मेरे दर्शन कर सकती है और मेरी सेवा करने की अनुमति मैं उसे देता हूं।”

पार्वती जी की भक्ति और तपस्या

पार्वती जी हर दिन भगवान शिव के दर्शन करने आतीं, अपनी सखियों के साथ उनकी सेवा करतीं और शिवजी के चरणामृत का पान करतीं। वे विधिपूर्वक शिवजी का पूजन करतीं और समय-समय पर उनके भजनों का गायन भी करतीं। भगवान शिव ने देखा कि पार्वती जी की भक्ति और निष्ठा में कोई अभिमान नहीं था, तभी उन्होंने उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार करने का निर्णय लिया।

कामदेव का प्रयास और पार्वती जी का तप

इसी बीच, देवताओं के आदेश पर कामदेव पार्वती और भगवान शिव के संयोग के लिए प्रयास करने आए। उनका उद्देश्य था कि देवताओं को तारकासुर के वध के लिए महाशक्ति की आवश्यकता थी, और भगवान शिव का पुत्र ही इस कार्य में सक्षम हो सकता था। लेकिन भगवान शिव ने कामदेव की माया को नकारते हुए उन्हें भस्म कर दिया।

इसके बाद, देवी पार्वती ने मन ही मन भगवान शिव को अपने पति रूप में पाने का संकल्प लिया और कठोर तपस्या में लीन हो गईं। उनके तप के परिणामस्वरूप भगवान शिव ने उनके हृदय को स्वीकार किया और वे दोनों अत्यंत प्रेम और प्रसन्नता से रहने लगे।

निष्कर्ष

यह कथा भगवान शिव और पार्वती जी के अद्भुत संबंधों को दर्शाती है, जिसमें पार्वती की भक्ति, तपस्या और तात्त्विक दृष्टि के द्वारा भगवान शिव का हृदय जीतने की प्रक्रिया बयां की गई है। यह भी दिखाता है कि भगवान शिव सच्चे भक्तों के प्रति अपनी कृपा बरसाते हैं, जब वे भक्ति और समर्पण से उनके पास आते हैं।