यज्ञ मण्डप में भय और विष्णु से जीवन रक्षा की प्रार्थना – चौंतीसवां अध्याय

ब्रह्माजी बोले: हे नारद! जब वीरभद्र और महाकाली की विशाल चतुरंगिणी सेना अत्यंत तीव्र गति से दक्ष के यज्ञ की ओर बढ़ी तो यज्ञोत्सव में अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। वीरभद्र के चलते ही यज्ञ में विध्वंस की सूचना देने वाला उत्पात होने लगा। दक्ष की बायीं आंख, बायीं भुजा और बायीं जांघ फड़कने लगी। वाम अंगों का फड़कना बहुत अशुभ होता है। उस समय यज्ञशाला में भूकंप आ गया। दक्ष को कम दिखाई देने लगा। भरी दोपहर में उसे आसमान में तारे दिखने लगे। दिशाएं धुंधली हो गईं। सूर्य में काले-काले धब्बे दिखाई देने लगे। ये धब्बे बहुत डरावने लग रहे थे। बिजली और अग्नि के समान सारे नक्षत्र उन्हें टूट टूटकर गिरते हुए दिखने लगे। वहां यज्ञशाला में हजारों गिद्ध दक्ष के सिर पर मंडराने लगे। उस यज्ञमण्डप को गिद्धों ने पूरा ढक दिया था। वहां एकत्र गीदड़ बड़ी भयानक और डरावनी आवाजें निकाल रहे थे। सभी दिशाएं अंधकारमय हो गई थीं। वहां अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। फिर उसी समय वहां आकाशवाणी हुई— ओ महामूर्ख, दुष्ट दक्ष ! तेरे जन्म को धिक्कार है। तू बहुत बड़ा पापी है। तूने भगवान शिव की बहुत अवहेलना की है। तूने देवी सती, जो कि साक्षात जगदंबा रूप हैं, का भी अनादर किया है। सती ने तेरी ही वजह से अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया है। तुझे तेरे कर्मों का फल जरूर मिलेगा। आज तुझे तेरी करनी का फल अवश्य ही मिलेगा। साथ ही यहां उपस्थित सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी अवश्य ही उनकी करनी का फल मिलेगा। भगवान शिव तुम्हें तुम्हारे पापों का फल जरूर देंगे।

इस प्रकार कहकर वह आकाशवाणी मौन हो गई। उस आकाशवाणी को सुनकर और वहां यज्ञशाला में प्रकट हो रहे अनेक अशुभ लक्षणों को देखकर दक्ष तथा वहां उपस्थित सभी देवतागण भय से कांपने लगे। दक्ष को अपने द्वारा किए गए व्यवहार का स्मरण होने लगा। उसे अपने किए पर बहुत पछतावा होने लगा। तब दक्ष सहित सभी देवता श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। वे डरे हुए थे। भय से कांपते हुए वे सभी लक्ष्मीपति विष्णुजी से अपने जीवन की रक्षा की प्रार्थना करने लगे।