ब्रह्माजी कहते हैं: नारद! कन्यादान करके दक्ष ने भगवान शिव को अनेक उपहार प्रदान किए। उन्होंने सभी ब्राह्मणों को भी दान-दक्षिणा दी। तत्पश्चात भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी जी सहित भगवान शिव के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हो उनकी आराधना करने लगे। वे बोले- हे दयासागर महादेव जी! आप संपूर्ण जगत के पिता हैं और देवी सती सबकी माता हैं। भगवन् आप दोनों ही अपने भक्तों की रक्षा के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए अनेक अवतार धारण करते हैं। इस प्रकार उन्होंने शिव-सती की बहुत स्तुति की।
नारद! मैं उनके पास आकर विधि के अनुसार फेरे कराने लगा। ब्राह्मणों की आज्ञा और मेरे सहयोग से सती और भगवान शिव ने विधिपूर्वक अग्नि के फेरे लिए। उस समय वहां बहुत अद्भुत उत्सव किया जा रहा था। वहां विभिन्न प्रकार के बाजे और शहनाइयां बज रहीं थी। स्त्रियां मंगल गीत गा रही थीं और खुशी से सभी नृत्य कर रहे थे।
तत्पश्चात भगवान विष्णु बोले: सदाशिव ! आप संपूर्ण प्रकृति के रचयिता हैं। आपका स्वरूप ज्योतिर्मय है। ब्रह्माजी, मैं और रुद्रदेव आपके ही रूप हैं। हम सभी सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। हे प्रभु! हम सब आपका ही अंश हैं। प्रभु! आप आकाश के समान सर्वव्यापी और ज्योतिर्मय हैं। जिस प्रकार हाथ, कान, नाक, मुंह, सिर आदि शरीर के विभिन्न रूप हैं। उसी प्रकार हम सब भी आपके शरीर के ही अंग हैं। आप निर्गुण निराकार हैं। समस्त दिशाएं आपकी मंगल कथा कहती हैं। सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि आपके ही चरणों की वंदना करते हैं। आपकी महिमा का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं। भगवन्, यदि हम सबसे कुछ गलती हो गई हो तो कृपया उसे क्षमा करें और प्रसन्न हों।
ब्रह्माजी बोले: इस प्रकार श्रीहरि ने भगवान शिव की बहुत स्तुति की। उनकी स्तुति सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। विवाह की सभी रीतियों के पूर्ण होने पर हम सभी ने महादेव जी एवं देवी सती को बधाइयां दीं तथा उनसे प्रार्थना की कि वे अपनी कृपादृष्टि सदैव सभी पर बनाए रखें। वे जगत का कल्याण करें। तत्पश्चात भगवान शिव ने मुझसे कहा- हे ब्रह्मान्! आपने मेरा वैवाहिक कार्य संपन्न कराया है। अतः आप ही मेरे आचार्य हैं। आचार्य को कार्यसिद्धि के लिए दक्षिणा अवश्य दी जाती है। इसलिए आप मुझे बताइए कि मैं दक्षिणा में आपको क्या दूं? महाभाग ! आप जो भी मांगेंगे मैं उसे अवश्य ही दूंगा।
मुने! भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर मैं हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो मैं गया। मैंने उन्हें प्रणाम करके कहा- हे देवेश! यदि आप मुझे अपना आचार्य मानकर कोई वर देना चाहते हैं तो मैं आपसे यह वर मांगता हूं कि आप सदा इसी रूप में इसी वेदी पर विराजमान रहकर अपने भक्तों को दर्शन दें। इस स्थान पर आपके दर्शन करने से सभी पापियों के पाप धुल जाएं। आपके यहां विराजमान होने से मुझे आपका साथ प्राप्त हो जाएगा।
मैं इसी वेदी के पास आश्रम बनाकर यहां निवास करूंगा और तपस्या करूंगा। हे प्रभु! मेरी यही इच्छा है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में रविवार के दिन जो भी मनुष्य भक्तिभाव से आपका दर्शन करे उसके सभी पाप नष्ट हो जाएं। रोगी मनुष्य के सभी रोग दूर हो जाएं। इस दिन आपका दर्शन कर मनुष्य जिस इच्छा को आपके सामने व्यक्त करे उसे आप तुरंत पूरा करें। हे प्रभु! आप इस दिन सभी को मनोवांछित वर प्रदान करें। भगवन् यही वरदान मैं आपसे मांगता हूं।
मेरी यह बात सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। वे बोले- हे ब्रह्मा! मैं आपकी इच्छा अवश्य ही पूरी करूंगा। तुम्हारे वर के अनुसार मैं देवी सती सहित इस वेदी पर विराजमान रहूंगा। यह कहकर भगवान शिव देवी सती के साथ मूर्ति रूप में प्रकट होकर वेदी के मध्य भाग में विराजमान हो गए। इस प्रकार मेरी इच्छा को पूरा कर जगत के हित के लिए प्रभु शिव वेदी पर अंशरूप में विराजमान हुए।