नारद जी ने पूछा: हे ब्रह्माजी! उत्तम व्रत का पालन करने वाले प्रजापति दक्ष ने तपस्या करके देवी से कौन-सा वरदान प्राप्त किया? और वे किस प्रकार दक्ष की कन्या के रूप में जन्मीं?
ब्रह्माजी बोले: हे नारद! मेरी आज्ञा पाकर प्रजापति दक्ष क्षीरसागर के उत्तरी तट पर चले गए। वे उसी तट पर बैठकर देवी उमा को अपनी पुत्री के रूप में प्राप्त करने के लिए, उन्हें हृदय से स्मरण करते हुए तपस्या करने लगे। मन को एकाग्र कर प्रजापति दक्ष दृढ़ता से कठोर व्रत का पालन करने लगे। उन्होंने तीन हजार दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की। वे केवल जल और हवा ही ग्रहण करते थे। तत्पश्चात देवी जगदंबा ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए । कालिका देवी अपने सिंह पर विराजमान थीं। उनकी श्यामल कांति व मुख अत्यंत मोहक था। उनकी चार भुजाएं थीं। वे एक हाथ में वरद, दूसरे में अभय, तीसरे में नीलकमल और चौथे हाथ में खड्ग धारण किए हुए थीं। उनके दोनों नेत्र लाल थे और केश लंबे व खुले हुए थे। देवी का स्वरूप बहुत ही मनोहारी था। उत्तम आभा से प्रकाशित देवी को दक्ष और उनकी पत्नी ने श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने देवी की श्रद्धाभाव से स्तुति की।
दक्ष बोले: हे जगदंबा! भवानी! कालिका! चण्डिके! महेश्वरी! मैं आपको नमस्कार करता हूं। मैं आपका बहुत आभारी हूं, जो आपने मुझे दर्शन दिए हैं। हे देवी! मुझ पर प्रसन्न होइए।
ब्रह्माजी ने कहा: हे नारद! देवी जगदंबा ने स्वयं ही दक्ष के मन की इच्छा जान ली थी।
वे बोलीं: दक्ष! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपने मन की इच्छा मुझे बताओ। मैं तुम्हारे सभी दुखों को अवश्य दूर करूंगी। तुम अपनी इच्छानुसार वरदान मांग सकते हो। जगदंबा की यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और देवी को प्रणाम करने लगे।
दक्ष बोले: हे देवी! आप धन्य हैं। आप ही प्रसन्न होने पर मनोवांछित फल देने वाली हैं। हे देवी! यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं तो मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें और मेरी इच्छा पूर्ण करें। हे जगदंबा, मेरे स्वामी शिव ने रुद्र अवतार धारण किया है परंतु अब तक आपने कोई अवतार धारण नहीं किया है। आपके सिवा कौन उनकी पत्नी होने योग्य है।
अतः हे देवी! आप मेरी पुत्री के रूप में धरती पर जन्म लें और भगवान शिव को अपने रूप लावण्य से मोहित करें। हे जगदंबा! आपके अलावा कोई भी शिवजी को कभी मोहित नहीं कर सकता। इसलिए आप हर मोहिनी अर्थात भगवान को मोहने वाली बनकर संपूर्ण जगत का हित कीजिए। यही मेरे लिए वरदान है।
दक्ष का यह वचन सुनकर जगदंबिका हंसने लगीं और मन में भगवान शिव का स्मरण कर बोलीं: हे प्रजापति दक्ष! तुम्हारी पूजा-आराधना से मैं प्रसन्न हूं।
तुम्हारे वर के अनुसार मैं तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। तत्पश्चात बड़ी होकर मैं कठोर तप द्वारा महादेव जी को प्रसन्न कर, उन्हें पति रूप में प्राप्त करूंगी। मैं उनकी दासी हूं। प्रत्येक जन्म में शिव शंभु ही मेरे स्वामी होते हैं। अतः मैं तुम्हारे घर में जन्म लेकर शिवा का अवतार धारण करूंगी। अब तुम घर जाओ। परंतु एक बात हमेशा याद रखना । जिस दिन तुम्हारे मन में मेरा आदर कम हो जाएगा उसी दिन मैं अपना शरीर त्यागकर अपने स्वरूप में लीन हो जाऊंगी।
यह कहकर देवी जगदंबिका वहां से अंतर्धान हो गईं तथा प्रजापति दक्ष सुखी मन से घर लौट आए।