शिवजी का क्रोध – बत्तीसवां अध्याय

ब्रह्माजी कहते हैं: नारद! उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवता और मुनि आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। वे अत्यंत भयभीत हो गए। उधर, भृगु के मंत्रों से उत्पन्न गणों द्वारा भगाए गए शिवगण, जो कि नष्ट होने से बच गए थे, शिवजी की शरण में चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने प्रभु को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और वहां यज्ञ में जो कुछ भी हुआ था, उसका और सती के शरीर त्यागने का सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया।

शिवगण बोले ;– हे महेश्वर ! दक्ष बड़ा ही दुरात्मा और घमंडी है। उसने माता सती का बहुत अपमान किया। वहां उपस्थित देवताओं ने भी उनका आदर-सत्कार नहीं किया। उस घमंडी दक्ष ने यज्ञ में आपका भाग भी नहीं दिया।

हे प्रभु! दक्ष ने आपके प्रति बुरे शब्द कहे। आपके विषय में ऐसी बातें सुनकर माता क्रोधित हो गईं और उन्होंने पिता की बहुत निंदा की। जब दक्ष ने उनका भी अपमान किया तो वे शांत होकर सोचने लगीं। फिर उन्होंने वहां उपस्थित सभी देवताओं और मुनियों को फटकारा, जिन्होंने आपका अनादर किया था। उन्होंने कहा कि शिव निंदा सुनकर मैं जीवित नहीं रह सकती। यह कहकर उन्होंने योगाग्नि में जलकर अपना शरीर भस्म कर दिया। यह देखकर बहुत से पार्षदों ने माता के साथ ही अपने शरीर की आहुति दे दी। तब हम सब शिवगण उस यज्ञ को विध्वंस करने के लिए तेजी से आगे बढ़े परंतु भृगु ऋषि ने मंत्रों द्वारा गणों को उत्पन्न कर हम पर आक्रमण कर दिया। हममें से बहुत से गणों को उन भृगु के गणों ने मार डाला । तब वहां आकाशवाणी हुई, जिसने कहा कि द तुम्हारा अंत अब निश्चित है तथा जो भी देवता एवं मुनि तुम्हारा साथ देंगे वे भी पाप के भागी बनकर मृत्यु को प्राप्त होंगे। यह सुनकर सभी उपस्थित लोग वहां से चले गए और हम यहां आपको इस विषय में बताने के लिए आपके पास चले आए। हे कल्याणकारी भगवान शिव! हे आप उस महादुष्ट अधर्मी दक्ष को उसके अपराध का कठोर दंड अवश्य दें। यह कहकर सभी गण चुप हो गए।

ब्रह्माजी बोले: हे नारद! अपने पार्षदों की बातें सुनकर भगवान शिव ने उस यज्ञ की सारी बातें और जानकारी जानने के लिए तुम्हारा स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही तुम वहां जा पहुंचे और भक्तिभाव से नमस्कार करके चुपचाप खड़े हो गए। तब महादेव जी ने तुमसे दक्ष के यज्ञ के विषय में पूछा। तब तुमने उत्तम भाव से उस यज्ञशाला में जो-जो हुआ था, वह सब वृत्तांत उन्हें सुना दिया। सारी बातों से अवगत होते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। पराक्रमी शंकर के क्रोध का कोई अंत न रहा। तब लोकसंहारी शंकर ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर उसे कैलाश पर्वत पर दे मारा। जैसे ही वह बाल जमीन पर गिरा उसके दो टुकड़े हो गए। उस समय वहां बहुत भयंकर गर्जना हुई। बाल के प्रथम भाग से महापराक्रमी,

महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों में शिरोमणि हैं। उनका शरीर बहुत बड़ा और विशाल था। उनकी एक हजार भुजाएं थीं। उस जटा के दूसरे भाग से अत्यंत भयंकर और करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुई। उस समय रुद्र देव के क्रोधपूर्वक सांस लेने से सौ प्रकार के ज्वर और अनेक प्रकार के रोग पैदा हो गए। वे सभी शरीरधारी, क्रूर और भयंकर थे। वे अग्नि के समान तेज से प्रज्वलित थे। तब वीरभद्र और महाकाली ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव को प्रणाम किया।

वीरभद्र बोले: हे महारुद्र! आपने सोम, सूर्य और अग्नि को अपने तीनों नेत्रों में धारण किया है। हे प्रभु! कृपा कर मुझे आज्ञा दीजिए कि मुझे क्या कार्य करना है? क्या मुझे पृथ्वी के सभी समुद्रों को एक क्षण में सुखाना है या संपूर्ण पर्वतों को पीसकर पल भर में ही मसलकर चूर्ण बनाना है?

हे प्रभु! मैं इस ब्रह्माण्ड को भस्म कर दूं या मुनियों को जला दूं। भगवन्, आपका आदेश पाकर मैं समस्त लोकों में उलट-पुलट कर सकता हूं। आपके इशारा करने से ही मैं जगत के समस्त प्राणियों का विनाश कर सकता हूं। आपकी आज्ञा पाकर मैं इस संसार में सभी कार्यों को कर सकता हूं। हे प्रभु! मेरे समान पराक्रमी न तो कोई हुआ है और न ही होगा। भगवन्, आपकी आज्ञा से हर कार्य सिद्ध हो सकता है। मुझे ये सभी शक्तियां आपकी ही कृपा से प्राप्त हुई हैं। बिना आपकी आज्ञा के एक तिनका भी नहीं हिल सकता है। हे करुणानिधान! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। आप अपने कार्य की सिद्धि की जिम्मेदारी मुझे सौंपिए। मैं उसे पूर्ण करने का पूरा प्रयास करूंगा। हे प्रभु! आपके चरणों का मैं हर समय चिंतन करता रहता हूं। आपकी भक्ति परम उत्तम है। आप बिना कहे ही अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूरा करके उन्हें मनोवांछित और अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। आप भक्तवत्सल हैं। भगवन्, मुझे कार्य करने का आदेश दें तथा साथ ही उस कार्य की सफलता का भी आशीर्वाद दें।

ब्रह्माजी बोले: हे मुनिश्रेष्ठ! वीरभद्र के ये वचन सुनकर शिवजी को बहुत संतोष हुआ तथा उन्होंने वीरभद्र को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। भगवान शिव बोले पार्षदों में श्रेष्ठ वीरभद्र! तुम्हारी जय हो । ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा ही दुष्ट है। उसे अपने पर बहुत घमंड है । इस समय वह एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहा है। उसने उस यज्ञ में मेरा बहुत अपमान किया है। मेरी पत्नी ने मेरा अपमान होता हुआ देखकर उसी यज्ञ की अग्नि में अपने शरीर को भस्म कर दिया है। अब तुम सपरिवार उस यज्ञ में जाओ। वहां यज्ञशाला में जाकर तुम उस यज्ञ को विनष्ट कर दो। यदि देवता, गंधर्व अथवा कोई अन्य तुम्हारा सामना करे और तुम्हें ललकारे तो तुम उसे वहीं भस्म कर देना।

दधीचि की दी हुई चेतावनी के बाद भी जो देवतागण वहां यज्ञ में मौजूद हैं, तुम उन्हें भी भस्म कर देना क्योंकि वे सभी मुझसे बैर रखते हैं। तुम उन सभी को बंधु-बांधवों सहित जलाकर भस्म कर देना। वहां कलशों में भरे हुए जल को पी लेना। इस प्रकार वैदिक मर्यादा के पालक, भक्तवत्सल करुणानिधान शिव ने क्रोधित होकर वीरभद्र को यज्ञ का विनाश करने का आदेश दिया।