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नारद जी का भगवान विष्णु से उनका रूप मांगना – तीसरा अध्याय

सूत जी बोले – महर्षियो ! नारद जी के चले जाने पर शिवजी की इच्छा से विष्णु भगवान ने एक अद्भुत माया रची। उन्होंने जिस ओर नारद जी जा रहे थे, वहां एक सुंदर नगर बना दिया। वह नगर बैकुण्ठलोक से भी अधिक रमणीय था। वहां बहुत से विहार-स्थल थे। उस नगर के राजा का नाम ‘शीलनिधि’ था। उस राजा की एक बहुत सुंदर कन्या थी । उन्होंने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया था। उनकी कन्या का वरण करने के लिए उत्सुक बहुत से राजकुमार पधारे थे। वहां बहुत चहल-पहल थी । इस नगर की शोभा देखते ही नारद जी का मन मोहित हो गया । जब राजा शीलनिधि ने नारद जी को आते देखा तो उन्हें सादर प्रणाम करके स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर अपनी देव – सुंदरी कन्या को बुलाया जिसने महर्षि के चरणों में प्रणाम किया। नारद जी से उसका परिचय कराते हुए शीलनिधि ने निवेदन किया – महर्षि ! यह मेरी पुत्री ‘श्रीमती’ है। इसके स्वयंवर का आयोजन किया गया है। इस कन्या के गुण दोषों को बताने की कृपा कीजिए ।
राजा के ऐसे वचन सुनकर नारद जी बोले – राजन! आपकी कन्या साक्षात लक्ष्मी है। इसका भावी पति भगवान शिव के समान वैभवशाली, त्रिलोकजयी, वीर तथा कामदेव को भी जीतने वाला होगा। ऐसा कहकर नारद मुनि वहां से चल दिए । शिव की माया के कारण वे काम के वशीभूत हो सोचने लगे कि राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूं? स्वयंवर में आए सुंदर एवं वैभवशाली राजाओं को छोड़कर भला यह मेरा वरण कैसे करेगी? वे सोचने लगे कि नारियों को सौंदर्य बहुत प्रिय होता है। सौंदर्य को देखकर ही ‘श्रीमती’ मेरा वरण कर सकती है । ऐसा विचार कर नारद जी फिर विष्णुलोक में जा पहुंचे और उन्हें राजा शीलनिधि की कन्या के स्वयंवर के बारे में बताया तथा उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे अपना रूप उन्हें प्रदान करें ताकि श्रीमती उन्हें ही वरे ।
सूत जी कहते हैं – महर्षियो ! नारद मुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े और भगवान शंकर के प्रभाव का अनुभव करके उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया। भगवान विष्णु बोले – हे नारद! वहां आप अवश्य जाइए, मैं आपका हित उसी प्रकार करूंगा, जिस प्रकार पीड़ित व्यक्ति का श्रेष्ठ वैद्य करता है क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो। ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने नारद मुनि को वानर का मुख तथा शेष अंगों को अपना मनोहर रूप प्रदान कर दिया। तब नारद जी अत्यंत प्रसन्न होते हुए अपने को परम सुंदर समझकर शीघ्र ही स्वयंवर में आ गए और उस राज्य सभा में जा बैठे। उस सभा में रुद्रगण ब्राह्मण के रूप में बैठे हुए थे। नारद जी का वानर रूप केवल कन्या और रुद्रगणों को ही दिखाई दे रहा था, बाकी सबको नारद जी का वास्तविक रूप ही दिखाई दे रहा था। नारद जी मन ही मन प्रसन्न होते हुए श्रीमती की प्रतीक्षा कर रहे थे।
हे ऋषियो ! वह कन्या हाथ में जयमाला लिए अपनी सखियों के साथ स्वयंवर में आई। उसके हाथों में सोने की सुंदर माला थी। वह शुभलक्षणा राजकुमारी लक्ष्मी के समान अपूर्व शोभा पा रही थी। नारद मुनि का भगवान विष्णु जैसा शरीर और वानर जैसा मुख देख वह कुपित हो गई और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर मनोवांछित वर की तलाश में आगे चली गई। सभा में अपने मनपसंद वर को न पाकर वह उदास हो गई। उसने किसी के भी गले में वरमाला नहीं डाली। तभी भगवान विष्णु राजा की वेशभूषा धारण कर वहां आ पहुंचे। विष्णुजी को देखते ही उस परम सुंदरी ने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णुजी राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अपने लोक को चले गए। यह देखकर नारद जी विचलित हो गए। तब ब्राह्मणों के रूप में उपस्थित रुद्रगणों ने नारद जी से कहा – हे नारद जी ! आप व्यर्थ ही काम से मोहित हो सौंदर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हैं। पहले जरा अपना वानर के समान मुख तो देख लीजिए। सूत जी बोले- यह वचन सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने दर्पण में अपना मुंह देखा । वानर के समान मुख को देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो उठे तथा दोनों रुद्रगणों को शाप देते हुए बोले- तुमने एक ब्राह्मण का मजाक उड़ाया है। अतः तुम ब्राह्मण कुल में पैदा होकर भी राक्षस बन जाओ। यह सुनकर वे शिवगण कुछ नहीं बोले बल्कि इसे भगवान शिव की इच्छा मानते हुए उदासीन भाव से अपने स्थान को चले गए और भगवान शिव की स्तुति करने लगे।