शिव उपासनांतर्गत पिंडी की पूजा

स्नान

शंकरजी की पिंडी को ठंडे जल, दूध एवं पंचामृत से स्नान कराते हैं । (चौदहवीं शताब्दी से पूर्व शंकरजी की पिंडी को केवल जल से स्नान करवाया जाता था; दूध एवं पंचामृत से नहीं । दूध एवं घी ‘स्थिति’के प्रतीक हैं, इसलिए ‘लय’ के देवता शंकरजी की पूजा में उनका उपयोग नहीं किया जाता था । चौदहवीं शताब्दी में दूध को शक्ति का प्रतीक मानकर शैवों ने भी वैष्णव उपासना में प्रचलित पंचामृतस्नान, दुग्धस्नान इत्यादि अपनाए ।)

हलदी एवं कुमकुम निषिद्ध

पिंडी पर हलदी एवं कुमकुम न चढाने का कारण आगे दिए अनुसार है । हलदी मिट्टी में उपजती है एवं उर्वर धरती अर्थात उत्पत्ति का वह प्रतीक है । कुमकुम भी हलदी से ही बनता है, इसलिए वह भी उत्पत्ति का ही प्रतीक है । चूंकि शिवजी ‘लय ’के देवता हैं, इसीलिए ‘उत्पत्ति’ के प्रतीक हलदी-कुमकुम का प्रयोग शिवपूजन में नहीं किया जाता । भस्म इसलिए लगाते हैं, क्योंकि वह लय का द्योतक है ।

भस्म

पिंडी के दर्शनीय ओर से भस्म की तीन समानांतर धारियां बनाते हैं अथवा फिर समांतर धारियां खींचकर उन पर मध्य में एक वृत्त बनाते हैं, जिसे शिवाक्ष कहते हैं 

अक्षत

पिंडी का पूजन करते समय श्वेत अक्षत का प्रयोग आगे दिए गए कारणों से उचित होता है । श्वेत अक्षत वैराग्य के, अर्थात निष्काम साधना के द्योतक हैं । श्वेत अक्षत की ओर निर्गुण से संबंधित मूल उच्च देवताओं की तरंगें आकर्षित होती हैं । शंकर एक उच्च देवता हैं और वह अधिकाधिक निर्गुण से संबंधित हैं, इसलिए श्वेत अक्षत पिंडी के पूजन में प्रयुक्त होने से शिवतत्त्व का अधिक लाभ मिलता है ।

पुष्प

धतूरा, श्वेत कमल, श्वेत कनेर, चमेली, मदार, नागचंपा, पुंनाग, नागकेसर, रजनीगंधा, जाही, जूही, मोगरा तथा श्वेत पुष्प शिवजी को चढाएं । (शिवजी को केतकी, केवडा वर्जित हैं, इसलिए न चढाएं । केवल महाशिवरात्रि के दिन चढाएं ।)

बेल

बिल्वपत्र को औंधे रख और उसके डंठल को अपनी ओर कर पिंडी पर चढाते हैं ।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रंच त्रयायुधम् ।
त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।

बिल्वाष्टक, श्लोक १

अर्थ : त्रिदल (तीन पत्र) युक्त, त्रिगुण के समान, तीन नेत्रों के समान, तीन आयुधों के समान एवं तीन जन्मों के पाप नष्ट करनेवाला यह बिल्वपत्र, मैं शंकरजी को अर्पित करता हूं ।

जल की धारा

पिंडी में शिव-शक्ति एकत्रित होने के कारण प्रचंड ऊर्जा उत्पन्न होती है । इस ऊर्जा का पिंडी के कणों पर एवं दर्शनार्थियों पर कोई प्रतिकूल परिणाम न हो, इसलिए पिंडी पर निरंतर पानी की धारा पडती रहनी चाहिए । पानी की इस धारा से खर्ज स्वर में सूक्ष्म ओंकार (, निर्गुण ब्रह्म का वाचक) उत्पन्न होता है । वैसे ही मंत्र की निरंतर धार पडते रहने से कालपिंड खुल जाता है, अर्थात जीव निर्गुण ब्रह्मतक पहुंच जाता है ।