भस्मधारण की महिमा – चौबीसवां अध्याय

सूत जी ने कहा- हे ऋषियो ! अब मैं तुम्हारे लिए समस्त वस्तुओं को पावन करने वाले भस्म का माहात्म्य सुनाता हूं। भस्म दो प्रकार की होती है – एक ‘महाभस्म’ और दूसरी ‘स्वल्प भस्म’। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। यह तीन प्रकार की होती है— ‘श्रोता’, ‘स्मार्थ’, और ‘लौकिक’ । श्रोता और स्मार्थ भस्म केवल ब्राह्मणों के ही उपयोग में आने योग्य है। लौकिक भस्म का उपयोग सभी मनुष्यजन कर सकते हैं। ब्राह्मणों को वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए भस्म धारण करनी चाहिए तथा अन्य मनुष्य बिना मंत्रों के भस्म धारण कर सकते हैं। उपलों से सिद्ध की हुई भस्म ‘आग्नेय भस्म’ कहलाती है। यह त्रिपुण्ड का द्रव्य है । अन्य यज्ञ से प्रकट हुई भस्म भी त्रिपुण्ड धारण के काम आती है। जाबालि उपनिषद के अनुसार, ‘अग्नि’ इत्यादि मंत्रों द्वारा सात बार जल में भिगोकर शरीर में भस्म लगाएं। तीनों संध्याओं में जो शिव भस्म से त्रिपुण्ड लगाता है, वह सब पापों से मुक्त होकर शिव की कृपा से मोक्ष पाता है। त्रिपुण्ड और भस्म लगाकर विधिपूर्वक जाप करें। भगवान शिव और विष्णु ने भी त्रिपुण्ड धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और देवी लक्ष्मी ने इनकी प्रशंसा की है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जातिभ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्भूलन एवं त्रिपुण्ड रूप में भस्म धारण की है।

महर्षियो! इस प्रकार संक्षेप में मैंने त्रिपुण्ड का माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिए गोपनीय है । ललाट अर्थात माथे पर भौंहों के मध्य भाग से भौंहों के अंत भाग जितना बड़ा त्रिपुण्ड ललाट में धारण करना चाहिए । मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएं करके अंगूठे द्वारा बीच में सीधी रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। त्रिपुण्ड अत्यंत उत्तम तथा भोग और मोक्ष देने वाला है। त्रिपुण्ड की एक-एक रेखा में नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं। प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातः सवन तथा महादेव – ये त्रिपुण्ड की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं। प्रणव का दूसरा अक्षर उकार – दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यदिन सवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा तथा महेश्वर- ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं। प्रणव का तीसरा अक्षर मकार – आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद तृतीय सवन तथा शिव – ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं।

प्रतिदिन स्नान से शुद्ध होकर भक्तिभाव से त्रिपुण्ड में स्थित देवताओं को नमस्कार कर त्रिपुण्ड धारण करें तो भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है। भस्म को बत्तीस, सोलह, आठ अथवा पांच स्थानों में धारण करें। सिर, माथा, दोनों कान, दोनों आंखें, नाक के दोनों नथुनों, दोनों हाथ, मुंह, कंठ, दोनों कोहनी, दोनों भुजदंड, हृदय, दोनों बगल, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों उरु, दोनों घुटनों, दोनों पिंडली, दोनों जांघों और पांव आदि बत्तीस अंगों में

क्रमशः अग्नि, वायु, पृथ्वी, देश, दसों दिशाएं, दसों दिग्पाल, आठों वसुंधरा, ध्रुव, सोम, आम, अनिल, प्रातःकाल इत्यादि का नाम लेकर भक्तिभाव से त्रिपुण्ड धारण करें अथवा एकाग्रचित्त हो सोलह स्थान में ही त्रिपुण्ड धारण करें। सिर, माथा, कण्ठ, दोनों कंधों, दोनों हाथों, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयों, हृदय, नाभि, दोनों पसलियों एवं पीठ में त्रिपुण्ड लगाकर इन सोलह अंगों में धारण करें। तब अश्विनीकुमार, शिवशक्ति, रुद्र, ईश, नारद और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करके उन्हें त्रिपुण्ड में धारण करें। सिर, बालों, दोनों कान, मुंह, दोनों हाथ, हृदय, नाभि, उरुयुगल, दोनों पिंडली एवं दोनों पावों – इन सोलह अंगों में क्रमशः शिव, चंद्रमा, रुद्र, ब्रह्मा, गणेश, लक्ष्मी, विष्णु, शिव, प्रजापति, नाग, दोनों नाग कन्या, ऋषि कन्या, समुद्र तीर्थ इत्यादि के नाम स्मरण करके त्रिपुण्ड भस्म धारण करें। माथा, दोनों कान, दोनों कंधे, छाती, नाभि एवं गुह्य अंग आदि आठ अंगों में सप्तऋषि ब्राह्मणों का नाम लेकर भस्म धारण करें अथवा मस्तक, दोनों भुजाएं, हृदय और नाभि इन पांच स्थानों को भस्म धारण करने के योग्य बताया गया है। देश तथा काल को ध्यान में रखकर भस्म को अभिमंत्रित करना चाहिए तथा भस्म को जल में मिलाना चाहिए। त्रिनेत्रधारी, सभी गुणों के आधार तथा सभी देवताओं के जनक और ब्रह्मा एवं रुद्र की उत्पत्ति करने वाले परब्रह्म परमात्मा ‘शिव’ का ध्यान करते हुए ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र को बोलते हुए माथे एवं अंगों पर त्रिपुण्ड धारण करें।