भौम-जन्म – दसवां अध्याय

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! भगवान शिव का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्द्धक और उत्तम है। दक्ष-यज्ञ से वे अपने निवास कैलाश पर्वत पर वापस आ गए थे। वहां आकर भगवान शिव अपनी पत्नी सती के वियोग से बहुत दुखी थे। उनका मन देवी सती का स्मरण कर रहा था और वे उन्हें याद करके व्याकुल हो रहे थे। तब उन्होंने अपने सभी गणों को वह पर बुलाया और उनसे देवी सती के गुणों और उनकी सुशीलता का वर्णन करने लगे। फिर गृहस्थ धर्म को त्यागकर वे कुछ समय तक सभी लोकों में सती को खोजते हुए घूमते रहे। इसके बाद वापस कैलाश पर्वत पर आ गए क्योंकि उन्हें कहीं भी सती का दर्शन नहीं हो सका था। तब अपने मन को एकाग्र करके वे समाधि में बैठ गए। भगवान शिव इसी प्रकार बहुत लंबे समय तक समाधि लगाकर बैठे रहे। असंख्य वर्ष बीत गए। समाधि के परिश्रम के कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और वह बूंद एक शिशु में परिवर्तित हो गई। उस बालक का रंग लाल था। उसकी चार भुजाएं थीं। उसका रूप मनोहर था।

वह बालक दिव्य तेज से संपन्न अनोखी शोभा पा रहा था। वह प्रकट होते ही रोने लगा। उसे देखकर संसारी मनुष्यों की भांति शिवजी उसके पालन-पोषण का विचार करके व्याकुल हो गए। उसी समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई। उसने उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमने लगीं। तब उन्होंने उसे दूध पिलाकर उस बालक के रोने को शांत किया। फिर वह उसे खिलाने लगी। वह स्त्री और कोई नहीं स्वयं पृथ्वी माता थीं। संसार की सृष्टि करने वाले, सबकुछ जानने वाले महादेव जी यह देखकर हंसने लगे। वह पृथ्वी को पहचान चुके थे।

वे पृथ्वी से बोले ;- हे धरिणी! तुम इस पुत्र का प्रेमपूर्वक पालन करो। यह शिशु मेरे पसीने की बूंद से प्रकट हुआ है। हे वसुधा! यद्यपि यह बालक मेरे पसीने से उत्पन्न हुआ है परंतु इस जगत में यह तुम्हारे ही पुत्र के रूप में जाना जाएगा। यह परम गुणवान और भूमि देने वाला होगा। यह मुझे भी सुख देने वाला होगा। हे देवी! तुम इसका धारण करो।

नारद! यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए। उनका दुखी हृदय थोड़ा शांत हो गया था। उधर शिवजी की आज्ञा का पालन करते हुए पृथ्वी अपने पुत्र को साथ लेकर अपने निवास स्थान पर चली गईं। बड़ा होकर यह बालक ‘भौम’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा होने पर भौम काशी गया। वहां उसने बहुत लंबे समय तक भगवान शिव की सेवा-आराधना की। तब भगवान शंकर की कृपादृष्टि पाकर भूमि पुत्र भौम दिव्यलोक को चले गए।

भगवान शिव का दुःख और पृथ्वी से उत्पन्न शिशु

भगवान शिव का यश अत्यंत पावन और भक्तिवर्धक है। दक्ष-यज्ञ से वापस अपने कैलाश पर्वत पर लौटने के बाद, भगवान शिव सती के वियोग में अत्यंत दुखी थे। उनका मन सदैव देवी सती के स्मरण में डूबा रहता और वे उनके बिना व्याकुल हो गए थे। इस दुख से उबरने के लिए, भगवान शिव ने अपने सभी गणों को अपने पास बुलाया और देवी सती के गुणों और उनकी सुशीलता का वर्णन करने लगे। इसके बाद, गृहस्थ धर्म को त्यागकर, उन्होंने सभी लोकों में देवी सती को खोजने का निश्चय किया और घूमते रहे। लेकिन, कहीं भी देवी सती का दर्शन न होने पर वे पुनः कैलाश पर्वत लौट आए।

यहाँ आकर उन्होंने अपना मन एकाग्र किया और समाधि में बैठ गए। कई वर्षों तक भगवान शिव समाधि में ही बैठे रहे, और इस लंबी तपस्या के कारण उनके मस्तक से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिर पड़ी। वह बूंद तुरंत ही एक शिशु में परिवर्तित हो गई। वह शिशु बहुत सुंदर और दिव्य तेज से युक्त था, और उसका रंग लाल था।

पृथ्वी माता का आगमन और शिशु का पालन

वह शिशु रोने लगा, और भगवान शिव, जो अपनी संतान के पालन-पोषण के बारे में सोच रहे थे, व्याकुल हो गए। उसी समय, एक सुंदर स्त्री वहां आई, जो कोई और नहीं बल्कि पृथ्वी माता थीं। उन्होंने शिशु को अपनी गोदी में उठाया, उसका मुख चूमा और उसे दूध पिलाकर शांत किया। फिर वह शिशु को खिलाने लगीं।

भगवान शिव यह देखकर हंस पड़े और पृथ्वी से बोले, “हे धरिणी! तुम इस शिशु का प्रेमपूर्वक पालन करो। यह बालक मेरे पसीने की बूंद से उत्पन्न हुआ है, लेकिन इस संसार में यह तुम्हारे पुत्र के रूप में जाना जाएगा। यह परम गुणवान और भूमि देने वाला होगा, और मुझे भी सुख देगा।”

भौम का उत्थान और भगवान शिव की कृपा

भगवान शिव की आज्ञा का पालन करते हुए पृथ्वी माता अपने पुत्र को लेकर अपने निवास स्थान पर चली गईं। यह बालक बड़ा होकर ‘भौम’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा होने पर, भौम ने काशी जाकर भगवान शिव की लंबे समय तक सेवा और आराधना की। भगवान शिव की कृपा से वह दिव्यलोक को चला गया और एक महान व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।

निष्कर्ष

यह कथा भगवान शिव के गहरे दुख, तपस्या, और फिर भौम के रूप में एक नए अवतार के प्रकट होने की है। भौम का भगवान शिव के साथ संबंध और उनकी दिव्य कृपा से उसका उत्थान, एक महानता की ओर बढ़ने का प्रतीक है।