शिव-पार्वती संवाद – अट्ठाईसवां अध्याय

ब्रह्माजी कहते हैं ;— नारद! परमेश्वर भगवान शिव की बातें सुनकर और उनके साक्षात स्वरूप का दर्शन पाकर देवी पार्वती को बहुत हर्ष हुआ। उनका मुख मंडल प्रसन्नता के कारण कमल दल के समान खिल उठा। उस समय वे बहुत सुख का अनुभव करने लगीं। अपने सम्मुख खड़े महादेव जी से वे इस प्रकार बोलीं- हे देवेश्वर ! आप सबके स्वामी हैं। हे प्रभो! पूर्वकाल आपने जिस प्रिया के कारण प्रजापति दक्ष के संपूर्ण यज्ञ का पलों विनाश कर दिया था, भला उसे ऐसे ही क्यों भुला दिया? हे सर्वेश्वर! हम दोनों का साथ तो जन्म-जन्मांतर का है। प्रभु ! इस समय मैं समस्त देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनको तारकासुर के दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए पर्वतों के राजा हिमालय की पत्नी देवी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुई हूं। आपको ज्ञात ही है कि आपको पुनः पति रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैंने यह कठोर तपस्या की है।

इसलिए देवेश! आप मुझसे विवाह कर मुझे मेरी इच्छानुसार अपनी पत्नी बना लें। भगवन् आप तो अनेक लीलाएं रचते हैं। अब आप मेरे पिता शैलराज हिमालय और मेरी माता मैना के समक्ष चलकर उनसे मेरा हाथ मांग लीजिए।

भगवन्! जब आप इन सब बातों से मेरे पिता को अवगत कराएंगे, तब वे निश्चय ही मेरा हाथ प्रसन्नतापूर्वक आपको सौंप देंगे। पूर्व जन्म में जब मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी, उस समय मेरा और आपका विवाह हुआ था। तब मेरे पिता दक्ष ने ग्रहों की पूजा नहीं की थी। उस विवाह में ग्रहपूजन से संबंधित बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी। मैं यह चाहती हूं कि इस बार शास्त्रोक्त विधि से हमारा विवाह संपन्न हो। हमें विवाह से संबंधित सभी रीति-रिवाजों और रस्मों का भली-भांति पालन करना चाहिए ताकि इस बार हमारा विवाह सफल हो सके। देवेश्वर ! आप मेरे पिता हिमालय को इस संबंध में बताएं ताकि उन्हें अपनी पुत्री की तपस्या के विषय में ज्ञात हो सके।

देवी पार्वती के प्रेम और निष्ठा भरे इन शब्दों को सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और हंसते हुए बोले ;- हे देवी! महेश्वरी! इस संसार में हमारे आस-पास जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब ही नाशवान अर्थात नश्वर है। मैं निर्गुण परमात्मा हूं। मैं अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होता हूं। मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है। देवी आप समस्त कर्मों को करने वाली प्रकृति हैं। आप ही महामाया हैं। आपने ही मुझे इस माया-मोह के बंधनों में फंसाया है। मैंने इन सभी को धारण कर रखा है। कौन मुख्य ग्रह है? कौन ऋतु समूह हैं? हे देवी! आप और मैं दोनों ही सदैव अपने भक्तों को सुख देने के लिए ही अवतार ग्रहण करते हैं। आप सगुण और निर्गुण प्रकृति हैं। हे गिरिजे! मैं आपके पिता के पास आपका हाथ मांगने के लिए नहीं जा सकता । फिर भी आपकी इच्छा को पूरा करना मेरा कर्तव्य है। अतः आप जैसा कहेंगी मैं अवश्य करूंगा।

महादेव जी के ऐसा कहने पर देवी पार्वती अति हर्ष का अनुभव करने लगीं और शिवजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके बोलीं ;- हे नाथ! आप परमात्मा हैं और मैं प्रकृति हूं। हम दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र एवं सगुण है, फिर भी अपने भक्तों की इच्छा पूरा करना हमारा कर्तव्य है। भगवन्! मेरे पिता हिमालय से मेरा हाथ मांगकर उन्हें दाता होने का सौभाग्य प्रदान करें।

हे प्रभु! आप तो जगत में भक्तवत्सल नाम से विख्यात हैं। मैं भी तो आपकी परम भक्त हूं। क्या मेरी इच्छा को पूरा करना आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं है? नाथ! हम दोनों जन्म-जन्म से एक-दूसरे के ही हैं। हमारा अस्तित्व एक साथ है। तभी तो आपका अर्द्धनारीश्वर रूप सभी मनुष्यों, ऋषि-मुनियों एवं देवताओं द्वारा पूज्य है। मैं आपकी पत्नी हूं। मैं जानती हूं कि आप निर्गुण, निराकार और परमब्रह्म परमेश्वर हैं। आप सदा अपने भक्तों का हित करने वाले हैं। आप अनेकों प्रकार की लीलाएं रचते हैं। भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं। मुझ दीन पर भी अपनी कृपादृष्टि करिए और अनोखी लीला रचकर इस कार्य की सिद्धि कीजिए।

नारद! ऐसा कहकर देवी पार्वती दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर खड़ी हो गईं। अपनी प्राणवल्लभा पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए महादेवजी ने हिमालय से उनका हाथ मांगने हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तत्पश्चात त्रिलोकीनाथ महादेव जी उस स्थान से अंतर्धान होकर अपने निवास कैलाश पर्वत पर चले गए । कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सारा वृत्तांत नंदीश्वर सहित अपने सभी गणों को सुनाया। यह जानकर सभी गण बहुत खुश हुए और नाचने-गाने लगे। उस समय वहां महान उत्सव होने लगा। उस समय सभी खुश थे और आनंद का वातावरण था।

देवी पार्वती की प्रेमपूर्ण प्रार्थना और भगवान शिव का उत्तर

पार्वती का निवेदन
देवी पार्वती ने भगवान शिव से कहा, “हे देवेश्वर! आप सबके स्वामी हैं। आपने पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष के यज्ञ को नष्ट किया था, लेकिन उस समय आपने मेरी प्रियता को भुला दिया था। हमारे साथ तो जन्म-जन्मांतर का संबंध है। प्रभु, मैंने तपस्या की है ताकि आप पुनः मेरे पति बनें। अब आप मेरे पिता हिमालय और माता मैना के पास जाकर उनसे मेरा हाथ मांग लें। वे निश्चित रूप से प्रसन्न होकर मुझे आपके हवाले कर देंगे।”

पार्वती ने यह भी कहा, “जब मैं पूर्व जन्म में सती थी, तब मेरे पिता ने हमारे विवाह में कुछ त्रुटियां की थीं, लेकिन इस बार हम शास्त्रों के अनुसार विवाह करना चाहते हैं। हमें सभी रीति-रिवाजों का पालन करना चाहिए ताकि हमारा विवाह सफल हो सके।”

भगवान शिव का उत्तर
भगवान शिव ने देवी पार्वती की बातों को सुना और हंसी के साथ उत्तर दिया, “हे देवी! यह संसार समस्त वस्तुएं नाशवान हैं। मैं निर्गुण परमात्मा हूं, और मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है। आप प्रकृति और महामाया हैं, और आपने ही मुझे इस माया के बंधनों में बांध रखा है। हम दोनों ही अपने भक्तों की भलाई के लिए अवतार ग्रहण करते हैं।”

शिव जी ने कहा, “मैं आपके पिता हिमालय के पास जाकर आपका हाथ मांगने नहीं जा सकता, लेकिन आपकी इच्छा का सम्मान करते हुए मैं जो कुछ भी कहेंगे, वही करूंगा।”

देवी पार्वती का हर्ष और शिव की स्वीकृति
भगवान शिव के उत्तर से देवी पार्वती अत्यंत प्रसन्न हुईं। उन्होंने भक्तिपूर्वक शिवजी को प्रणाम किया और कहा, “हे प्रभु! आप परमात्मा हैं, और मैं प्रकृति हूं। हम दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है, फिर भी हम दोनों का उद्देश्य केवल अपने भक्तों की भलाई है। आप भक्तवत्सल हैं, क्या मेरी इच्छा पूरी करना आपके लिए कठिन है? हम दोनों जन्म-जन्म से एक-दूसरे के हैं।”

देवी पार्वती ने भगवान शिव से अनुरोध किया, “आप मुझ पर कृपा कर मुझे इस कार्य में सफलता प्रदान करें। मैं जानती हूं कि आप सर्वज्ञ हैं और आप अपनी लीलाओं से सब कुछ साकार करते हैं। कृपया आप अपनी दिव्य कृपा से इस कार्य को सिद्ध करें।”

भगवान शिव की स्वीकृति और आनंद
भगवान शिव ने देवी पार्वती की इच्छा का सम्मान किया और स्वीकृति दी। उन्होंने हिमालय से पार्वती का हाथ मांगने का निर्णय लिया। इसके बाद महादेव जी कैलाश पर्वत लौट गए और वहां नंदीश्वर सहित सभी गणों को यह खुशी की खबर सुनाई। इस समाचार से सभी गण आनंदित हो गए और उत्सव का माहौल बन गया। सभी गण खुशी से नाचने-गाने लगे, और वहां आनंद का वातावरण छा गया।