जो आदि से लेकर अंत में हैं, नित्य मंगलमय हैं, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले हैं, जिनके पांच मुख हैं और जो खेल-खेल में जगत की रचना, पालन और संहार तथा अनुग्रह एवं तिरोभावरूप पांच प्रबल कर्म करते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर उमापति भगवान शंकर का मैं मन ही मन चिंतन करता हूं।
व्यास जी कहते हैं – धर्म का महान क्षेत्र, जहां गंगा-यमुना का संगम है, उस पुण्यमय प्रयाग, जो ब्रह्मलोक का मार्ग है, वहां एक बार महातेजस्वी, महाभाग, महात्मा मुनियों ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस ज्ञान यज्ञ का समाचार सुनकर पौराणिक – शिरोमणि व्यास जी के शिष्य सूत जी वहां मुनियों के दर्शन के लिए आए।
सूत जी का सभी मुनियों ने विधिवत स्वागत व सत्कार किया तथा उनकी स्तुति करते हुए हाथ जोड़कर उनसे कहा- हे सर्वज्ञ विद्वान रोमहर्षण जी। आप बड़े भाग्यशाली हैं। आपने स्वयं व्यास जी के मुख से पुराण विद्या प्राप्त की है । आप आश्चर्यस्वरूप कथाओं का भंडार हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता हैं। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए। आपका यहां आना निरर्थक नहीं हो सकता। आप कल्याणकारी हैं।
उत्तम बुद्धि वाले सूत जी ! यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होने पर भी आप शुभाशुभ तत्व का वर्णन करें, जिससे हमारी तृप्ति नहीं होती और उसे सुनने की हमारी इच्छा ऐसे ही रहती है। कृपा कर उस विषय का वर्णन करें। घोर कलियुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म से दूर होकर दुराचार में फंस जाएंगे। दूसरों की बुराई करेंगे, पराई स्त्रियों के प्रति आसक्त होंगे। हिंसा करेंगे, मूर्ख, नास्तिक और पशुबुद्धि हो जाएंगे।
सूत जी ! कलियुग में वेद प्रतिपादित वर्ण-आश्रम व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। प्रत्येक वर्ण और आश्रम में रहने वाले अपने-अपने धर्मों के आचरण का परित्याग कर विपरीत आचरण करने में सुख प्राप्त करेंगे ! इस सामाजिक वर्ण संकरता से लोगों का पतन होगा। परिवार टूट जाएंगे, समाज बिखर जाएगा। प्राकृतिक आपदाओं से जगह-जगह लोगों की मृत्यु होगी। धन का क्षय होगा। स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी । ब्राह्मण लोभी हो जाएंगे और वेद बेचकर धन प्राप्त करेंगे। मद से मोहित होकर दूसरों को ठगेंगे, पूजा-पाठ नहीं करेंगे और ब्रह्मज्ञान से शून्य होंगे।
क्षत्रिय अपने धर्म को त्यागकर कुसंगी, पापी और व्यभिचारी हो जाएंगे। शौर्य से रहित हो वे शूद्रों जैसा व्यवहार करेंगे और काम के अधीन हो जाएंगे। वैश्य धर्म से विमुख हो संस्कारभ्रष्ट होकर कुमार्गी, धनोपार्जन परायण होकर नाप-तौल में ध्यान लगाएंगे। शूद्र अपना धर्म-कर्म छोड़कर अच्छी वेशभूषा से सुशोभित हो व्यर्थ घूमेंगे। वे कुटिल और ईर्ष्यालु होकर अपने धर्म के प्रतिकूल हो जाएंगे, कुकर्मी और वाद-विवाद करने वाले होंगे। वे स्वयं को कुलीन मानकर सभी धर्मों और वर्णों में विवाह करेंगे।
स्त्रियां सदाचार से विमुख हो जाएंगी। वे अपने पति का अपमान करेंगी और सास-ससुर से लड़ेंगी। मलिन भोजन करेंगी। उनका शील स्वभाव बहुत बुरा होगा ।
सूत जी ! इस तरह जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है और जिन्होंने अपने धर्म का त्याग कर दिया है, ऐसे लोग लोक-परलोक में उत्तम गति कैसे प्राप्त करेंगे? इस चिंता से हम सभी व्याकुल हैं। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। इस धर्म का पालन करने वाला दूसरों को सुखी करता हुआ, स्वयं भी प्रसन्नता अनुभव करता है। यह भावना यदि निष्काम हो, तो कर्ता का हृदय शुद्ध करते हुए उसे परमगति प्रदान करती है।
हे महामुने! आप समस्त सिद्धांतों के ज्ञाता हैं। कृपा कर कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे इन सबके पापों का तत्काल नाश हो जाए।
व्यास जी कहते हैं – उन श्रेष्ठ मुनियों की यह बात सुनकर सूत जी मन ही मन परम श्रेष्ठ भगवान शंकर का स्मरण करके उन्हे शिव पुराण की महिमा के बारे मे बोले।