तारकासुर का जन्म व उसका तप – पंद्रहवां अध्याय

ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! कुछ समय बाद वज्रांग की पत्नी गर्भवती हो गई। समय पूर्ण होने पर उसकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। वह बालक बहुत लंबा-चौड़ा था। उसका शरीर बहुत अधिक विशाल था । वह अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी था। उसके जन्म के समय सारे संसार में कोहराम मच गया। चारों ओर उपद्रव होने लगे। आकाश में भयानक बिजलियां चमकने लगीं तथा चारों दिशाओं में भयंकर गर्जनाएं होने लगीं। धरती पर भूकंप आ गया। पहाड़ कांपने लगे। नदी, सरोवर का जल जोर-जोर से उछलने लगा। चारों ओर आंधियां चलने लगीं। सूर्य को राहु ने निगल लिया और चारों ओर अंधकार छा गया। उसके जन्म के समय के ऐसे अशुभ लक्षणों को देखते हुए कश्यप मुनि ने उसका नाम तारक रखा । तारक का जन्म हो जाने पर वज्रांग के घर ही उसका लालन-पालन होने लगा। थोड़े ही समय में तारक का शरीर और बड़ा हो गया। वह पर्वत के समान विशाल और विकराल होता जा रहा था। कुछ समय पश्चात तारक ने अपनी माता और पिता वज्रांग से तपस्या करने की आज्ञा मांगी। तब उसके माता-पिता ने प्रसन्नतापूर्वक उसको आज्ञा प्रदान कर दी। साथ ही उसकी माता ने उसे यह आदेश दिया कि वह देवताओं को अवश्य जीते और उन पर अपना आधिपत्य कर स्वर्ग पर अधिकार कर ले।

अपनी माता की आज्ञा पाकर वज्रांग का पुत्र तारक तपस्या करने के लिए मधुवन चला गया। वहां तारक ने मुझे प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करना आरंभ कर दिया। उसने अपने दोनों हाथों को सिर के ऊपर ऊंचा कर लिया और ऊपर की ओर देखने लगा तथा एक पैर पर खड़े होकर एकाग्र मन से सौ वर्ष तक तपस्या करता रहा। उस समय वह केवल जल और वायु से ही अपना जीवन यापन कर रहा था। तत्पश्चात उसने सौ वर्ष जल में, सौ वर्ष थल में, सौ वर्ष अग्नि में रहकर कठिन तप करके मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। फिर सौ वर्ष पृथ्वी पर हथेली धारण करके, सौ वर्ष वृक्ष की शाखा को पकड़कर तथा अनेकों प्रकार के दुख सह सहकर वह तप करता रहा। इस तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से तेज निकलने लगा। जिससे देव लोक जलने लगा। यह देखकर सभी देवता घबरा गए। फिर मैं स्वयं तारकासुर के पास वरदान देने के लिए गया। मैंने तारकासुर से कहा- तारक! मैं तुम्हारी इस दुस्सह तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने इस प्रकार कठोर तप करके मुझे प्रसन्न किया है। तुम्हारा इसके पीछे क्या प्रयोजन है, निस्संकोच मुझे बताओ। मैं तुम्हें तुम्हारा मनोवांछित फल अवश्य प्रदान करूंगा। तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो। ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर तारकासुर उनकी स्तुति करने लगा।

तत्पश्चात वह बोला ;- हे विधाता! हे ब्रह्माजी! अगर आप मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे वरदान देना चाहते हैं तो प्रभु मुझे पहला वर यह दें कि आपके द्वारा बनाई गई इस सृष्टि में, मेरे समान कोई भी

तेजवान और बलवान न हो। दूसरा वर यह दें कि मैं अमर हो जाऊं अर्थात कभी भी मृत्यु को प्राप्त न होऊं। तब मैंने कहा कि इस संसार में कोई भी अमर नहीं है । इसलिए तुम इच्छानुसार मृत्यु का वर मांगो। तारक ने अहंकार भरी विनम्रता से निवेदन किया- भगवन्! मेरी मृत्यु भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न बालक के चलाए हुए शस्त्र से ही हो और कोई मेरा वध न कर पाए।

मैंने तारक को उसके मांगे हुए वर प्रदान कर दिए तथा अपने लोक में लौट आया। वर पाकर तारक बहुत खुश था। वह भी वर प्राप्ति का समाचार देने के लिए अपने घर को चला गया। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने तारक को असुरों का राजा बना दिया। अब तारक तारकासुर नाम से प्रसिद्ध हो गया। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था इसलिए सबको पीड़ित कर, उनसे युद्ध कर, उन्हें हराकर सबके राज्यों पर अपना अधिकार करता जा रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र ने भी डरकर अपना वाहन ऐरावत हाथी, अपना खजाना और नौ सफेद रंग के घोड़े उसे दे दिए। ऋषियों ने डर के मारे कामधेनु गाय तारकासुर को दे दी। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी अपनी-अपनी प्रिय वस्तुएं तारकासुर को अर्पित कर दीं। अन्य लोगों के पास भी जो उत्तम उत्तम वस्तुएं थीं उन्हें भी दैत्यराज तारक ने अपने अधिकार में कर लिया। इतना ही नहीं समुद्रों ने भी भयभीत होकर अपने अंदर छिपे सभी अमूल्य रत्न निकालकर तारकासुर को सौंप दिए। तारकासुर के भय से पूरा जगत कांपने लगा था। उसका आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था। पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि सभी तारकासुर के डर के कारण अपने सभी कार्य सुचारु रूप से कर रहे थे। दैत्यराज तारकासुर ने देवताओं और पितरों के भागों पर भी अपना अधिकार जमा लिया था। उसने इंद्र को युद्ध में हराकर स्वर्ग का सिंहासन भी हासिल कर लिया था। उसने स्वर्ग के में सभी देवताओं को वहां से निष्कासित कर दिया, जो अपनी प्राण रक्षा के लिए इधर-उधर भटक रहे थे।

तारकासुर का जन्म और तपस्या

ब्रह्माजी ने कहा, “हे मुनिश्रेष्ठ नारद! कुछ समय बाद वज्रांग की पत्नी गर्भवती हुईं, और समय पूरा होने पर उन्होंने एक अत्यंत विशाल, शक्तिशाली और पराक्रमी पुत्र को जन्म दिया। उसका शरीर पर्वत के समान विशाल था और उसके जन्म के समय चारों ओर भयंकर अशुभ लक्षणों ने जन्म लिया। आकाश में बिजलियां चमकने लगीं, पृथ्वी में भूकंप आया, और नदी-तालाबों का जल उछलने लगा। सूर्य को राहु ने निगल लिया और चारों ओर अंधकार छा गया। इन अशुभ लक्षणों को देखकर कश्यप मुनि ने उसका नाम ‘तारक’ रखा।”

तारकासुर का तप और वरदान

“तारकासुर का लालन-पालन वज्रांग के घर ही हुआ। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, उसकी शक्ति भी बढ़ती गई। कुछ समय बाद उसने तपस्या करने की इच्छा जाहिर की, और माता-पिता की आज्ञा पाकर वह तपस्या के लिए मधुवन चला गया। वहां उसने कठोर तपस्या की। उसने एक पैर पर खड़े होकर सौ वर्ष तक तपस्या की, जल, थल, अग्नि और पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार से कठिन तपस्या की।”

“इस तपस्या से उसका शरीर तेज से जलने लगा, जिससे देव लोक में भयंकर आग लग गई। यह देखकर सभी देवता घबराए और मैं स्वयं तारकासुर के पास गया। मैंने कहा, ‘तुमने इतनी कठिन तपस्या की है, मैं प्रसन्न हूं। बताओ, तुम्हारी इच्छा क्या है? मैं तुम्हें वरदान दूंगा।'”

तारकासुर की इच्छाएं

“तारकासुर ने मेरी स्तुति की और कहा, ‘हे ब्रह्माजी! यदि आप मुझे वरदान देना चाहते हैं, तो मुझे पहला वर यह दें कि इस सृष्टि में मेरा कोई समान तेजवान और बलवान न हो। दूसरा वर यह दें कि मैं अमर हो जाऊं, ताकि मुझे कोई भी मृत्यु न प्राप्त हो।’ मैंने कहा, ‘इस संसार में कोई भी अमर नहीं है, इसलिए मृत्यु का वर मांगो।’ तब तारकासुर ने कहा, ‘मेरी मृत्यु भगवान शिव के वीर्य से उत्पन्न किसी बालक के शस्त्र से हो, और कोई न मुझे मार सके।'”

“मैंने उसे यह वरदान दे दिया और अपने लोक लौट आया। तारकासुर वर प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न हुआ और अपने घर लौट गया।”

तारकासुर का आतंक

“तारकासुर अब असुरों का राजा बन चुका था। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने उसे यह पद सौंपा। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए युद्ध करने लगा। इंद्र ने डरकर अपना ऐरावत हाथी, खजाना और नौ सफेद घोड़े उसे दे दिए। ऋषियों ने भी कामधेनु गाय उसे सौंप दी। इसी प्रकार सभी देवताओं ने अपनी प्रिय वस्तुएं तारकासुर को अर्पित कर दीं।”

“तारकासुर का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि सभी उसके डर के कारण अपने कार्यों को ठीक से कर रहे थे। दैत्यराज तारकासुर ने देवताओं और पितरों के भागों पर भी अपना अधिकार जमा लिया। उसने इंद्र को हराकर स्वर्ग का सिंहासन भी प्राप्त किया और सभी देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया।”

निष्कर्ष

तारकासुर की इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि उसका जन्म और शक्ति अत्यधिक विशाल थी, और उसने अपने तपस्या और बल के प्रभाव से सभी देवताओं को अत्यधिक पीड़ित किया। उसकी बढ़ती शक्ति ने समस्त त्रिलोकी में आतंक मचा दिया, और उसने देवताओं से उनकी प्रिय वस्तुएं तक छीन लीं।