शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना – उनतीसवां अध्याय

ब्रह्माजी बोले ;- हे महामुनि नारद! भगवान शिव के वहां से अंतर्धान हो जाने के उपरांत देवी पार्वती भी अपनी सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके आने का शुभ समाचार सुनकर देवी मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और तुरंत सिंहासन से उठकर देवी पार्वती से मिलने के लिए चल दिए। उनके सभी भाई भी उनकी जय-जयकार करते हुए उनसे मिलने के लिए आगे चले गए। देवी पार्वती अपने नगर के निकट पहुंचीं। वहां उन्होंने अपने माता-पिता और भाइयों को नगर के मुख्य द्वार पर अपना इंतजार करते पाया। वे अत्यंत हर्ष से विभोर होकर उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे। पार्वती ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। हिमालय और मैना ने अपनी पुत्री को अनेकानेक आशीर्वाद देकर गले से लगा लिया। भाव विह्वल होकर उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे। सभी उपस्थित लोगों ने उनकी मुक्त हृदय से प्रशंसा की। वे कहने लगे कि पार्वती ने उनके कुल का उद्धार किया है और अपने मनोवांछित कार्य की सिद्धि की है। इस प्रकार सभी प्रसन्न थे और उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं थक रहे थे। लोगों ने सुगंधित पुष्पों, चंदन एवं अन्य सामग्रियों से देवी पार्वती का पूजन किया। इस शुभ बेला में उन पर स्वर्ग से देवताओं ने भी पुष्प । वर्षा की तथा उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बहुत आदर सहित उन्हें घर की ओर जाया गया और विधि-विधान से उनका गृह प्रवेश कराया गया। ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों, देवताओं और प्रजाजनों ने उन्हें अनेकों शुभ व उत्तम आशीर्वाद प्रदान किए।

इस शुभ अवसर पर शैलराज हिमालय ने ब्राह्मणों एवं दीन-दुखियों को दान दिया। उन्होंने ब्राह्मणों से मंगल पाठ भी कराया। उन्होंने पधारे हुए सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और स्त्री पुरुषों का आदर सत्कार किया। तत्पश्चात हिमालय अपनी पत्नी मैना को साथ लेकर गंगा स्नान को चलने लगे, तभी भगवान शिव नाचने वाले नट का वेश धारण करके उनके समीप पहुंचे। उनके बाएं हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू था और पीठ पर कथरी रखी थी उन्होंने सुंदर, लाल वस्त्र पहने थे । नाचने-गाने में वे पूर्णतः मग्न थे । नट रूप धारण किए हुए शिवजी ने बहुत सुंदर नृत्य किया और अनेक प्रकार के गीत गा-गाकर सभी का मन मोह लिया। नृत्य करते समय वे बीच-बीच में शंख और डमरू भी बजा रहे थे और मनोरम लीलाएं कर रहे थे। उनकी इस प्रकार की मन को हरने वाली लीलाएं देखने के लिए पूरे नगर के स्त्री पुरुष, बच्चे-बूढ़े, वहां आ गए। नटरूपी भगवान शिव को नृत्य करते हुए देखकर और उनका गाना सुनकर सभी मंत्र मुग्ध हो गए। परंतु देवी पार्वती से भला यह कब तक छिपता? उन्होंने मन ही मन अपने प्रिय महादेव जी के साक्षात दर्शन कर लिए। शिवजी का रूप ही अलौकिक है। उन्होंने पूरे शरीर पर विभूति मल रखी थी तथा उनके शरीर पर त्रिशूल बना हुआ था। गले में हड्डियों की माला पहन रखी थी। उनका मुख सूर्य के तेज के समान शोभा पा रहा था।

उनके गले में यज्ञोपवीत के समान नाग लटका हुआ था । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के इस सुंदर, मनोहारी स्वरूप का हृदय में दर्शन कर लेने मात्र से ही देवी पार्वती हर्षातिरेक से बेहोश हो गईं। वे जैसे उनके स्वप्न में कह रहे थे कि देवी ‘अपना मनोवांछित वर मांगो।’ हृदय में विराजमान इस अनोखे स्वरूप को मन ही मन प्रणाम करके पार्वती ने कहा कि भगवन्! मेरे पति बन जाइए। तब देवेश्वर ने मुस्कुराते हुए ‘तथास्तु’ कहा और उनके स्वप्न से अंतर्धान हो गए। जब उनकी आंखें खुलीं तो उन्होंने शिवजी को नट रूप धारण किए वहां नाचते-गाते देखा।

नट के रूप में स्वयं भक्तवत्सल भगवान शिव के नाच-गाने से प्रसन्न होकर पार्वती की माता मैना सोने की थाली में रत्न, माणिक, हीरे और सोना लेकर उन्हें भिक्षा देने के लिए आईं। उनका ऐश्वर्य देखकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए परंतु उन्होंने उन सुंदर रत्नों और आभूषणों को लेने से इनकार कर दिया।

वे बोले ;- देवी! भला मुझे रत्नों और आभूषणों से क्या लेना-देना। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहती हैं तो अपनी कन्या का दान दे दीजिए । यह कहकर वे पुनः नृत्य करने लगे। उनकी बातें सुनकर देवी मैना क्रोध से उफन उठीं। वे उन्हें उसी समय वहां से निकालना चाहती थीं कि तभी गिरिराज हिमालय भी गंगा स्नान करके वापिस लौट आए। जब उनकी पत्नी मैना ने उन्हें सभी बातें बताईं तो वे भी जल्द से जल्द नट को वहां से निकालने को तैयार हो गए। उन्होंने अपने सेवकों को नट को बाहर निकालने की आज्ञा दी। परंतु यह असंभव था। वे साक्षात शिव भले ही नट का रूप धारण किए हुए थे परंतु उनका शरीर अद्भुत तेज से संपन्न था और वे परम तेजस्वी दिखाई दे रहे थे। उन्हें उठाकर निकाल फेंकना तो दूर की बात थी, उन्हें तो छूना भी कठिन था। तब उन्होंने मैना – हिमालय को अनेक प्रकार की लीलाएं रचकर दिखाईं। नट ने तुरंत ही श्रीहरि विष्णु का रूप धारण कर लिया। उनके माथे पर किरीट, कानों में कुण्डल और शरीर पर पीले वस्त्र अनोखी शोभा पा रहे थे। उनकी चार भुजाएं थीं। पूजा करते समय हिमालय और मैना ने जो पुष्प, गंध एवं अन्य वस्तुएं अर्पित की थीं वे सभी उनके शरीर और मस्तक पर शोभा पा रही थीं। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। तत्पश्चात नट ने जगत की रचना करने वाले ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप धारण कर लिया। उनका शरीर लाल रंग का था और वे वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। उन सभी ने उस नट भक्तवत्सल भगवान शिव के उत्तम रूप को देखा। उनके साथ देवी पार्वती भी थीं। वे रूद्र रूप में मुस्कुरा रहे थे। उनका वह स्वरूप अत्यंत सुंदर एवं मनोहारी था। उनकी ये सुंदर लीलाएं देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए थे और परम आनंद का अनुभव कर रहे थे। तत्पश्चात पुनः एक बार नट रूपी शिवजी ने मैना हिमालय से उनकी पुत्री का हाथ मांगा तथा अन्य भिक्षा ग्रहण करने से इनकार कर दिया परंतु शिवजी की माया से मोहित हुए गिरिराज हिमालय ने उन्हें अपनी पुत्री सौंपने से मना कर दिया। बिना कुछ भी लिए वह नट वहां से अंतर्धान हो गया। वे सोचने लगे कि श वे स्वयं भगवान शिव ही थे, जो स्वयं यहां पधार कर हमारी कन्या का हाथ मांग रहे थे और हमें अपनी माया से छलकर अपने निवास कैलाश पर वापिस चले गए हैं। यह सोचकर हिमालय और मैना दोनों ही एक पल को बहुत प्रसन्न हुए परंतु अगले ही पल यह सोचकर उदास हो गए कि हमने स्वयं साक्षात शिवजी को, बिना कुछ दिए और उनका आदर-सम्मान किए बिना ही खाली हाथ अपने द्वार से लौटा दिया। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे।

देवी पार्वती का आगमन और भगवान शिव का नट रूप में दर्शन

पार्वती का स्वागत
जब देवी पार्वती भगवान शिव की स्वीकृति के बाद अपने घर की ओर चलीं, तो उनके आगमन की खबर से उनके माता-पिता, देवी मैना और शैलराज हिमालय अत्यंत प्रसन्न हुए। दोनों तुरंत सिंहासन छोड़कर अपनी पुत्री से मिलने के लिए दौड़े। पार्वती के भाइयों ने भी खुशी-खुशी उनकी जय-जयकार करते हुए उनका स्वागत किया। पार्वती जब नगर के मुख्य द्वार पर पहुंचीं, तो उन्होंने अपने माता-पिता और भाइयों को उनका स्वागत करते पाया। वे सब अपनी बेटी को देखकर अत्यंत खुश हुए और उसे गले से लगा लिया। पार्वती ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया, और हिमालय व मैना ने आशीर्वाद के साथ अपनी पुत्री को गले से लगा लिया। इस दृश्य को देखकर उपस्थित सभी लोग उनकी प्रशंसा करने लगे और पार्वती को उनके कुल का उद्धार करने वाली और अपनी तपस्या से सफल होने वाली देवी के रूप में सराहने लगे।

भगवान शिव का नट रूप में आगमन
इस खुशी के अवसर पर, शैलराज हिमालय ने ब्राह्मणों और दीन-दुखियों को दान दिया और मंगल पाठ कराया। इसी बीच, भगवान शिव नट के रूप में, अपने बाएं हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू लिए, नृत्य करते हुए वहां पहुंचे। उनका रूप और नृत्य सभी को मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। शिवजी ने नृत्य करते हुए गीत गाए, शंख और डमरू बजाए और मनोरम लीलाएं रचाईं। उनके नृत्य और संगीत को देख सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।

पार्वती का दिव्य दर्शन
देवी पार्वती ने भगवान शिव के नट रूप को देखा और उनका रूप हृदय में महसूस किया। उनका रूप अलौकिक था, शरीर पर विभूति और त्रिशूल के निशान थे। उनका मुख सूर्य के तेज़ जैसा था। उन्होंने अपनी आँखों को बंद किया और अपने प्रिय महादेव के दर्शन किए। शिवजी ने स्वप्न में उन्हें वरदान देने का संकेत दिया। पार्वती ने शरणागत भाव से भगवान शिव से कहा, “भगवान, आप मेरे पति बन जाइए।” शिवजी ने मुस्कुराते हुए ‘तथास्तु’ कहा और फिर उनका रूप अंतर्धान हो गया।

देवी मैना की भिक्षा और शिवजी का उत्तर
नट रूप में भगवान शिव का नृत्य देखकर देवी मैना ने उन्हें सोने की थाली में रत्न, माणिक, हीरे और सोने से भिक्षा देने का प्रस्ताव किया। लेकिन भगवान शिव ने उन आभूषणों को अस्वीकार करते हुए कहा, “मुझे रत्नों और आभूषणों की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप मुझे कुछ देना चाहती हैं, तो अपनी कन्या का दान दे दीजिए।”

इस पर देवी मैना को गुस्सा आ गया, और वे नट रूप में शिवजी को बाहर निकालने का सोचने लगीं। उसी समय गिरिराज हिमालय स्नान करके लौटे और उन्होंने यह सुनकर नट रूप में शिवजी को वहाँ से निकालने का आदेश दिया। लेकिन, शिवजी का रूप अद्भुत था और उनकी शक्ति इतनी तेज़ थी कि उन्हें छूना भी कठिन था।

भगवान शिव की माया और रूपों का परिवर्तन
तभी नट रूप में शिवजी ने अपनी माया से श्रीहरि विष्णु का रूप धारण किया, फिर ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप लिया, और अंत में रुद्र रूप में मुस्कुराते हुए देवताओं और सभी उपस्थित लोगों को अपनी लीलाओं से आश्चर्यचकित कर दिया। सभी ने भगवान शिव के रूपों को देखा और उनके अद्भुत रूपों की प्रशंसा की।

नट रूप में शिवजी का पुनः वचन
फिर नट रूपी भगवान शिव ने हिमालय और मैना से एक बार फिर पार्वती का हाथ मांगा। लेकिन जब हिमालय ने अपनी पुत्री को देने से मना कर दिया, तो नट रूप में शिवजी बिना कुछ लिए वहां से अंतर्धान हो गए। इस घटनाक्रम से हिमालय और मैना को यह अहसास हुआ कि वे स्वयं भगवान शिव से मिले थे और उनकी माया से मोहित हो गए थे। इस समझ के साथ वे दोनों प्रसन्न तो हुए, लेकिन साथ ही उदास भी थे कि वे साक्षात शिवजी को बिना कुछ दिए और उनका सम्मान किए बिना ही वापस लौटा दिए थे।