सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा – चौबीसवां अध्याय

ब्रह्माजी कहते हैं ;— देवताओं के अपने-अपने निवास पर लौट जाने के उपरांत भगवान शिव पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने के विषय में सोचने लगे। वे अपने परात्पर, माया रहित स्वरूप का चिंतन करने लगे। वैसे तो वे सर्वेश्वर और सर्वज्ञ हैं। वे ही सब के रचनाकार और परमेश्वर हैं।

उस समय देवी पार्वती बहुत कठोर तप कर रही थीं। उस तपस्या को देखकर स्वयं भगवान शिव भी आश्चर्यचकित हो गए। उनकी अटूट भक्ति ने शिवजी को विचलित कर दिया। तब भगवान शिव ने सप्तऋषियों का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही सातों ऋषि वहां आ गए। वे अत्यंत प्रसन्न थे और अपने सौभाग्य की सराहना कर रहे थे। उन्हें देखकर शिवजी हंसते हुए बोले- आप सभी परम हितकारी व सभी वस्तुओं का ज्ञान रखने वाले हैं। गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती इस समय सुस्थिर होकर शुद्ध हृदय से गौरी शिखर पर्वत पर घोर तपस्या कर रही हैं। उनकी इस तपस्या का एकमात्र उद्देश्य मुझे पति रूप में प्राप्त करना है। उन्होंने अपनी सभी कामनाओं को त्याग दिया है। मुनिवरों, आप सब मेरी इच्छा से देवी पार्वती के पास जाएं और उनकी दृढ़ता की परीक्षा लें।

भगवान शिव की आज्ञा पाकर सातों ऋषि देवी पार्वती के तपस्या वाले स्थान पर चले गए। वहां देवी पार्वती तपस्या में लीन थीं। उनका मुख तपपुंज से प्रकाशित था। उन उत्तम व्रतधारी सप्तऋषियों ने हाथ जोड़कर मन ही मन देवी पार्वती को प्रणाम किया।

तत्पश्चात ऋषि बोले ;– हे देवी! गिरिराज नंदिनी! हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि आप किसलिए यह तपस्या कर रही हैं? आप इस तप के द्वारा किस देवता को प्रसन्न करना चाहती हैं? और आपको किस फल की इच्छा है?

उन सप्तऋषियों के इस प्रकार पूछने पर गिरिराजकुमारी देवी पार्वती बोलीं – मुनीश्वरो! आप लोगों को मेरी बातें अवश्य ही असंभव लगेंगी। साथ ही मुझे इस बात की भी आशंका है कि आप लोग मेरा परिहास उड़ाएंगे परंतु फिर भी जब आपने मुझसे कुछ पूछा है तो मैं आपको इसका उत्तर अवश्य दूंगी। मेरा मन एक बहुत उत्तम कार्य के लिए तपस्या कर रहा है। वैसे तो यह कार्य होना बहुत मुश्किल है, तथापि मैं इसकी सिद्धि हेतु पूरे मनोयोग से कार्य कर रही हूं। देवर्षि नारद द्वारा दिए गए उपदेश के अनुसार मैं भगवान शिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए उनकी तपस्या कर रही हूं। मेरा मन सर्वथा उन्हीं के ध्यान में मग्न रहता है तथा मैं उन्हीं के चरणारविंदों का चिंतन करती रहती हूं।

देवी पार्वती का यह वचन सुनकर सप्तर्षि हंसने लगे और पार्वती को तपस्या मार्ग से निवृत्त करने के उद्देश्य से मिथ्या वचन बोलने लगे। उन्होंने कहा- ‘हे हिमालय पुत्री पार्वती! देवर्षि नारद तो व्यर्थ ही अपने को महान पंडित मानते हैं। उनके मन में क्रूरता भरी रहती है ।

आप तो बहुत समझदार दिखाई देती हैं। क्या आप उनको समझ नहीं पाईं ? नारद सदैव छल-कपट की बातें करते हैं। वे दूसरों को मोह-माया में डालते रहते हैं। उनकी बातें मानने से सिर्फ हानि ही होती है। प्रजापति दक्ष के पुत्रों को उन्होंने ऐसा उपदेश दिया कि वे हमेशा के लिए अपना घर छोड़कर चले गए। दक्ष के ही अन्य पुत्रों को भी उन्होंने बेघर कर दिया और वे भिखारी बन गए। विद्याधर चित्रकेतु का नारद ने घर उजाड़ दिया। प्रह्लाद को भक्ति मार्ग पर चलवाकर और उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्होंने हिरण्यकशिपु से प्रह्लाद पर बहुत से अत्याचार करवाए। मुनि नारद सदैव लोगों को अपनी मीठी-मीठी वाणी द्वारा मोहित करते हैं। फिर अपनी इच्छानुसार सबसे कार्य करवाते हैं। वे केवल शरीर से ही शुद्ध दिखाई देते हैं जबकि उनका मन मलिन और क्लेशयुक्त रहता है। वे सदैव हमारे साथ रहते हैं। इसलिए हम उन्हें भली-भांति जानते और पहचानते हैं। हे देवी! आप तो अत्यंत विद्वान और परम ज्ञानी जान पड़ती हैं। भला आप कैसे नारद के द्वारा मूर्ख बन गईं?

देवी! आप जिनके लिए इतनी कठोर तपस्या कर रही हैं, वे भगवान शिव तो बहुत उदासीन और निर्विकार हैं। वे सदैव काम के शत्रु हैं। हे पार्वती! आप थोड़ा विचार करके देखो कि आप किस प्रकार का पति चाहती हैं? आप मुनि नारद के बहकावे में न आएं। भगवान शिव तो महा निर्लज्ज, अमंगल रूप, काम के परम शत्रु, निर्विकारी, उदासीन, कुल से हीन, भूतों व प्रेतों के साथ रहने वाले हैं। भला इस प्रकार का पति पाकर आपको किस प्रकार का सुख मिल सकता है? नारद मुनि ने अपनी माया से तुम्हारे ज्ञान और विवेक को पूर्णतया नष्ट कर दिया है और तुम्हें अपनी छल-कपट-प्रपंच वाली बातों से छला है। देवी ! कृपया आप यह सोचें कि इन्हीं शिव शंकर ने परम गुणवती सुंदर दक्ष पुत्री सती के साथ विवाह किया था। उस बेचारी को भी उनके साथ अत्यंत दुख उठाने पड़े। भगवान शिव सती को त्यागकर पुनः अपने ध्यान में निमग्न हो गए। वे सदा अकेले और शांत रहने वाले हैं। वे किसी स्त्री के साथ निर्वाह नहीं कर सकते। तभी तो देवी सती ने इसी दुख के कारण अपने पिता के घर जाकर अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया था।

हे देवी! इन सब बातों को यदि आप शांत मन से ध्यान लगाकर सोचें तो पूर्णतया सही पाएंगी। इसलिए हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप यह तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न करने का हठ छोड़ दें और वापिस अपने पिता हिमालय के घर चली जाएं। जहां तक आपके विवाह का प्रश्न है हम आपका विवाह योग्य वर से अवश्य करा देंगे। इस समय आपके लिए त्रिलोकी में सबसे योग्य पुरुष बैकुण्ठ के स्वामी, लक्ष्मीपति श्रीहरि विष्णु हैं। वे तुम्हारे अनुरूप ही सुंदर एवं मंगलकारी हैं। उन्हें पति के रूप में प्राप्त करके आप सुखी हो जाएंगी। अतः देवी आप भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के इस हठ को त्याग दें।

सप्तऋषियों की ऐसी बातें सुनकर साक्षात जगदंबा का अवतार देवी पार्वती हंसने लगीं और उन परम ज्ञानी सप्तऋषियों से बोलीं- हे मुनीश्वरो, आप अपनी समझ के अनुसार सही कह रहे हैं परंतु मैं अपने दृढ़ विश्वास को त्याग नहीं सकती। मैं गिरिराज हिमालय की पुत्री हूं। पर्वत पुत्री होने के कारण मैं स्वाभाविक रूप से कठोर हूं। मैं तपस्या से घबरा नहीं सकती। इसलिए हे मुनिगणो, आप मुझे रोकने की चेष्टा न करें। मैं जानती हूं कि देवर्षि नारद ने जो उपदेश मुझे दिया है और शिवजी की प्राप्ति का साधन जो मुझे बताया है, वह असत्य नहीं है। मैं उसका पालन अवश्य करूंगी। यह तो सर्वविदित है कि गुरुजनों का वचन सदैव हित के लिए ही होता है। इसलिए मैं अपने गुरु नारद जी के वचनों का सर्वथा पालन करूंगी। इससे ही मुझे दुखों से छुटकारा मिलेगा और सुख की प्राप्ति होगी। जो गुरु के वचनों को मिथ्या जानकर उन पर नहीं चलते, उन्हें इस लोक और परलोक में दुख ही मिलता है। इसलिए गुरु के वचनों को पत्थर की लकीर मानकर उनका पालन करना चाहिए। अतः मेरा घर बसे या न बसे, मैं तपस्या का यह पथ नहीं छोडूंगी।

हे मुनिश्वरो! आपका कथन भी सही है। भगवान विष्णु सद्गुणों से युक्त हैं तथा नित नई लीलाएं रचते हैं परंतु भगवान शिव साक्षात परब्रह्म हैं। वे परम आनंदमय हैं। माया-मोह में फंसे लोगों को ही प्रपंचों की आवश्यकता होती है। ईश्वर को इन सबकी न तो कोई आवश्यकता होती है और न ही रुचि । भगवान शिव सिर्फ भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। वे धर्म या जाति विशेष पर कृपा नहीं करते। ऋषियो ! यदि भगवान शिव मुझे पत्नी रूप में नहीं स्वीकारेंगे, तो मैं आजीवन कुंवारी ही रहूंगी और किसी अन्य का वरण कदापि नहीं करूंगी। यदि सूर्य पूर्व की जगह पश्चिम से निकलने लगे, पर्वत अपना स्थान छोड़ दें और अग्नि शीतलता अपना ले, चट्टानों पर फूल खिलने लगें, तो भी मैं अपना हठ नहीं छोडूंगी।

ऐसा कहकर देवी पार्वती ने सप्तऋषियों को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा भक्तिभाव से शिव चरणों का स्मरण करते हुए पुनः तपस्या में लीन हो गईं। तब पार्वती के श्रीमुख से उनका दृढ़ निश्चय सुनकर सप्तऋषि बहुत प्रसन्न हुए और उनकी जय-जयकार करने लगे। उन्होंने पार्वती को तपस्या में सफल होकर भगवान शिव से मनोवांछित वरदान प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात देवी पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने गए सप्तर्षि उन्हें प्रणाम करके प्रसन्न मुद्रा में भगवान शिव को वहां हुई सभी बातों का ज्ञान कराने के लिए शीघ्र उनके धाम की ओर चल दिए। तब भगवान शिव शंकर के पास पहुंचकर सप्तऋषियों ने उनके समीप जाकर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। तत्पश्चात सप्तऋषियों ने महादेव जी को सारा वृत्तांत बताया। फिर प्रभु शिव की आज्ञा पाकर सप्तऋषि स्वर्गलोक चले गए।

देवी पार्वती की तपस्या और भगवान शिव की परीक्षा का सारांश

देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या देखकर देवताओं और स्वयं भगवान शिव भी प्रभावित हुए। भगवान शिव ने सप्तऋषियों को उनकी तपस्या की परीक्षा लेने भेजा।

सप्तऋषियों का आगमन और संवाद

सप्तऋषियों ने देवी पार्वती से उनकी तपस्या का कारण पूछा। पार्वती ने उत्तर दिया कि वे भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तप कर रही हैं। सप्तऋषियों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया और कहा कि भगवान शिव निर्लज्ज, निर्विकारी, और ध्यानमग्न रहने वाले हैं। उन्होंने भगवान विष्णु को उपयुक्त पति बताकर तपस्या छोड़ने का आग्रह किया।

देवी पार्वती का दृढ़ निश्चय

पार्वती ने सप्तऋषियों के तर्कों को विनम्रता से ठुकराते हुए कहा कि भगवान शिव ही उनके आराध्य हैं। उन्होंने गुरु नारद के उपदेशों पर विश्वास जताया और कहा कि चाहे संसार की सारी व्यवस्थाएं बदल जाएं, वे अपनी तपस्या नहीं छोड़ेंगी।

सप्तऋषियों की प्रसन्नता और भगवान शिव को सूचना

पार्वती के दृढ़ निश्चय को देखकर सप्तऋषि प्रसन्न हुए और उन्हें तपस्या में सफलता का आशीर्वाद दिया। वे भगवान शिव के पास लौटकर सारी घटना सुनाने के लिए चले गए।

निष्कर्ष

देवी पार्वती की तपस्या उनके दृढ़ निश्चय और भक्ति का प्रतीक है। यह कथा सिखाती है कि सच्चे प्रेम और भक्ति से भगवान को भी प्रसन्न किया जा सकता है।