सती का दक्ष के यज्ञ में आना – अट्ठाईसवां अध्याय

ब्रह्माजी कहते हैं: नारद! जिस समय देवता और ऋषिगण दक्ष के यज्ञ में भाग लेने के लिए उत्सव करते हुए जा रहे थे, उस समय दक्ष की पुत्री सती अपनी सखियों के साथ गंधमादन पर्वत पर धारागृह में अनेक क्रीड़ाएं कर रही थीं। सती ने देखा कि रोहिणी के साथ चंद्रमा कहीं जा रहे थे। तब सती ने अपनी प्रिय सखी विजया से कहा कि विजये! जल्दी जाकर पूछो कि देवी रोहिणी और चंद्र कहां जा रहे हैं? तब विजया दौड़कर चंद्रदेव के पास गई और उन्हें नमस्कार करके उनसे पूछा कि हे चंद्रदेव! आप कहां जा रहे हैं? चंद्रदेव ने उत्तर दिया कि वे दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में निमंत्रित हैं, अतः वहीं जा रहे हैं। यज्ञोत्सव के बारे में सुनकर देवी विजया तुरंत देवी सती के पास आई और सारी बातों से सती को अवगत कराया। तब देवी सती को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसी क्या बात है, जो पिताजी ने यज्ञोत्सव के लिए अपनी बेटी-दामाद को निमंत्रण तो दूर, सूचना भी नहीं दी। बहुत सोचने पर उनकी समझ में कुछ नहीं आ सका। असमंजस की स्थिति में वे अपने पति महादेव जी के पास गईं और उनसे कहने लगीं।

सती बोलीं: हे महादेव जी! मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे पिताश्री दक्ष जी ने एक बहुत बड़े यज्ञोत्सव का आयोजन किया है। जिसमें उन्होंने सभी देवर्षियों, महर्षियों एवं देवताओं को आमंत्रित किया है। सभी देवता और ऋषिगण वहां एकत्रित हो चुके हैं। हे प्रभु! मुझे बताइए कि आप वहां क्यों नहीं जा रहे हैं? आप सभी सुहृदयों से मिलने को हमेशा आतुर रहते हैं। आप भक्तवत्सल हैं। प्रभो! उस महायज्ञ में सभी आपके भक्त पधारे आप मेरी प्रार्थना मानकर आज ही मेरे साथ मेरे पिता के उस महान यज्ञ में चलिए। सती इस प्रकार भगवान शंकर से यज्ञशाला में चलने की प्रार्थना करने लगीं।

सती की प्रार्थना सुनकर भगवान महेश्वर बोले-हे देवी! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गए हैं। वे मुझसे बैर की भावना रखते हैं। इसी कारण उन्होंने मुझे निमंत्रण नहीं दिया और जो बिना बुलाए दूसरों के घर जाते हैं, वे मरण से भी अधिक अपमान पाते हैं। हे देवी! उस यज्ञ में सभी अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य देवता और ऋषि ही हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले और मेरा पूजन करने वाले सभी ऋषि-मुनियों और देवताओं ने उस महायज्ञ का त्याग कर दिया है तथा अपने-अपने धाम को वापस चले गए हैं। अतः प्रिये, हमारा उस यज्ञ में जाना अनुचित है। वैसे भी बिना बुलाए जाना अपना अपमान कराना है।

शिवजी के इन वचनों को सुनकर देवी सती क्रुद्ध हो गईं और शिवजी से बोलीं- हे प्रभु! आप तो सबके परमेश्वर हैं। आपके उपस्थित होने से यज्ञ सफल हो जाते हैं। आपको मेरे दुष्ट पिता ने आमंत्रित नहीं करके आपका अपमान किया है। भगवन्! मैं ऐसा करने का प्रयोजन जानना चाहती हूं कि क्यों मेरे पिता ने आपका अनादर किया है? इसलिए मैं अपने पिता के यज्ञ में जाना चाहती हूं, ताकि इस बात का पता लगा सकूं। अतः प्रभु! आप मुझे आज्ञा प्रदान करें।

देवी सती के क्रोधित शब्दों को सुनकर भगवान शंकर बोले- हे देवी! यदि तुम्हारी इच्छा वहां जाने की है तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि अपने पिता के यज्ञ में जाओ। नंदीश्वर को सजाकर, उस पर चढ़कर अपने संपूर्ण वैभव के साथ अपने पिता के यहां जाओ। शिवजी की आज्ञा मानकर देवी सती ने उत्तम शृंगार किया और अनेक प्रकार के आभूषण धारण करके देवी सती अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके साथ शिवजी ने साठ हजार रौद्रगणों को भी भेजा। वे सभी गण उत्सव रचाकर देवी का गुणगान करते हुए दक्ष के घर की ओर जाने लगे। शिवगणों ने पूरे रास्ते शिव-शिवा के यश का गान किया। उस यात्रा काल में जगदंबा बहुत शोभा पा रही थीं। उनकी जय-जयकार से सारी दिशाएं गूंज रही थीं।