ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना – तीसवां अध्याय

्रह्माजी बोले ;- हे नारद! गिरिराज हिमालय और देवी मैना के मन में भगवान शिव के प्रति भक्ति भाव देखकर सभी देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। तब देवताओं के गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी अनेकानेक बार स्तुति की।

तत्पश्चात देवता बोले ;- हे देवाधिदेव! महादेव! भगवान शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। हम पर प्रसन्न होइए और हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए । प्रभो! आप तो भक्तवत्सल हैं और अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। आप दीन दुखियों का उद्धार करते हैं। आप दया और करुणा के अथाह सागर हैं। आप ही अपने भक्तों को संकटों से दूर करते हैं तथा उनकी सभी विपत्तियों का विनाश करते हैं। इस प्रकार महादेव जी की अनेकों बार स्तुति करने के बाद देवताओं ने भगवान शिव को गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना की भक्ति से अवगत कराया और आदर सहित सभी बातें उन्हें बता दीं।

तत्पश्चात भगवान शिव ने हंसते हुए उनकी सभी प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लिया। तब अपने कार्य को सिद्ध हुआ समझकर सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम लौट गए। जैसा कि सभी जानते हैं कि भगवान शिव को लीलाधारी कहा जाता है। वे माया के स्वामी हैं। पुनः वे शैलराज हिमालय के घर गए । उस समय राजा हिमालय अपनी पुत्री पार्वती सहित सभा भवन में बैठे हुए थे। उन्होंने ऐसा रूप धारण किया कि वे कोई ब्राह्मण अथवा साधु-संत जान पड़ते थे। उनके हाथ में दण्ड व छत्र था। शरीर पर दिव्य वस्त्र तथा माथे पर तिलक शोभा पा रहा था। उनके गले में शालग्राम तथा हाथ में स्फटिक की माला थी। वे मुक्त कंठ से हरिनाम जप रहे थे। उन्हें आया देखकर पर्वतों के राजा हिमालय तुरंत उठकर खड़े हो गए और उन्होंने ब्राह्मण को भक्तिभाव से साष्टांग प्रणाम किया। देवी पार्वती अपने प्राणेश्वर भगवान शिव को तुरंत पहचान गईं। उन्होंने उत्तम भक्तिभाव से सिर झुकाकर उनकी स्तुति की। वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं। तब ब्राह्मण रूप में पधारे भगवान शिव ने सभी को आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात हिमालय ने उन ब्राह्मण देवता की पूजा-आराधना की और उन्हें मधुपर्क आदि पूजन सामग्री भेंट की, जिसे शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। तत्पश्चात पार्वती के पिता हिमालय ने उनका कुशल समाचार पूछा और बोले- हे विप्रवर! आप कौन हैं?

यह प्रश्न सुनकर वे ब्राह्मण देवता बोले ;- हे गिरिश्रेष्ठ! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूं और भूतल पर भ्रमण करता रहता हूं। मेरी गति मन के समान है। एक पल में यहां तो दूसरे पल में वहां। मैं सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्धात्मा हूं। मैं ज्योतिषी हूं और भाग्य की सभी बातें जानता हूं। क्या हुआ है? क्या होने वाला है? यह सबकुछ मैं जानता हूं। मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी दिव्य सुलक्षणा पुत्री पार्वती को, जो कि सुंदर एवं लक्ष्मी के समान है, आश्रय विहीन, कुरूप और गुणहीन महेश्वर शिव को सौंपना चाहते हैं। वे शिवजी तो मरघट में रहते हैं। उनके शरीर पर हर समय सांप लिपटे रहते हैं और वे अधिक समय योग और ध्यान में ही बिताते हैं। वे नंग-धड़ंग होकर ही इधर-उधर भटकते फिरते हैं। उनके पास पहनने के लिए वस्त्र भी नहीं हैं। आज कोई उनके कुल के विषय में भी नहीं जानता है। वे स्वभाव से बहुत ही उग्र हैं । बात-बात पर उन्हें क्रोध आ जाता है। वे अपने शरीर पर सदा भस्म लगाए रहते हैं। सिर पर उन्होंने जटाजूट धारण कर रखा है। ऐसे अयोग्य वर को, जिसमें अच्छा और रुचिकर कहने लायक कुछ भी नहीं है, आप क्यों अपनी पुत्री का जीवन साथी बनाना चाहते हैं?

आपका यह सोचना कि शिव ही आपकी पुत्री के योग्य हैं, सर्वथा गलत है। आप तो महान ज्ञानी हैं। आप नारायण कुल में उत्पन्न हुए हैं। भला आपकी सुंदर पुत्री को वरों की क्या कमी हो सकती है? उस परम सुंदरी से विवाह करने को अनेकों देशों के महान वीर, बलशाली, सुंदर, स्वस्थ राजा और राजकुमार सहर्ष तैयार हो जाएंगे। आप तो समृद्धिशाली हैं। आपके घर में भला किस वस्तु की कमी हो सकती है? परंतु शैलराज जहां आप अपनी पुत्री को ब्याहना चाह रहे हैं, वे बहुत निर्धन हैं। यहां तक कि उनके भाई-बंधु भी नहीं हैं। वे सर्वथा अकेले हैं। गिरिराज हिमालय! आपके पास अभी समय है। अतः आप अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों व अपनी प्रिय पत्नी देवी मैना से इस विषय में सलाह कर लें परंतु अपनी पुत्री पार्वती से इस विषय में कोई सलाह न लें क्योंकि वे शिव के गुण-दोषों के बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं। ऐसा कहकर ब्राह्मण देवता, जो वास्तव में साक्षात भगवान शिव ही थे, हिमालय का आदर-सत्कार ग्रहण करके आनंदपूर्वक वहां से अपने धाम को चले गए।

भगवान शिव का ब्राह्मण रूप में आगमन और हिमालय से संवाद

देवताओं का शिवजी के पास जाना
गिरिराज हिमालय और देवी मैना की भक्ति देखकर देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। देवताओं के गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी देवता कैलाश पर्वत पहुंचे और भगवान शिव की स्तुति की। उन्होंने भगवान शिव से आशीर्वाद की याचना की, उनकी भक्ति का गुणगान किया, और गिरिराज हिमालय एवं देवी मैना की भक्ति के बारे में बताया। भगवान शिव ने उन सभी की प्रार्थनाओं को स्वीकार किया, जिससे देवता प्रसन्न होकर अपने-अपने धाम लौट गए।

भगवान शिव का ब्राह्मण रूप में आगमन
भगवान शिव ने फिर एक बार शैलराज हिमालय के घर जाने का निश्चय किया, लेकिन इस बार वे ब्राह्मण के रूप में आए। उनका रूप अत्यंत आकर्षक और दिव्य था। उनके हाथ में दण्ड और छत्र था, शरीर पर दिव्य वस्त्र थे, और माथे पर तिलक शोभा पा रहा था। गले में शालग्राम और हाथ में स्फटिक की माला थी। वे मुक्त कंठ से हरिनाम जप रहे थे। हिमालय ने तुरंत उठकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया, और देवी पार्वती ने भगवान शिव को पहचानते हुए भक्तिभाव से उनकी स्तुति की।

हिमालय का प्रश्न और शिवजी का उत्तर
इस समय हिमालय ने ब्राह्मण रूप में आए भगवान शिव से पूछा, “हे विप्रवर! आप कौन हैं?” इस पर भगवान शिव ने उत्तर दिया, “हे गिरिश्रेष्ठ! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूं, जो भूतल पर भ्रमण करता रहता हूं। मेरी गति मन के समान है। मैं सर्वज्ञ, परोपकारी और शुद्धात्मा हूं। मैं ज्योतिषी हूं और भविष्यवाणी करने में सक्षम हूं।” भगवान शिव ने यह भी कहा कि उन्हें ज्ञात हुआ है कि हिमालय अपनी पुत्री पार्वती को महेश्वर शिव से विवाह के लिए सौंपना चाहते हैं, जो कि बहुत ही अयोग्य और गरीब हैं। वे मरघट में रहते हैं, उनके शरीर पर सदा सांप लिपटे रहते हैं, और वे अधिकतर ध्यान में ही मग्न रहते हैं। वे क्रोधी और उग्र स्वभाव के हैं। ऐसे व्यक्ति को अपनी पुत्री का जीवन साथी क्यों बनाना चाहते हैं?

हिमालय से उपदेश और चेतावनी
भगवान शिव ने आगे कहा कि हिमालय को अपनी पुत्री के लिए अन्य योग्य वरों के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि शिव से विवाह के लिए पार्वती की कोई विशेष जानकारी नहीं है। भगवान शिव ने यह भी कहा कि वह स्वयं अपनी पुत्री से इस विषय में कोई सलाह न लें, क्योंकि वे शिव के गुण-दोषों के बारे में कुछ नहीं जानतीं। शिवजी ने हिमालय को अपनी पुत्री के लिए श्रेष्ठ और योग्य वरों के चयन की सलाह दी और बिना किसी उपहार के वहां से वापिस लौट गए।

भगवान शिव का अद्भुत रूप और हिमालय की द्वंद्वात्मक स्थिति
भगवान शिव का यह रूप और उनका वचन हिमालय के लिए एक चुनौती और द्वंद्व का कारण बन गया। एक ओर वे जानते थे कि भगवान शिव के पास विशाल माया और शक्ति है, दूसरी ओर उनकी भक्ति और विश्वास शिव पर था। हिमालय और देवी मैना दोनों ही अपने मन में यह सोचते रहे कि भगवान शिव के उपदेशों को कैसे स्वीकार किया जाए और अपनी पुत्री का भविष्य कैसे सुरक्षित किया जाए।