सती द्वारा योगाग्नि से शरीर को भस्म करना – तीसवां अध्याय

ब्रह्माजी से श्री नारद जी ने पूछा: हे पितामह ! जब सती जी ऐसा कहकर मौन हो गईं त वहां क्या हुआ? देवी सती ने आगे क्या किया? इस प्रकार नारद जी ने अनेक प्रश्न पूछ डाले और ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वे आगे की कथा सविस्तार सुनाएं। यह सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए, और प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे

हे नारद! मौन होकर देवी सती अपने पति भगवान शिव का स्मरण करने लगीं। उनका स्मरण करने के बाद उनका क्रोधित मन शांत हो गया। तब शांत मनोभाव से शिवजी का चिंतन करती हुई देवी सती पृथ्वी पर उत्तर की ओर मुख करके बैठ गईं। तत्पश्चात विधिपूर्वक जल से आचमन करके उन्होंने वस्त्र ओढ़ लिया। फिर पवित्र भाव से उन्होंने अपनी दोनों आंखें मूंद लीं और पुनः शिवजी का चिंतन करने लगीं। सती ने प्राणायाम से प्राण और अपान को एकरूप करके नाभि में स्थित कर लिया। सांसों को संयत कर नाभिचक्र के ऊपर हृदय में स्थापित कर लिया। सती ने अपने शरीर में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि को स्थापित कर लिया। तब उनका शरीर योग मार्ग में स्थित हो गया। उनके हृदय में शिवजी विद्यमान थे। यही वह समय था जब उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था। उनका शरीर यज्ञ की पवित्र योगाग्नि में गिरा और पल भर में ही भस्म हो गया। वहां उपस्थित मनुष्यों सहित देवताओं ने जब यह देखा कि देवी सती भस्म हो गई हैं, तो आकाश और भूमि पर हाहाकार मच गया। यह हाहाकार सभी को भयभीत कर रहा था। सभी लोग कह रहे थे कि किस दुष्ट के दुर्व्यवहार के कारण भगवान शिव पत्नी सती अपनी देह का त्याग कर दिया । तो कुछ लोग दक्ष की दुष्टता को धिक्कार रहे थे, जिसके व्यवहार से दुखी होकर देवी सती ने यह कदम उठाया था। सभी सत्पुरुष उनका सम्मान करते थे। उनका हृदय असहिष्णु था। उन्होंने ऐसी महान देवी और उनके पति करुणानिधान भगवान शिव का अनादर और निंदा करने वाले दक्ष को भी कोसा। सभी कह रहे थे कि दक्ष ने अपनी ही पुत्री को प्राण त्यागने के लिए मजबूर किया है। इसलिए दक्ष अवश्य ही महा नरक में जाएगा और पूरे संसार में उसका अपयश होगा।

दूसरी ओर, देवी सती के साथ पधारे सभी शिवगणों ने जब यह दृश्य देखा तो उनके क्रोध की कोई सीमा न रही । वे तुरंत अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिए दौड़े। वे साठ हजार पार्षदगण क्रोध से चिल्ला रहे थे और अपने को ही धिक्कार रहे थे कि यहां उपस्थित होते हुए भी हम अपनी माता देवी सती की रक्षा नहीं कर पाए। उनमें से कई पार्षदों ने तो स्वयं अपने शरीर का त्याग कर दिया। बचे हुए सभी शिवगण दक्ष को मारने के लिए बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे थे। जब ऋषि भृगु ने उन्हें आक्रमण के लिए आगे बढ़ते हुए देखा तो उन्होंने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिए यजुर्मंत्र पढ़कर दक्षिणाग्नि में आहुति दे दी। आहुति के प्रभाव के फलस्वरूप यज्ञकुण्ड में से ऋभु नामक अनेक देवता, जो प्रबल वीर थे, वहां प्रकट हो गए। ऋभु नामक सहस्रों देवताओं और शिवगणों में भयानक युद्ध होने लगा। वे देवता ब्रह्मतेज से संपन्न थे। उन्होंने शिवगणों को मारकर तुरंत भगा दिया। इससे वहां यज्ञ में और अशांति फैल गई। सभी देवता और मुनि भगवान विष्णु से इस विघ्न को टालने की प्रार्थना करने लगे। देवी सती का भस्म हो जाना और भगवान शिव के गणों को मारकर वहां से भगाए जाने का परिणाम सोचकर सभी देवता और ऋषि विचलित थे। हे नारद! इस प्रकार दक्ष के उस महायज्ञोत्सव में बहुत बड़ा उत्पात मच गया था और सब ओर त्राहि-त्राहि मच गई थी। सभी भावी परिणाम की आशंका से भयभीत दिखाई दे रहे थे।