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गुणनिधि को कुबेर पद की प्राप्ति – उन्नीसवां अध्याय

नारद जी ने प्रश्न किया – हे ब्रह्माजी ! अब आप मुझे यह बताइए कि गुणनिधि जैसे महापापी मनुष्य को भगवान शिव द्वारा कुबेर पद क्यों और कैसे प्रदान किया गया? हे प्रभु! कृपा कर इस कथा को भी बताइए | ब्रह्माजी बोले- नारद! शिवलोक में सारे दिव्य भोगों का उपभोग तथा उमा महेश्वर का सेवन कर, वह अगले जन्म में कलिंग के राजा अरिंदम का पुत्र हुआ। उसका नाम दम था। बालक दम की भगवान शंकर में असीम भक्ति थी। वह सदैव शिवजी की सेवा में लगा रहता था। वह अन्य बालकों के साथ मिलकर शिव भजन करता । युवा होने पर उसके पिता अरिंदम की मृत्यु के पश्चात दम को राजसिंहासन पर बैठाया गया।
राजा दम सब ओर शिवधर्म का प्रचार और प्रसार करने लगे। वे सभी शिवालयों में दीप दान करते थे। उनकी शिवजी में अनन्य भक्ति थी। उन्होंने अपने राज्य में रहने वाले सभी ग्रामाध्यक्षों को यह आज्ञा दी थी कि ‘शिव मंदिर’ में दीपदान करना सबके लिए अनिवार्य है। अपने गांव के आस-पास जितने शिवालय हैं, वहां सदा दीप जलाना चाहिए। राजा दम ने आजीवन शिव धर्म का पालन किया। इस तरह वे बड़े धर्मात्मा कहलाए। उन्होंने शिवालयों में बहुत से दीप जलवाए। इसके फलस्वरूप वे दीपों की प्रभा के आश्रय हो मृत्योपरांत अलकापुरी के स्वामी बने ।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! भगवान शिव का पूजन व उपासना महान फल देने वाली है। दीक्षित के पुत्र गुणनिधि ने, जो पूर्ण अधर्मी था, भगवान शिव की कृपा पाकर दिक्पाल का पद पा लिया था। अब मैं तुम्हें उसकी भगवान शिव के साथ मित्रता के विषय में बताता हूं।
नारद! बहुत पहले की बात है । मेरे मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र कुबेर हुए। उन्होंने पूर्वकाल में बहुत कठोर तप किया। उन्होंने विश्वकर्मा द्वारा रचित अलकापुरी का उपभोग किया। मेघवाहन कल्प के आरंभ होने पर वे कुबेर के रूप में घोर तप करने लगे। वे भगवान शिव द्वारा प्रकाशित काशी पुरी में गए और अपने मन के रत्नमय दीपों से ग्यारह रुद्रों को उद्बोधित कर वे तन्मयता से शिवजी के ध्यान में मग्न होकर निश्चल भाव से उनकी उपासना करने लगे। वहां उन्होंने शिवलिंग की प्रतिष्ठा की । उत्तम पुष्पों द्वारा शिवलिंग का पूजन किया । कुबेर पूरे मन से तप में लगे थे। उनके पूरे शरीर में केवल हड्डियों का ढांचा और चमड़ी ही बची थी। इस प्रकार उन्होंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की । तत्पश्चात भगवान शिव अपनी दिव्य शक्ति उमा के भव्य रूप के साथ कुबेर के पास गए। अलकापति कुबेर मन को एकाग्र कर शिवलिंग के सामने तपस्या में लीन थे। भगवान शिव ने कहा— अलकापते ! मैं तुम्हारी भक्ति और तपस्या से प्रसन्न हूं। तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार वर मांग सकते हो। यह सुनकर जैसे ही कुबेर ने आंखें खोलीं तो उन्हें अपने सामने भगवान नीलकंठ खड़े दिखाई दिए । उनका तेज सूर्य के समान था। उनके मस्तक पर चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेर रहा था। उनके तेज से कुबेर की आंखें चौंधिया गईं। तत्काल उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं। वे भगवान शिव से बोले -भगवन् ! मेरे नेत्रों को वह शक्ति दीजिए, जिससे मैं आपके चरणारविंदों का दर्शन कर सकूं।
कुबेर की बात सुनकर भगवान शिव ने अपनी हथेली से कुबेर को स्पर्श कर देखने की शक्ति प्रदान की । दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर वे आंखें फाड़-फाड़कर देवी उमा की ओर देखने लगे। वे सोचने लगे कि भगवान शिव के साथ यह सर्वांग सुंदरी कौन है? इसने ऐसा कौन सा तप किया है जो इसे भगवान शिव की कृपा से उनका सामीप्य, रूप और सौभाग्य प्राप्त हुआ है । वे देवी उमा को निरंतर देखते जा रहे थे। देवी को घूरने के कारण उनकी बायीं आंख फूट गई। शिवजी ने उमा से कहा – उमे ! यह तुम्हारा पुत्र है । यह तुम्हें क्रूर दृष्टि से नहीं देख रहा है। यह तुम्हारे तप बल को जानने की कोशिश कर रहा है, फिर भगवान शिव ने कुबेर से कहा – मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें वर देता हूं कि तुम समस्त निधियों और गुह्य शक्तियों के स्वामी हो जाओ। सुव्रतों, यक्षों और किन्नरों के अधिपति होकर धन के दाता बनो। मेरी तुमसे सदा मित्रता रहेगी और मैं तुम्हारे पास सदा निवास करूंगा अर्थात तुम्हारे स्थान अलकापुरी के पास ही मैं निवास करूंगा। कुबेर अब तुम अपनी माता उमा के चरणों में प्रणाम करो। ये ही तुम्हारी माता हैं । ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार भगवान शिव ने देवी से कहा- हे देवी! यह आपके पुत्र के समान है। इस पर अपनी कृपा करो।’ यह सुनकर उमा देवी बोली – वत्स ! तुम्हारी, भगवान शिव में सदैव निर्मल भक्ति बनी रहे। बायीं आंख फूट जाने पर तुम एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो । महादेव जी ने जो वर तुम्हें प्रदान किए हैं, वे सुलभ हैं। मेरे रूप से ईर्ष्या के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होगे । कुबेर को वर देकर भगवान शिव और देवी उमा अपने धाम को चले गए। इस प्रकार भगवान शिव और कुबेर में मित्रता हुई और वे अलकापुरी के निकट कैलाश पर्वत पर निवास करने लगे।
नारद जी ने कहा– ब्रह्माजी ! आप धन्य हैं। आपने मुझ पर कृपा कर मुझे इस अमृत कथा के बारे में बताया है। निश्चय ही, शिव भक्ति दुखों को दूर कर समस्त सुख प्रदान करने वाली
है।