श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध – छत्तीसवां अध्याय

ब्रह्माजी कहते हैं: नारद! जब शिवजी की आज्ञा पाकर वीरभद्र की विशाल सेना ने यज्ञशाला में प्रवेश किया तो वहां उपस्थित सभी देवता अपने प्राणों की रक्षा के लिए शिवगणों से युद्ध करने लगे परंतु शिवगणों की वीरता और पराक्रम के आगे उनकी एक न चली। सारे देवता पराजित होकर वहां से भागने लगे। तब इंद्र आदि लोकपाल युद्ध के लिए आगे आए। उन्होंने गुरुदेव बृहस्पति जी को नमस्कार कर उनसे विजय के विषय में पूछा।

उन्होंने कहा: हे गुरुदेव बृहस्पति! हम यह जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी?

उनकी यह बात सुनकर बृहस्पति जी बोले: हे इंद्र! समस्त कर्मों का फल देने वाले तो ईश्वर हैं। सभी को अपनी करनी का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। जो ईश्वर के अस्तित्व को जानकर और समझकर उनकी शरण में आकर अच्छे कर्म करता है उसी को उसके सत्कर्मों का फल मिलता है परंतु जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है, वह ईश्वरद्रोही कहलाता है और उसे किसी भी अच्छे फल की प्राप्ति नहीं होती। उन परमपुण्य भगवान शिव के स्वरूप को जानना अत्यंत कठिन है। वे सिर्फ अपने भक्तों के ही अधीन हैं। इसलिए उन्हें भक्तवत्सल भी कहा जाता है। भक्ति और ईश्वर सत्ता में विश्वास न रखने वाले मनुष्य द वेदों का दस हजार बार भी अध्ययन कर लें तो भी भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति नहीं जान पाएंगे। भगवान शिव के शांत, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से ध्यान करने एवं उनकी उपासना करने से ही शिवतत्व की प्राप्ति होती है। तुम उन करुणानिधान भगवान महेश्वर की अवहेलना करने वाले उस मूर्ख दक्ष के निमंत्रण पर यहां इस यज्ञ में भाग लेने आ गए हो। भगवान शिव की पत्नी देवी सती का भी इस यज्ञ में घोर अपमान हुआ है। उन्होंने इसी यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी है। इसी कारण भगवान शंकर ने रुष्ट होकर इस यज्ञ विध्वंस करने के लिए वीरभद्र के नेतृत्व में अपने शिवगणों को भेजा है। अब इस यज्ञ के विनाश को रोक पाना किसी के भी वश में नहीं है। अब चाहकर भी तुम लोग कुछ नहीं कर सकते।

बृहस्पति जी के ये वचन सुनकर इंद्र सहित अन्य देवता चिंता में पड़ गए। सभी वीरभद्र और अन्य शिवगण उनके निकट पहुंच गए। वहां वीरभद्र ने उन सभी को बहुत डांटा और फटकारा। गुस्से से वीरभद्र ने इंद्र सहित सभी देवताओं पर अपने तीखे बाणों से प्रहार करना शुरू कर दिया। बाणों से घायल हुए सभी देवताओं में हाहाकार मच गया और वे अपने प्राणों की रक्षा के लिए यज्ञमण्डप से भाग खड़े हुए। यह देखकर वहां उपस्थित सभी ऋषि-मु भयभीत होकर श्रीहरि के सम्मुख प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब मैं और विष्णुजी वीरभद्र से युद्ध करने के लिए उनके पास गए। हमें देखकर वीरभद्र जो पहले से ही क्रोधित थे, हम सबको डांटने लगे।

उनके कठोर वचनों को सुनकर विष्णुजी मुस्कुराते हुए बोले: हे शिवभक्त वीरभद्र! मैं भी भगवान शिव का ही भक्त हूं। उनमें मेरी अपार श्रद्धा है। मैं उन्हीं का सेवक हूं परंतु दक्ष अज्ञानी और मूर्ख है। यह सिर्फ कर्मकाण्डों में ही विश्वास रखता है। जिस प्रकार महेश्वर भगवान अपने भक्तों के ही अधीन हैं उसी प्रकार मैं भी अपने भक्तों के ही अधीन हूं। दक्ष मेरा अनन्य भक्त है। उसकी बारंबार प्रार्थना पर मुझे इस यज्ञ में उपस्थित होना पड़ा। हे वीरभद्र! तुम रुद्रदेव के रौद्र रूप अर्थात क्रोध से उत्पन्न हुए हो। तुम्हें भगवान शंकर ने इस यज्ञ का विनाश करने के लिए यहां भेजा है। उनकी आज्ञा तुम्हारे लिए शिरोधार्य है। मैं इस यज्ञ का रक्षक हूं। अतः इसे बचाना मेरा पहला कर्तव्य है। इसलिए तुम भी अपना कर्तव्य निभाओ और मैं भी अपना कर्तव्य निभाता हूं। हम दोनों को ही अपने उत्तरदायित्व की रक्षा के लिए आपस में युद्ध करना पड़ेगा।

भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर, वीरभद्र हंसकर बोला कि आप मेरे परमेश्वर भगवान शिव के भक्त हैं, यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। भगवन्, मैं आपको नमस्कार करता हूं। आप मेरे लिए भगवान शिव के समान ही पूजनीय हैं। मैं आपका आदर करता हूं परंतु शिव आज्ञा के अनुसार मुझे इस यज्ञ का विनाश करना है। यह मेरा कर्तव्य है। यज्ञ का रक्षक होने के नाते इसे बचाना आपका उत्तरदायित्व है। अतः हम दोनों को ही अपना-अपना कार्य करना है। तब श्रीहरि और वीरभद्र दोनों ही युद्ध के लिए तैयार हो गए। तत्पश्चात दोनों में घोर युद्ध हुआ। अंत में वीरभद्र ने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को जड़ कर दिया। उनके धनुष के तीन टुकड़े कर दिए। वीरभद्र विष्णुजी पर भारी पड़ रहे थे। तब उन्होंने वहां से अंतर्धान होने का विचार किया। सभी देवता व ऋषिगण यह समझ चुके थे कि यह जो कुछ हो रहा है, वह देवी सती के प्रति अन्याय और शिवजी के अपमान का ही परिणाम है। इस संकट की घड़ी में कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर सकता। तब वे देवता और ऋषिगण शिवजी का स्मरण करते हुए अपने-अपने लोक को चले गए। मैं भी दुखी मन से अपने सत्यलोक को चला आया। उस यज्ञस्थल पर बहुत उपद्रव हुआ। वीरभद्र और महाकाली ने अनेकों मुनियों एवं देवताओं को प्रताड़ित करके उनका वध कर दिया। भृगु, पूषा और भग नामक देवताओं को उनकी करनी का फल देते हुए उन्हें पृथ्वी पर फेंक दिया।