वीरभद्र का आगमन – पैंतीसवां अध्याय

दक्ष बोले: हे विष्णु ! कृपानिधान! मैं बहुत भयभीत हूं। आपको ही मेरी और मेरे यज्ञ की रक्षा करनी है। प्रभु! आप ही इस यज्ञ के रक्षक हैं। आप साक्षात यज्ञस्वरूप हैं। आप हम सब पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए। हम सब आपकी शरण में आए हैं। प्रभु! हमारी रक्षा करें, ताकि यज्ञ का विनाश न हो।

ब्रह्मा जी कहते हैं: हे मुनि नारद! इस प्रकार जब दक्ष ने भगवान विष्णु के चरणों में गिरकर उनसे प्रार्थना की, उस समय दक्ष का मन भय से बहुत अधिक व्याकुल था। तब श्रीहरि ने दक्ष को उठाकर अपने मन में करुणानिधान भगवान शिव का स्मरण किया और शिवतत्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को समझाते हुए बोले- दक्ष! तुम्हें तत्व का ज्ञान नहीं है, इसलिए तुमने सबके अधिपति भगवान शंकर की अवहेलना की है। भगवान की स्तुति के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। उस कार्य में अनेक परेशानियां आती हैं। जहां पूजनीय व्यक्तियों की पूजा नहीं होती, वहां गरीबी, मृत्यु तथा भय का निवास होता है। इसलिए तुम्हें भगवान शिव का सम्मान करना चाहिए। परंतु तुमने महादेव का सम्मान और आंदर-सत्कार नहीं किया, अपितु तुमने उनका घोर अपमान किया है। इसी के कारण तुम्हारे ऊपर घोर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मैं तुम पर छाए इस संकट से तुम्हें उबारने में पूर्णतः असमर्थ हूं।

ब्रह्माजी कहते हैं: नारद! भगवान विष्णु का वचन सुनकर दक्ष सोच में डूब गया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया और वे घोर चिंता में पड़ गए। तभी भगवान शिव द्वारा भेजे गए गणों सहित वीरभद्र और महाकाली का उनकी सेनाओं सहित उस यज्ञशाला में प्रवेश हुआ। वे सभी महान पराक्रमी थे। उनकी गणना करना असंभव था। उनके सिंहनाद से सारी दिशाएं गूंज रही थीं। पूरे आसमान में धूल और अंधकार के बादल छाए हुए थे। पूरी पृथ्वी पर्वतों, वनों और काननों सहित कांप रही थी। समुद्रों में ज्वार-भाटा उठ रहा था। उस विशालकाय सेना को देखकर समस्त देवता आश्चर्यचकित थे। उन्हें देखकर दक्ष अपनी पत्नी के साथ भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और बोले- हे प्रजापालक विष्णु ! आपके बल से ही मैंने इस विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। प्रभु! आप कर्मों के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक हैं। आप ही धर्म के रक्षक हैं। अतः प्रभु श्रीहरि! आप ही यज्ञ को विनाश से बचा सकते हैं।

इस प्रकार दक्ष की विनतीपूर्ण बातों को सुनकर श्रीहरि उन्हें समझाते हुए बोले- दक्ष ! निश्चय ही मुझे इस यज्ञ की रक्षा करनी चाहिए परंतु देवताओं के क्षेत्र नैमिषारण्य की उस घटना का स्मरण करो। इस यज्ञ के आयोजन में क्या तुम उस घटना को भूल गए हो? यहां • इस यज्ञशाला की और तुम्हारी रक्षा करने में कोई भी देवता समर्थ नहीं है। इस समय जब महादेव जी के गण और उनके सेनापति वीरभद्र तुम्हें भगवान शिव का अपमान करने का दंड देने आए हैं, उस समय कोई मूर्ख ही तुम्हारी सहायता को आगे आ सकता है।

दक्ष ! केवल कर्म ही समर्थ नहीं होता, अपितु कर्म को करने में जिसके सहयोग की आवश्यकता होती है, उसका भी उतना ही महत्व है। भगवान शिव ही कर्मों के कल्याण की शक्ति देते हैं। जो शांत मन से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा-अर्चना करता है, महादेव जी उसे तत्काल ही उस कर्म का फल देते हैं। जो मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, वे नरक के भागी होते हैं।

दक्ष! यह वीरभद्र शंकर के गणों का ऐसा सेनापति है, जो शिवजी के शत्रु का तुरंत नाश कर देता है। निःसंदेह यह तुम्हारा तथा यहां पर उपस्थित सभी लोगों का नाश कर देगा। शिवजी की आज्ञा का उल्लंघन करके, मैं तुम्हारे यज्ञ में आया हूं, जिसका दुष्परिणाम मुझे भी भोगना पड़ेगा। अब इस विनाश को रोकने की शक्ति मेरे पास नहीं है। यदि हम यहां से भागकर स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी कहीं भी छिप जाएं, तो भी वीरभद्र के शस्त्र हमें ढूंढ़ लेंगे। शिवजी के सभी गण बहुत शक्तिशाली हैं। विष्णुजी यह कह ही रहे थे कि वीरभद्र अपनी अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा।