नारद जी ने पूछा ;- हे विधाता! देवी के अंतर्धान होने के बाद जब सभी देवता अपने अपने धाम को चले गए तब आगे क्या हुआ? हे भगवन्! कृपा करके मुझे आगे की कथा भी सुनाइए।
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब देवी जगदंबा वहां सभी देवताओं और हिमालय को आश्वासन देकर अपने लोक को चली गईं, तब श्रीहरि विष्णु ने मैना और हिमालय को देवी जगदंबा को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने के लिए कहा। साथ ही देवी का भक्तिपूर्वक चिंतन करने और उनकी भक्तिभावना से तपस्या करने का उपदेश देकर सभी देवताओं सहित विष्णुजी भी अपने बैकुण्ठ लोक को चले गए। तत्पश्चात मैना और हिमालय दोनों सदैव देवी जगदंबा के अमृतमयी और कल्याणमयी स्वरूप का चिंतन करते और उनकी आराधना में ही मग्न रहते थे। मैना देवी की कृपादृष्टि पाने के लिए शिवजी सहित उनकी आराधना करती थीं। वे ब्राह्मणों को दान देतीं और उन्हें भोजन कराती थीं। मन में देवी दुर्गा को पुत्री रूप में पाने की इच्छा लिए हिमालय और मैना ने चैत्रमास से आरंभ कर सत्ताईस वर्षों तक देवी की पूजा अर्चना नियमित रूप से की। मैना अष्टमी तिथि व्रत रखकर नवमी को लड्डू, खीर, पीठी, शृंगार और विभिन्न प्रकार के पुष्पों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करतीं। उन्होंने गंगा के किनारे दुर्गा देवी की मूर्ति बना रखी थी। वे सदैव उसकी नियम से पूजा करती थीं। मैना देवी की निराहार रहकर पूजा करतीं। कभी जल पीकर, कभी हवा से ही व्रत को पूरा करतीं। सत्ताईस वर्षों तक नियमपूर्वक भक्तिभावना से जगदंबा दुर्गा की आराधना करने के पश्चात वे प्रसन्न हो गईं। तब देवी जगदंबा ने मैना और हिमालय को अपने साक्षात दर्शन दिए।
देवी जगदंबा बोलीं ;- हे गिरिराज हिमालय और महारानी मैना! मैं तुम दोनों की तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए जो तुम्हारी इच्छा हो वह वरदान मांग सकते हो। हे हिमालय प्रिया मैना! तुम्हारी तपस्या और व्रत से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इसलिए मैं तुम्हें मनोवांछित फल प्रदान करूंगी। सो, जो इच्छा हो कहो। तब मैना देवी दुर्गा को भक्तिभावना से प्रणाम करके बोलीं— देवी जगदंबिके! आपके प्रत्यक्ष दर्शन करके मैं धन्य हो गई। हे देवी। मैं आपके स्वरूप को प्रणाम करती हूं। हे माते ! हम पर प्रसन्न होइए।
मैना के वचनों को सुनकर देवी दुर्गा को बहुत संतोष हुआ और उन्होंने मैना को गले से लगा लिया। देवी के गले लगते ही मैना को ज्ञान की प्राप्ति हो गई।
तब वे देवी जगदंबा से कहने लगीं ;- इस जगत को धारण करने वाली ! लोकों का पालन करने वाली! तथा मनोवांछित फलों को देने वाली देवी! मैं आपको प्रणाम करती हूं। आप ही इस जगत में आनंद का संचार करती हैं। आप ही माया हैं। आप ही योगनिद्रा हैं। आप अपने भक्तों के शोक और दुखों को दूर करती हैं। आप ही अपने भक्तों को अज्ञानता के अंधेरों से निकालकर उन्हें ज्ञान रूपी तेज प्रदान करती हैं। भला मैं तुच्छ स्त्री कैसे आपकी महिमा का वर्णन कर सकती हूं। आप आकार रहित तथा अदृश्य हैं। आप शाश्वत शक्ति हैं। आप परम योगिनी हैं और इच्छानुसार नारी रूप में धरती पर अवतार लेती हैं। आप ही पृथ्वीलोक पर चारों ओर फैली प्रकृति हैं। ब्रह्म के स्वरूप को अपने वश में करने वाली विद्या आप ही हैं। हे जगदंबा माता! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। आप ही यज्ञ में अग्नि के रूप में प्रज्वलित होती हैं। माता ! आप ही सूर्य की किरणों को प्रकाश प्रदान करने वाली शक्ति हैं। चंद्रमा की शीतलता भी आप ही हैं। ऐसी महान और मंगलकारी देवी जगदंबा का मैं स्तवन करती हूं। माते! मैं आपकी वंदना करती हूं। संपूर्ण जगत का पालन करने वाली और जगत का कल्याण करने वाली शक्ति भी आप ही हैं। आप ही श्रीहरि की माया हैं। हे दुर्गा मां! आप ही इच्छानुसार रूप धारण करके इस संसार की रचना, पालन और संहार करती हैं।
हे देवी! मैं आपको नमस्कार करती हूं। कृपा करके हम पर प्रसन्न होइए। ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मैना द्वारा भक्तिभाव से की गई स्तुति को सुनकर देवी बोलीं कि मैना तुम अपना मनोवांछित वर मांग लो। तुम्हारे द्वारा मांगी गई वस्तु मैं अवश्य प्रदान करूंगी। मेरे लिए कोई भी वस्तु अदेय नहीं है।
देवी जगदंबा के इन वचनों को सुनकर मैना बहुत खुश हुईं और बोलीं- हे शिवे! आपकी जय हो। हे जगदंबिके! आप ही ज्ञान प्रदान करती हैं। आप ही सबको मनोवांछित वस्तु प्रदान करती हैं। हे देवी! मैं आपसे वरदान मांगती हूं। हे माते ! आप मुझे सौ पुत्र प्रदान करें जो बलशाली और पराक्रमी हों, जिनकी आयु लंबी हो तत्पश्चात मेरी एक पुत्री हो, जो साक्षात आपका ही रूप हो। हे देवी! आप सारे संसार में पूजित हैं तथा सभी गुणों से संपन्न और आनंद देने वाली हैं। हे माता! आप ही सभी कार्यों की सिद्धि करने वाली हैं। हे भगवती । देवताओं के कार्यों को पूरा करने के लिए आप रुद्रदेव की पत्नी होइए और इस संसार को अपनी कृपा से कृतार्थ करने के लिए मेरी पुत्री बनकर जन्म लीजिए।
मैना के कहे वचनों को सुनकर देवी भगवती मुस्कुराने लगीं। तब सबके मनोरथों को पूर्ण करने वाली देवी मुस्कुराते हुए बोलीं- मैना! मैं तुम्हारी भक्तिभाव से की गई तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारे द्वारा मांगे गए वरदानों को अवश्य ही पूर्ण करूंगी। सर्वप्रथम मैं तुम्हें सौ बलशाली पुत्रों की माता होने का वर प्रदान करती हूं। उन सौ पुत्रों में से सबसे पहले जन्म लेने वाला पुत्र सबसे अधिक शक्तिशाली और बलशाली होगा। तत्पश्चात मैं स्वयं तुम्हारी पुत्री के रूप में तुम्हारे गर्भ से जन्म लूंगी। तब मैं देवताओं के हित का कल्याण करूंगी।
ऐसा कहकर जगत जननी, परमेश्वरी देवी जगदंबा वहां से अंतर्धान हो गईं। तब महेश्वरी से अपने द्वारा मांगा गया अभीष्ट फल पाकर देवी मैना खुशी से झूम उठीं। तत्पश्चात वे अपने घर चली गईं। घर जाकर मैना ने अपने पति हिमालय को भी अपनी तपस्या की पूर्णता और वरदानों की प्राप्ति के बारे में बताया। जिसे सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब वे दोनों अपने भाग्य की सराहना करने लगे । तत्पश्चात, कुछ समय बाद मैना को गर्भ ठहरा। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया। समय पूर्ण होने पर मैना ने एक पुत्र को जन्म दिया
जिसका नाम मैनाक रखा गया। पुत्र प्राप्ति की सूचना मिलने पर हिमालय हर्ष से उद्वेलित हो गए और उन्होंने अपने नगर में बहुत बड़ा उत्सव किया। इसके बाद हिमालय के यहां निन्यानवे और पुत्रों ने जन्म लिया। सौ पुत्रों में मैनाक सबसे बड़ा और बलशाली था। उसका विवाह नाग कन्याओं से हुआ। जब इंद्र देव पर्वतों पर क्रोध करके उनके पंखों को काटने लगे तो मैनाक समुद्र की शरण में चला गया। उस समय पवनदेव ने इस कार्य में मैनाक की सहायता की। वहां उसकी समुद्र से मित्रता हो गई। मैनाक पर्वत ही अपने बाद प्रकटे सभी पर्वतों में पर्वतराज कहलाता है।
देवी जगदंबा का वरदान और मैना की तपस्या
जब देवी जगदंबा ने देवताओं और हिमालय, मैना को आश्वासन देकर अपने लोक को लौटने के बाद मैना और हिमालय ने देवी को प्रसन्न करने के लिए अपनी तपस्या जारी रखी। उन्होंने देवी जगदंबा का ध्यान किया और उनके प्रति अपनी भक्तिभावना को दृढ़ किया। उन्होंने अष्टमी तिथि व्रत रखा, नियमित रूप से पूजा की, और 27 वर्षों तक तपस्या की। मैना देवी दुर्गा की मूर्ति बनाकर गंगा के किनारे उसकी पूजा करती थीं, कभी जल पीकर और कभी हवा से व्रत को पूरा करतीं। उनकी यह तपस्या और विश्वास देवी जगदंबा के लिए अत्यंत प्रिय हो गई।
देवी जगदंबा का वरदान: मैना और हिमालय की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर देवी जगदंबा ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान देने का वचन दिया। देवी ने कहा, “जो भी तुम्हारी इच्छा हो, वह मुझे मांग सकते हो।” मैना ने देवी जगदंबा से 100 बलशाली पुत्रों की प्राप्ति का वरदान मांगा, जिनमें से पहला पुत्र सबसे शक्तिशाली और बलशाली होगा। इसके बाद, मैना ने देवी से अपनी इच्छा व्यक्त की कि वह उनकी पुत्री के रूप में जन्म लें। देवी जगदंबा ने मुस्कुराते हुए सभी वरदानों को स्वीकार किया और उन्हें पूरा करने का वचन दिया।
मैनाक का जन्म: देवी जगदंबा ने पहले 100 पुत्रों का वरदान दिया, और पहला पुत्र मैनाक सबसे शक्तिशाली और बलशाली हुआ। मैनाक के जन्म के बाद हिमालय और मैना अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने नगर में बड़ा उत्सव मनाया। मैनाक के बाद 99 और पुत्रों ने जन्म लिया, और मैनाक को नाग कन्याओं से विवाह हुआ। मैनाक ने कई साहसिक कार्य किए, जिसमें इंद्रदेव द्वारा पर्वतों के पंख काटने पर समुद्र से शरण ली और पवनदेव की सहायता से पर्वतों के रक्षक के रूप में ख्याति प्राप्त की। मैनाक पर्वत अब पर्वतराज के रूप में जाना जाता है।
निष्कर्ष: मैना और हिमालय की तपस्या और विश्वास के परिणामस्वरूप देवी जगदंबा ने उन्हें वरदान दिए, जिससे मैनाक का जन्म हुआ, जो शक्तिशाली और पराक्रमी बना। देवी जगदंबा की कृपा से यह कथा यह दर्शाती है कि भगवान के प्रति आस्था, भक्ति और तपस्या से जीवन में सफलता और सुख की प्राप्ति होती है।