्रह्माजी बोले: श्रीविष्णु सहित अनेक देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों द्वारा की गई स्तुति सुनकर सृष्टिकर्ता शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक हम सबके आगमन का कारण पूछा। रुद्रदेव बोले- हे हरे! हे देवताओ और महर्षियो। मुझे अपने कैलाश पर आगमन के विषय में बताइए। आप लोग यहां किसलिए आए हैं? और आपको कौन-सा कार्य है? कृपया मुझे बताइए। मुने! महादेव जी के इस प्रकार पूछने पर भगवान विष्णु की आज्ञा से मैंने इस प्रकार निवेदन किया।
मैं बोला: हे देवाधिदेव महादेव! करुणासागर! हम सब यहां आपकी सहायता मांगने के लिए आए हैं। भगवन्, हम तीन होते हुए भी एक हैं। सृष्टि के चक्र को नियमित तथा सुचारु रूप से चलाने के लिए हम एक-दूसरे के सहयोगी की तरह कार्य करते हैं। हम एक-दूसरे के सहायक हैं। हम तीनों के परस्पर सहयोग के फलस्वरूप ही जगत के सभी कार्य संपन्न होते हैं। महेश्वर ! कुछ असुरों का वध आपके द्वारा, कुछ असुरों का वध मेरे द्वारा तथा कुछ असुरों का वध श्रीहरि द्वारा निश्चित है।
हे प्रभो! कुछ असुर आपके वीर्य द्वारा उत्पन्न पुत्र के द्वारा नष्ट होंगे। हे भगवन्! आप घोर असुरों का विनाश कर जगत को स्वास्थ्य व अभय प्रदान करते हैं। हे प्रभो! सृष्टि की रचना, पालन और संहार ये तीनों ही हमारे कार्य हैं। यदि हम अपने कार्य सही तरह से नहीं करें तो हमारे अलग-अलग शरीर धारण करने का कोई उद्देश्य ही नहीं रहेगा। हे देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। वास्तव में शिव स्वतंत्र हैं। वे लीला के उद्देश्य से सृष्टि का कार्य करते हैं। भगवान विष्णु उनके बाएं अंग से प्रकट हुए हैं। मैं (ब्रह्मा) उनके दाएं अंग से प्रकट हुआ हूं। रुद्रदेव उनके हृदय से प्रकट हुए हैं। इसलिए वे ही भगवान शिव का पूर्ण रूप हैं। उनकी आज्ञा के अनुसार मैं सृष्टि की रचना और विष्णुजी जगत का पालन करते हैं। हम अपना कार्य करते हुए विवाह कर सपत्नीक हो गए हैं। अतः आप भी विश्व हित के लिए परम सुंदरी को पत्नी के रूप में ग्रहण करें। हे महेश्वर! पूर्वकाल में आपने शिवरूप में हमें एक बात कही थी।
आपने कहा था: मेरा एक अवतार तुम्हारे ललाट से होगा, जिसे ‘रुद्र’ नाम से जाना जाएगा। तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता होओगे, भगवान विष्णु जगत का पालन करेंगे। मैं (शिव) सगुण रुद्ररूप संहार करने वाला होऊंगा। एक स्त्री के साथ विवाह करके लोक के कार्यों की सिद्धि करूंगा। हे महादेव! अब अपनी कही बात को पूरा कीजिए
हे प्रभु! आपके बिना हम दोनों अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं। अतः प्रभु! आप ऐसी स्त्री को पत्नी रूप में धारण करें, जो कि लोकहित के कार्य कर सके। भगवन् जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु की और सरस्वती मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप भी अपने जीवनसाथी को स्वीकार कीजिए।
मेरी यह बात सुनकर महादेव जी मुस्कराने लगे और हमसे इस प्रकार बोले,
उन्होंने कहा: हे ब्रह्मा! हे विष्णु! तुम मुझे सदा से अत्यंत प्रिय हो। तुम समस्त देवताओं में श्रेष्ठ तथा त्रिलोक के स्वामी हो। परंतु मेरे लिए विवाह करना उचित नहीं है। मैं सदैव तपस्या में लीन रहता हूं। इस संसार से मैं सदा विरक्त रहता हूं। मैं तो एक योगी हूं, जो सदैव निवृत्ति के मार्ग पर चलता है। घर-गृहस्थी से भला मेरा क्या काम? मैं तो सदैव आत्मरूप हूं। जो माया से दूर है, जिसका शरीर अवधूत है। जो ज्ञानी, आत्मा को जानने वाला और कामना से शून्य हो, भोगों से दूर रहता है, जो अविकारी है, भला उसे संसार में स्त्री से क्या प्रयोजन है? मैं तो योग करते समय ही आनंद का अनुभव करता हूं। जो मनुष्य ज्ञान से रहित हैं, वे ही भोग अधिक महत्व देते हैं। विवाह एक बहुत बड़ा बंधन है। इसलिए मैं विवाह के बंधनों में बं नहीं चाहता। आत्मा का चिंतन करने के कारण मेरी लौकिक स्वार्थ में कोई रुचि नहीं है। फिर भी जगत के हित के लिए तुमने जो कहा है वह मैं करूंगा। तुम्हारे कहे अनुसार में विवाह अवश्य ही करूंगा, क्योंकि मैं सदा अपने भक्तों के वश में रहता हूं। परंतु मैं ऐसी स्त्री से विवाह करूंगा जो योगिनी तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाली हो। जब मैं योग साधना करूं तो वह भी योगिनी हो जाए और जब मैं कामासक्त होऊं तब वह कामिनी बन जाए। ऐसी स्त्री ही मुझे पत्नी रूप में स्वीकार्य होगी। मैं सदैव शिव चिंतन में लगा रहता हूं। जो स्त्री मेरे चिंतन में विघ्न डालेगी, वह जीवित नहीं रह सकेगी। मैं, विष्णु और ब्रह्मा हम सभी शिव के अंश हैं। इसलिए हम सदा ही उनका चिंतन करते हैं। उनके चिंतन के लिए मैं बिना विवाह किए रह सकता हूं। अतः मुझे ऐसी पत्नी प्रदान कीजिए जो मेरे अनुसार ही कार्य करे। यदि वह स्त्री मेरे कार्यों में विघ्न डालेगी तो मैं उसे त्याग दूंगा।
विवाह हेतु शिव की स्वीकृति पाकर मैं और विष्णुजी प्रसन्न हो गए। फिर मैं विनम्रतापूर्वक भगवान शिव से बोला- हे नाथ! महेश्वर ! प्रभो! आपको जिस प्रकार की स्त्री की आवश्यकता है, ऐसी ही स्त्री के विषय में सुनो।
हे प्रभु! भगवान शिव की पत्नी उमा ही विभिन्न अवतार धारण करके पृथ्वी पर प्रकट होती हैं और सृष्टि के विभिन्न कार्यों को पूरा करने में अपना सहयोग प्रदान करती हैं। उन्हीं देवी उमा ने लक्ष्मी रूप धारण कर श्रीहरि को वरा। सरस्वती रूप में वे मेरी अर्द्धांगिनी बनीं। अब वही देवी लोकहित के लिए अपने तीसरे अवतार में अवतरित हुई हैं। उमा देवी प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में अवतार लेकर आपको पति रूप में पाने की इच्छा लिए घोर तपस्या कर रही हैं। उनका नाम देवी सती है। सती ही आपकी भार्या होने के योग्य हैं। वे महा तेजस्विनी ही आपको पति रूप में प्राप्त करेंगी।
हे भगवन्! आप उनकी कठोर तपस्या को पूर्ण करके उन्हें फलस्वरूप वरदान प्रदान करिए। उनका तपस्या का प्रयोजन आपको पति रूप में प्राप्त करना ही है। अतः प्रभु आप देवी सती की मनोकामना को पूरा कीजिए। हम सभी देवी-देवताओं की यही इच्छा है। हम आपके विवाह का उत्सव देखना चाहते हैं। आपका विवाह तीनों लोकों को सुख प्रदान करेगा तथा सभी के लिए मंगलमय होगा। तब भगवान शिव बोले- आप सबकी आज्ञा मेरे लिए सबसे ऊपर है क्योंकि मैं सदैव
अपने भक्तों के अधीन हूं। आपकी इच्छानुसार मैं देवी सती द्वारा तपस्या पूरी कर उनसे विवाह अवश्य करूंगा। भगवान शिव के ये वचन सुनकर हम सभी बहुत प्रसन्न हुए और उनसे आज्ञा लेकर अपने-अपने धाम को चले गए।