नारद जी बोले: पूज्य पिताजी! विष्णुजी के वहां से चले जाने पर क्या हुआ? ब्रह्माजी कहने लगे कि जब भगवान विष्णु वहां से चले गए तो मैं देवी दुर्गा का स्मरण करने लगा और उनकी स्तुति करने लगा। मैंने मां जगदंबा से यही प्रार्थना की कि वे मेरा मनोरथ पूर्ण करें। वे पृथ्वी पर अवतरित होकर भगवान शिव का वरण कर उन्हें विवाह बंधन में बांधें। मेरी अनन्य भक्ति-स्तुति से प्रसन्न हो योगनिद्रा चामुण्डा मेरे सामने प्रकट हुईं। उनकी कज्ज्ल सी कांति, रूप सुंदर और दिव्य था। वे चार भुजाओं वाले शेर पर बैठी थीं। उन्हें सामने देख मैंने उनको अत्यंत नम्रता से प्रणाम किया और उनकी पूजा-उपासना की। तब मैंने उन्हें बताया कि देवी! भगवान शिव रुद्र रूप में कैलाश पर्वत पर निवास कर रहे हैं। वे समाधि लगाकर तपस्या में लीन हैं। वे पूर्ण योगी हैं। भगवान रुद्र ब्रह्मचारी हैं और वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करना चाहते। वे विवाह नहीं करना चाहते। अतः आप उन्हें मोहित कर उनकी पत्नी बनना स्वीकार करें।
हे देवी! स्त्री के कारण ही भगवान शिव ने मेरा मजाक उड़ाया है और मेरी निंदा की है। इसलिए मैं भी उन्हें स्त्री के लिए आसक्त देखना चाहता हूं। देवी! आपके अलावा कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह भगवान शंकर को मोह में डाले। मेरा आपसे अनुरोध है कि आप प्रजापति दक्ष के यहां उनकी कन्या के रूप में जन्म लें और भगवान शिव का वरण कर उन्हें गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कराएं।
देवी चामुण्डा बोलीं: हे ब्रह्मा ! भगवान शिव तो परम योगी हैं। भला उनको मोहित करके तुम्हें क्या लाभ होगा? इसके लिए तुम मुझसे क्या चाहते हो? मैं तो हमेशा से ही उनकी दासी हु। उन्होंने अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए ही रुद्र अवतार धारण किया है। यह कहकर वे शिवजी का स्मरण करने लगीं। फिर वे कहने लगीं कि यह तो सच है कि कोई भगवान शिव को मोहमाया के बंधनों में नहीं बांध सकता। इस संसार में कोई भी शिवजी को मोहित ‘ नहीं कर सकता। मुझमें भी इतनी शक्ति नहीं है कि उन्हें उनके कर्तव्य पथ से विमुख कर सकूं। फिर भी आपकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर मैं इसका प्रयत्न करूंगी जिससे भगवान शिव मोहित होकर विवाह कर लें। मैं सती रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होऊंगी। यह कहकर देवी वहां से अंतर्धान हो गई।