्रह्माजी बोले: हे नारद! एक दिन मैं तुम्हें लेकर प्रजापति दक्ष के घर पहुंचा। वहां मैंने देवी सती को उनके पिता के पास बैठे देखा। मुझे देखकर दक्ष ने आसन से उठकर मुझे नमस्कार किया। तत्पश्चात सती ने भी प्रसन्नतापूर्वक मुझे नमस्कार किया। हम दोनों वहां आसन पर बैठ गए। तब मैंने देवी सती को आशीर्वाद देते हुए कहा- सती! जो केवल तुम्हें चाहते हैं और तुम्हारी ही कामना करते हैं। तुम भी मन में उन्हीं को सोचती हो और उसी के रूप का स्मरण करती हो। उन्हीं सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेव को तुम पति रूप में प्राप्त करो। वे ही तुम्हारे योग्य हैं। कुछ देर बाद दक्ष से विदा लेकर मैं अपने धाम को चल दिया। दक्ष को मेरी बातें सुनकर बड़ा संतोष एवं प्रसन्नता हुई। मेरे कथन से उनकी सारी चिंताएं दूर हो गईं। धीरे-धीरे सती ने कुमारावस्था पार कर ली और वे युवा अवस्था में प्रवेश कर गईं। उनका रूप अत्यंत मनोहारी था। उनका मुख दिव्य तेज से शोभायमान था। देवी सती को देखकर प्रजापति दक्ष को उनके विवाह की चिंता होने लगी। तब पिता के मन की बात जानकर देवी सती ने महादेव को पति रूप में पाने की इच्छा अपनी माता को बताई। उन्होंने अपनी माता से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने की आज्ञा मांगी। उनकी माता ने आज्ञा देकर घर पर ही उनकी आराधना आरंभ करा दी।
आश्विन मास में नंदा अर्थात प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियों में उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान शिव का पूजन कर उन्हें गुड़, भात और नमक का भोग लगाया व नमस्कार किया। इसी प्रकार एक मास बीत गया। कार्तिक मास की चतुर्दशी को देवी सती ने मालपुओं और खीर से भगवान शिव को भोग लगाया और उनका निरंतर चिंतन करती रहीं।
मार्गशीर्ष : के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वे तिल, जौ और चावल से शिवजी की आराधना करतीं और घी का दीपक जलातीं । पौष माह की शुक्ल पक्ष सप्तमी को पूरी रात जागरण कर सुबह खिचड़ी का भोग लगातीं । माघ की पूर्णिमा की रातभर वे शिव आराधना में लीन रहतीं और सुबह नदी में स्नान कर गीले वस्त्रों में ही पुनः पूजा करने बैठ जाती थीं। फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को जागरण कर शिवजी की विशेष पूजा करती थीं। उनका सारा समय शिवजी को समर्पित था। वे अपने दिन-रात शिवजी के स्मरण में ही बिताती थीं। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे ढाक के फूलों और दवनों से भगवान की पूजा करती थीं। वैशाख माह में वे सिर्फ तिलों को खाती थीं। वे नए जौ के भात से शिव पूजन करती थीं। ज्येष्ठ माह में वे भूखी रहतीं और वस्त्रों तथा भटकटैया के फूलों से शिव पूजन करती थीं। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे काले वस्त्रों और भटकटैया से रुद्रदेव का पूजन करती थीं। श्रावण मास में यज्ञोपवीत, वस्त्रों तथा कुश आदि से वे पूजन करती थीं।
भाद्रपद मास में विभिन्न फूलों व फलों से वे शिव को प्रसन्न करने की कोशिश करतीं। वे सिर्फ जल ही ग्रहण करती थीं। देवी सती हर समय भगवान शिव की आराधना में ही लीन रहती थीं। इस प्रकार उन्होंने दृढ़तापूर्वक नंदा व्रत को पूरा किया। व्रत पूरा करने के पश्चात वे शिवजी का ध्यान करने लगीं। वे निश्चित आसन में स्थित हो निरंतर शिव आराधना करती रहीं।
हे नारद! देवी सती की इस अनन्य भक्ति और तपस्या को अपनी आंखों से देखने मैं, विष्णु तथा अन्य सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि वहां गए। वहां सभी ने देवी सती को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और उनके सामने मस्तक झुकाए। सभी देवी-देवताओं ने उनकी तपस्या को सराहा। तब सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि मेरे (ब्रह्मा) और विष्णु सहित कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां भगवान शिव ध्यानमग्न थे। हमने उनके निकट जाकर, दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति आरंभ कर दी।
हमने कहा प्रभो! आप परम शक्तिशाली हैं। आप ही सत्व, रज और तप आदि शक्तियों के स्वामी हैं। वेदत्रयी, लोकत्रयी आपका स्वरूप है। आप अपनी शरण में आए भक्तों की सदैव रक्षा करते हैं। आप सदैव भक्तों का उद्धार करते हैं। हे महादेव! हे महेश्वर! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपकी महिमा जान पाना कठिन ही नहीं असंभव है। हम आपके सामने अपना मस्तक झुकाते हैं।
ब्रह्माजी बोले: नारद! इस प्रकार भगवान शिव-शंकर की स्तुति करके सभी देवता मस्तक झुकाकर शिवजी के सामने चुपचाप खडे़ हो गए।