शिव द्वारा दक्ष को जीवित करना – इकतालीसवां अध्याय

देवताओं ने महादेव जी की बहुत स्तुति की और कहा- भगवन्, आप ही परमब्रह्म हैं और इस जगत में सर्वत्र व्याप्त हैं। आप मृत्युंजय हैं। चंद्रमा, सूर्य और अग्नि आपकी तीन आंखें हैं। आपके तेज से ही पूरा जग प्रकाशित है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और चंद्र आदि देवता आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। आप ही इस संसार का पोषण करते हैं। भगवन् आप करुणामय हैं। आप ही दुष्टों का संहार करते हैं। प्रभु! आपकी आज्ञानुसार अग्नि जलाती है और सूर्य अपनी तपन से झुलसाता है। मृत्यु आपके भय से कांपती है। हे करुणानिधान! जिस प्रकार आज तक आपने हमारी हर विपत्ति से रक्षा की है, उसी प्रकार हमेशा अपनी कृपादृष्टि बनाएं।

भगवन्! हम अपनी सभी गलतियों के लिए आपसे क्षमा मांगते हैं। आप प्रसन्न होकर यज्ञ को पूर्ण कीजिए तथा यजमान दक्ष का उद्धार कीजिए। वीरभद्र और महाकाली के प्रहारों से घायल हुए सभी देवताओं व ऋषियों को आरोग्य प्रदान करें। उन सभी की पीड़ा को कम कर दें । हे शिवजी! आप प्रजापति दक्ष के अपूर्ण यज्ञ को पूर्ण कर दें और दक्ष को पुनर्जीवित कर दें। भग ऋषि को उनकी आंखें, पूषा को दांत प्रदान करें। साथ ही जिन देवताओं के अंग नष्ट हो गए हैं, उन्हें ठीक कर दें। आप सभी को आरोग्य प्रदान करें। हम आपको यज्ञ में भाग देंगे। ऐसा कहकर हम सभी देवता त्रिलोकीनाथ महादेव के चरणों में लेट गए। पूरा-पूरा हमारी स्तुति और अनुनय-विनय से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न हो गए।

शिवजी बोले: हे ब्रह्मा! श्रीहरि विष्णु! आपकी बातों को मैं हमेशा मानता हूं। इसलिए आपकी प्रार्थना को मैं नहीं टाल सकता परंतु मैं यह बताना चाहता हूं कि दक्ष के यज्ञ का विध्वंस मैंने नहीं किया है। उसके यज्ञ का विध्वंस इसलिए हुआ क्योंकि वह हमेशा दूसरों का बुरा चाहता है, उनसे द्वेष रखता है। परंतु जो दूसरों का बुरा चाहता है उसका ही बुरा होता है। अतः हमें कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे किसी को कष्ट हो। तुम्हारी प्रार्थना से मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है और तुम्हारी विनती मानकर मैं दक्ष को जीवित कर रहा हूं परंतु दक्ष का मस्तक अग्नि में जल गया है। इसलिए उनके सिर के स्थान पर बकरे का सिर जोड़ना पड़ेगा। भग सूर्य के नेत्र से यज्ञ भाग को देख पाएंगे तथा पूषा के टूटे हुए दांत सही हो जाएंगे। मेरे गणों द्वारा मारे गए देवताओं के टूटे हुए अंग भी ठीक हो जाएंगे। भृगु की दाढ़ी बकरे जैसी हो जाएगी। सभी अध्वर्यु प्रसन्न होंगे।

यह कहकर वेदी के अनुसरणकर्ता, परम दयालु भगवान शंकर चुप हो गए। तत्पश्चात मैंने और विष्णुजी सहित सभी देवताओं ने भगवान शिव का धन्यवाद किया। फिर देवर्षियों सहित शिवजी को उस यज्ञ में आने के लिए आमंत्रित कर, हम लोग यज्ञ के स्थान पर गए, जहां दक्ष ने अपना यज्ञ आरंभ किया था। उस कनखल नामक यज्ञ क्षेत्र में शिवजी भी पधारे। तब उन्होंने वीरभद्र द्वारा किए गए उस विध्वंस को देखा। स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति,समस्त ऋषि, पितर, अग्नि व यज्ञ, गंधर्व और राक्षस वहां पड़े हुए थे। कितने ही लोग अपने प्राणों से हाथ धो चुके थे। तब भगवान शिव ने अपने परम पराक्रमी सेनापति वीरभद्र का स्मरण किया। याद करते ही वीरभद्र तुरंत वहां प्रकट हो गए और उन्होंने भगवान शिव को नमस्कार किया। तब शिवजी हंसते हुए बोले कि हे वीरभद्र! तुमने तो थोड़ी सी देर में सारा यज्ञ विध्वंस कर दिया और देवताओं को भी दंड दे दिया। हे वीरभद्र ! तुम इस यज्ञ का आयोजन करने वाले दक्ष को जल्दी से मेरे सामने ले आओ।

भगवान शिव की आज्ञा पाकर वीरभद्र गए और दक्ष का शरीर वहां लाकर रख दिया परंतु उसमें सिर नहीं था। दक्ष के शरीर को देखकर शिवजी ने वीरभद्र से पूछा कि दक्ष का सिर कहां है? तब वीरभद्र ने बताया कि दक्ष का सिर काटकर उसने यज्ञ की अग्नि में ही डाल दिया था। तब शिवजी के आदेशानुसार बकरे का सिर दक्ष के धड़ में जोड़ दिया गया। जैसे में ही शिवजी की कृपादृष्टि दक्ष के शरीर पर पड़ी वह जीवित हो गया। दक्ष के शरीर में प्राण आ गए और वह इस प्रकार उठ बैठा जैसे गहरी नींद से उठा हो । उठते ही उसने अपने सामने महादेव जी को देखा। उसने उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगा। उसके (दक्ष के) हृदय में प्रेम उमड़ आया और उसके प्रसन्नचित्त होते ही उसका कलुषित हृदय निर्मल हो गया। तब दक्ष को अपनी पुत्री का भी स्मरण हो गया और इस कारण दक्ष बहुत लज्जित महसूस करने लगा। तत्पश्चात अपने को संभालते हुए दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव से कहा- हे कल्याणमय महादेव जी! आप ही इस जगत के आदि और अंत हैं। आपने ही इस सृष्टि की रचना का विचार किया है। आपके द्वारा ही हर जीव की उत्पत्ति हुई है। मैंने आपके लिए अपशब्द कहे और आपको यज्ञ में भाग भी नहीं दिया। मेरे बुरे वचनों से आपको बहुत चोट पहुंची है। फिर भी आप मुझ पर कृपा कर यहां मेरा उद्धार करने आ गए। भगवन्! आप ऐश्वर्य से संपन्न हैं। आप ही परमपिता परमेश्वर हैं। प्रभु! आप मुझ पर एवं यहां उपस्थित सभी जनों पर प्रसन्न होइए और हमारी पूजा-अर्चना को स्वीकार कीजिए

ब्रह्माजी बोले: नारद! इस प्रकार भगवान शिव की स्तुति करने के बाद दक्ष चुप हो गए। तब श्रीहरि विष्णुजी ने भगवान शिव की बहुत स्तुति की। तत्पश्चात मैंने भी महादेव जी की बहुत स्तुति की। भगवन्! आपने मेरे पुत्र दक्ष पर अपनी कृपादृष्टि की और उसका उद्धार किया। देवेश्वर! अब आप प्रसन्न होकर सभी शापों से हमें मुक्ति प्रदान करें।

महामुनि! इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर खड़ा हो गया। हम सभी देवगणों की स्तुति सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उनका मुख खिल उठा। तब वहां उपस्थित इंद्र सहित अनेक सिद्धों, ऋषियों और प्रजापतियों ने भी भक्तवत्सल करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की। यज्ञशाला में उपस्थित अनेक उपदेवों, नागों तथा ब्राह्मणों ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनका प्रसन्न मन से स्तवन किया। इस प्रकार सभी देवों के मुख से अपना स्तवन सुनकर भगवान शिव को बहुत संतोष प्राप्त हुआ।