ब्रह्माजी कहते हैं: नारद! जब भगवान शिव देवी संध्या को वरदान देकर वहां से अंतर्धान हो गए, तब संध्या उस स्थान पर गई, जहां पर मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने अपने हृदय में तेजस्वी ब्रह्मचारी वशिष्ठ जी का स्मरण किया तथा उन्हीं को पतिरूप में पाने की इच्छा लेकर संध्या महायज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में कूद गई। अग्नि में उसका शरीर जलकर सूर्य मण्डल में प्रवेश कर गया। तब सूर्य ने पितरों और देवताओं की तृप्ति के लिए उसे दो भागों में बांटकर रथ में स्थापित कर दिया। उसके शरीर का ऊपरी भाग प्रातः संध्या हुआ और शेष भाग सायं संध्या हुआ। सायं संध्या से पितरों को संतुष्टि मिलती है। सूर्योदय से पूर्व जब आकाश में लाली छाई होती है अर्थात अरुणोदय होता है उस समय देवताओं का पूजन करें। जिस समय लाल कमल के समान सूर्य अस्त होता है अर्थात डूबता है उस समय पितरों का पूजन करना चाहिए। भगवान शिव ने संध्या के प्राणों को दिव्य शरीर प्रदान कर दिया। जब मेधातिथि मुनि का यज्ञ समाप्त हुआ, तब उन्होंने एक कन्या को, जिसकी कांति सोने के समान थी, अग्नि में पड़े देखा। उसे मुनि ने भली प्रकार स्नान कराया और अपनी गोद में बैठा लिया। उन्होंने उसका नाम ‘अरुंधती’ रखा। यज्ञ के निर्विघ्न समाप्त होने और पुत्री प्राप्त होने के कारण मेधातिथि मुनि बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने अरुंधती का पालन आश्रम में ही किया। वह धीरे-धीरे उसी चंद्रभागा नदी के तट पर रहते हुए बड़ी होने लगी। जब वह विवाह योग्य हुई तो हम त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने मेधा मुनि से बात कर, उसका विवाह मुनि वशिष्ठ से करा दिया।
मुने! मेधातिथि की पुत्री महासाध्वी अरुंधती अति पतिव्रता थी। वह मुनि वशिष्ठ को पति रूप में पाकर बहुत प्रसन्न थी। वह उनके साथ रमण करने लगी। उससे शक्ति आदि शुभ एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए। हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें परम पवित्र देवी संध्या का चरित्र सुनाया है। यह समस्त अभीष्ट फलों को देने वाला है। यह परम पावन और दिव्य है। जो स्त्री-पुरुष इस शुभ व्रत का पालन करते हैं, उनकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं।