दक्ष का भगवान शिव को शाप देना – छब्बीसवां अध्याय

ब्रह्माजी बोले: हे नारद! पूर्वकाल में समस्त महात्मा और ऋषि प्रयाग में इकट्ठा हुए। वहां पर उन्होंने एक बहुत विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में देवर्षि, देवता, ऋषि मुनि, साधु-संत, सिद्धगण तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाले महान ज्ञानी पधारे। जिसमें मैं स्वयं अपने महातेजस्वी निगमों-आगमों सहित परिवार को लेकर वहां पहुंचा। वहां बहुत बड़ा उत्सव हो रहा था। अनेक शास्त्रों में ज्ञान की चर्चा एवं वाद-विवाद हो रहा था। उस यज्ञ में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव भी देवी सती और अपने गणों सहित पधारे थे। भगवान शिव को वहां आया देख मैंने, सभी देवताओं, ऋषियों-मुनियों ने उन्हें झुककर, भक्तिभाव से प्रणाम किया तथा अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की। शिवजी की आज्ञा पाकर सभी ने अपना आसन ग्रहण कर लिया। इसी समय प्रजापति दक्ष भी वहां आ पहुंचे। वे बड़े ही तेजस्वी थे। प्रजापति दक्ष ने मुझे प्रणाम करके अपना आसन ग्रहण कर लिया। वे ब्रह्माण्ड के अधिपति थे। इसी कारण उन्हें अपने पद का घमंड हो गया था। उनके मन में अहंकार ने घर कर लिया था। ब्रह्माण्ड के अधिपति होने के कारण वे सभी देवताओं के वंदनीय थे। सभी ऋषि-मुनियों सहित देवर्षियों ने भी मस्तक झुकाकर प्रजापति दक्ष को प्रणाम किया और उनकी स्तुति कर उनका आदर-सत्कार किया। परंतु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव शंभु ने न तो उन्हें प्रणाम किया और न ही अपने आसन से उठकर दक्ष का स्वागत किया। इस बात पर दक्ष क्रोधित हो गए। ज्ञानशून्य होने के कारण प्रजापति दक्ष ने क्रोधित नेत्रों से महादेव जी को देखा और सबको सुनाते हुए उच्च स्वर में कहने लगे।

प्रजापति दक्ष बोले: सभी देवता, असुर, ब्राह्मण, ऋषि-मुनि सभी मुझे नम्रतापूर्वक प्रणाम कर मेरे आगे सिर झुकाते हैं। ये सभी उत्तम भक्ति भाव से मेरी आराधना करते हैं परंतु सदैव प्रेतों और पिशाचों से घिरा रहने वाला यह दुष्ट मनुष्य क्यों मुझे देखकर अनदेखा कर रहा है? श्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जीव क्यों मेरे सामने मस्तक नहीं झुकाता? भूतों-पिशाचों का साथ करने के कारण क्या यह शास्त्रों की विधि भी भूल गया है। इसने नीति के मार्ग को भी कलंकित किया है। इसके साथ रहने वाले या इसकी बातों का अनुसरण करने वाले मनुष्य पाखण्डी, दुष्ट और पाप का आचरण करने वाले होते हैं। वे ब्राह्मणों की बुराई करते हैं तथा स्त्रियों के प्रति आकर्षित होते हैं। यह रुद्र चारों वर्गों से पृथक और कुरूप है। इसलिए इस पावन यज्ञ से इसे बहिष्कृत कर दिया जाए। यह उत्तम कुल और जन्म से हीन है। अतः इसे यज्ञ में भाग न लेने दिया जाए।

पुत्र! क्रोध से विवेक समाप्त हो जाता है। दक्ष ने शिव के लिए अपशब्द कहते समय उसके परिणाम पर तनिक भी विचार नहीं किया। अहंकार के कारण वह शिव के स्वरूप को भूल गया। वह यह भी भूल गया कि आदिशक्ति ने जिसका तप द्वारा वरण किया है, वह कोई साधारण मनुष्य, ऋषि या देव नहीं है।

ब्रह्माजी बोले: हे नारद! दक्ष की ये बातें सुनकर भृगु आदि बहुत से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर उनकी निंदा करने लगे। ये बातें सुनकर नंदी को बुरा लगा। उनका क्रोध बढ़ने लगा और वे दक्ष को शाप देते हुए बोले कि है महामूढ़ ! दुष्टबुद्धि दक्ष! तू मेरे स्वामी देवाधिदेव महेश्वर को यज्ञ से निकालने वाला कौन होता है? जिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल हो जाते हैं और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तू उन महादेव जी को कैसे शाप दे सकता है? मेरे स्वामी निर्दोष हैं और तूने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए उन्हें शाप दिया है और उनका मजाक उड़ाया है। जिन सदाशिव ने इस जगत की सृष्टि की, इसका पालन किया और जो इसका संहार करते हैं, तू उन्हीं महेश्वर को शाप देता है।

नंदी के ऐसे वचनों को सुनकर प्रजापति दक्ष के क्रोध की कोई सीमा न रही। वे आग-बबूला हो गए और नंदी समेत सभी रुद्रगणों को शाप देते हुए बोले- अरे दुष्ट रुद्रगणो। मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सब वेदों से बहिष्कृत हो जाओ। तुम वैदिक मार्ग से भटक जाओ और सभी ज्ञानी मनुष्य तुम्हारा त्याग कर दें। तुम शिष्ट आचरण न करो और पाखंडी हो जाओ। सिर पर जटा, शरीर पर भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण कर मद्यपान (शराब का सेवन) करो। जब दक्ष ने शिवजी के प्रिय पार्षदों को इस प्रकार शाप दे दिया तो नंदी बहुत क्रुद्ध हो गए। नंदी भगवान शिव के प्रिय पार्षद हैं। वे बड़े गर्व से दक्ष को उत्तर देते हुए बोले ।

नंदीश्वर ने कहा: हे दुर्बुद्धि दक्ष! तुझे शिव तत्व का ज्ञान नहीं है। तूने अहंकार में शिवगणों को शाप दे दिया है। तेरे कहने पर भृगु आदि ब्राह्मणों ने भी अभिमान के कारण भगवान शिव का मजाक उड़ाया है। अतः मैं भगवान शिव के तेज के प्रभाव से तुझे शाप देता हूं कि तुझ जैसे अहंकारी मनुष्य, जो सिर्फ कर्मों के फल को देखते हैं, वेदवाद में फंसकर रह जाएंगे। उनका वेद तत्वज्ञान शून्य हो जाएगा। वे सदैव मोह-माया में ही लिप्त रहेंगे। वे पुरुषार्थ विहीन होंगे और स्वर्ग को ही महत्व देंगे। वे क्रोधी व लोभी होंगे। वे सदा ही दान लेने में लगे रहेंगे।

हे दक्ष! जो भी भगवान शिव को सामान्य देवता समझकर उनका अनादर करेगा, वह सदैव के लिए तत्वज्ञान से विमुख हो जाएगा। वह आत्मज्ञान को भूलकर पशु के समान हो जाएगा तथा यह दक्ष, जो कि कर्मों से भ्रष्ट हो चुका है, इसका मुख बकरे के समान हो जाएगा। इस प्रकार बहुत गुस्से से भरे नंदी ने जब दक्ष और ब्राह्मणों को शाप दिया तो वहां बहुत शोर मच गया। भगवान शिव मधुर वाणी में नंदी को समझाने लगे कि वे शांत हो जाएं।

प्रभु शिव बोले: नंदी! तुम तो परम ज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए। तुमने बिना कुछ जाने और समझे ही दक्ष तथा समस्त ब्राह्मण कुल को शाप दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि मुझे कोई भी शाप छू ही नहीं सकता है। इसलिए तुम्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए था। किसी की बुद्धि कितनी ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को शाप नहीं दे सकता। नंदी! तुम तो सिद्धों को भी तत्वज्ञान का उपदेश देने वाले हो। तुम तो जानते हो कि मैं ही यज्ञ हूं, मैं ही यज्ञकर्म हूं। यज्ञ की आत्मा मैं हूं, यज्ञपरायण यजमान भी मैं हूं। फिर मैं कैसे यज्ञ से बहिष्कृत हो सकता हूं? तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मणों को शाप दे दिया है।

ब्रह्माजी बोले: नारद! जब भगवान शिव ने अनेक प्रकार से नंदी को समझाया तो उनका क्रोध शांत हो गया। तब शिवजी अपने अन्य गणों व पार्षदों के साथ अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत पर चले गए। क्रोध से भरे दक्ष भी ब्राह्मणों के साथ अपने स्थान पर चले गए परंतु उनके मन में महादेव जी के लिए क्रोध एवं ईर्ष्या का भाव ऐसा ही रहा। उन्होंने शिवजी के प्रति श्रद्धा को त्याग दिया और उनकी निंदा करने लगे। दिन-ब-दिन उनकी ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी।